सोमवार, 30 सितंबर 2013

तुम्हारा स्पर्श

तुम्हारा स्पर्श


तुम्हारा स्पर्श
तुम्हारा संवेदनाओं भरा,
अहसासों में किया,
हर स्पर्श
गुदगुदा जाता है
मन उपवन में
इक नया गुच्छा, फूलों का
गमका जाता है

तुम्हारा संवेदनाओं भरा,
अहसासों में किया,
हर स्पर्श
डुबो देता है मुझे
ज़ुल्फो के श्याह अंधेरो में
लिपट जाता हूँ , तेरी
चंदन सी काया से
सर्प बन,शीतलता की खोज में
क्षण भर में,
तुझमें खो
मन तृप्त हो जाता है

तुम्हारा संवेदनाओं भरा,
अहसासों में किया,
हर स्पर्श
नये जीवन का
प्रात ले आता है
अरुण किरणें जिन पर
पसरी हों
ऐसी सरिता तीर
मन साथ चला जाता है
हर पल हर क्षण
उन्माद जगा जाता है

तुम्हारा संवेदनाओं भरा,
अहसासों में किया,
हर स्पर्श
परमानंद का अहसास
करा जाता है
दुख का हर सोपान
हर भेद भुला
सुख सागर में
डूब जाता है
भटकता अनवरत चारो दिशा में
मन
एकाग्रता पा जाता है

तुम्हारा संवेदनाओं भरा,
अहसासों में किया,
हर स्पर्श
तुम्हारी पहचान
बता जाता है
इक अक्स सुंदर
जिससे सदियों से मेरा नाता है
चुपचाप आँखो में
उतर आता है
तुम्हारा संवेदनाओं भरा,
अहसासों में किया,
हर स्पर्श
गुदगुदा जाता है

         उमेश कुमार श्रीवास्तव


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ग़ज़ल



विस्मिल हुआ जाता है दिल,न इस कदर इठलाइए
मरीज-ए-जुनू पहले से था,और न उसे तड़पाइए

सर नगू है इस कदर , गर्दन भी दुखने लगी
मेरी इस तस्वीर पर कुछ तरस खाइए

प्यासा खड़ा हूँ चस्मे हाला को तेरी
मीना - ए- लब से इन्हे मुझको पिलाइए

मानता हूँ हुस्न की हो इक ज़िंदा मिशाल
इश्क भी है चाशनी ज़रा चख जाइए

मौत को फुरसत कहाँ जो हाल पूछे आ मेरा
'साकी' ज़रा मेरे लिए फुरसत से आइए

                                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 28 सितंबर 2013

आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ




कितने दिन से मैं चुप था
आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ
समय जोहता कहाँ किसी को
उसके संग भी , कुछ तो रह लूँ

रही अदावट मेरी सदा ही
नये मूल्य आदर्शों से
किंचित पल अब ,ठहर सोचता
कुछ उनसे भी गागर भर लूँ

मैं पुरुषार्थ प्रतीक बना
विपरीत लहर के चलता था
पर मुर्दों सम , संग लहरों के
क्यूँ ना, बहने का,अनुभव कर लूँ

ज्ञान अधूरा तब तक, जब तक
द्धय, तम-ज्योति, ज्ञान न होवे
निमित्त इसी के,आज पाप से
चन्द पगों का गठजोड़ न कर लूँ

नहीं कह रहा , पुण्य भूमि हूँ
हूँ पाप पुण्य से मिला बना
पर , मथमथ कर इस जीवन को
क्यूँ ना आगत उज्ज्वल कर लूँ

कितने दिन से मैं चुप था
आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव


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ग़ज़ल



आना है , तो दिल के पास , आ जाइये
नज़रो के रास्ते , दिल में , समा जाइये

शमा जो जलेगी , दूर हो जाएँगे अंधेरे
तुम भी ज़रा ,अदा से मुस्कुराइये

दिल को सुकून है कहाँ , नज़रो को चैन है
लब फड़क रहें हैं , कुछ फरमाइए

तन्हा जी सकोगे ,ये तुमको है गुमान
ख्यालो को मुझसे, तुम ज़रा, तन्हा कराईए

गुमनामियो में खो जाएगा, ये हुस्न-ओ-शबाब
सीने से लग, वजू , खुद का बचाईए

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

ग़ज़ल



चुपके चुपके यूँ तेरा ख्यालों में आना ठीक नहीं
अंजुम में आओ तो अच्छा, ख्वाबों में आना ठीक नहीं

मासूम जवानी सफ्फाक बदन मरमर में तरासा है तेरा
यूँ हाथ उठा अंगड़ाई ले , दीवाना बनाना ठीक नहीं

शोख़ तब्बस्सुम चाह लिए गुमसुम सी अधर की पंखुड़ीयाँ
बाधित ना करो इस यौवन को , अवरोध लगाना ठीक नही

कैसे ना कहूँ विस्मिल हूँ मैं, तेरी हर कातिल चितवन से
उठती नज़र से तीर चला , यूँ नज़रें झुकाना ठीक नहीं

मैं तो प्यासा था प्यासा हूँ , बैठा हूँ मय की आश लिए
मय की प्रतिमूरत हो जब तुम , यूँ आ छिप जाना ठीक नहीं


                             उमेश कुमार श्रीवास्तव 

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

अंतर्द्वंद




तरंगे उठती हैं
ज्वार-भाटों सी कुछ-कुछ
कभी स्थिर नही रहने देती
जो जिन्दगी को

कभी अनुभव करता हूँ
स्वयं को
उच्चतम शिखर पर
जहाँ सभी कुछ
मनोहारी प्रतीत होता है
चक्षु शीतलता की अनुभूतियाँ करते हैं
कानो में निश्च्छल स्वर लहरी बज उठती है
औ सांसो में चंदन महक उठता है
मन तृप्त सा हो जाता है .

जग की मोहमाया से लिप्त
यह भौतिक जीवन
वास्तव में नश्वरता की
अनुभूति से भर देता है
मस्तिष्क को
लगता है मेरी मोक्ष की तलास
पूरी हो चुकी है

सभी मे मैं स्वयं को अनुभव करने लगता हूँ
औ समस्त जड़ चेतन
मुझी में समाहित से दिखाई देते हैं
यह सामंजस्य
स्वयं का स्वयं से ही
कितना अद्भुत होता है
क्यूँ की वहाँ 'मैं' कहाँ होता है
केवल औ केवल
एक पिंड होता है
जिससे अलग जड़ चेतन
किसी का कोई
अस्तित्व ही नहीं लगता
और मैं विलीन होने लगता हूँ
उस अनन्त अभेद्य
अक्षर, ब्रम्‍ह में

पर क्षण भर में ही
प्रकृति की शाश्वातता
चुभने सी लगती है
आत्मा फिर उसी आवरण से
ढकने सी लगती है

अब मैं भाटे पर होता हूँ
प्रकृति के नियम की छाया में
इस भौतिकता के अन्तह्तल में कहीं
खो जाता हूँ मैं
एक ऐसे तल में
जो अतल सा प्रतीत होता है
क्यूँ कि वहाँ टिक कहाँ पाता हूँ
निरन्तर
नीचे और नीचे
फिसलता पाता हूँ स्वयं को
फिर कैसे कहूँ
किसी तल की अनुभूति
होती है मुझे

कभी परिवार , कभी समाज ,
कभी देश कभी राष्ट्र
कभी संस्कृति औ सभ्यता जैसे
अनेक स्तर
तल की अनुभूतियाँ देते हैं
वास्तविकता से दूर
कभी धन कभी यौवन
कभी तन कभी मन
औ कभी जीवन की लालसाएँ
दुर्भिक्ष की भूख सी
घेर लेती हैं मुझे
इनका ही सहारा ले
उबरना चाहता हूँ,दो पल
पर डूबता ही जाता हूँ निरंतर
अतल के तल को
निश्चित करने

स्वयं को स्थिरता देने की चाह में
शायद खो देता हूँ
स्वयं को ही मैं
और खो जाता हूँ इन्ही के मध्य
भूल निर्लिप्तता की राह

सदा सर्वदा रहता आया
रथी मेरा
इन्ही दो अवस्थाओ के मध्य
नहीं पा सका समतल
अश्वो को लयबद्ध करता
झुझला पड़ता है सारथी
कभी कभी, औ
छोड़ देता है लगाम हाथो से
कुढता हुआ सा रथी पर
और उच्छसृंखल हो
दौड़ पड़ते हैं अश्व
अलग अलग दिशाओं में खींचते
रथ को
प्रेरित करती लगाम
बिलबिला उठता है रथी
नित निरंतर ठोकरे खा - खा उछलता
इस असमतल भूमि पर
यही होती पराकाष्ठा अनुभूति की
भौतिक जगत की मेरी

                        उमेश कुमार श्रीवास्तव

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अनुभूति



अनुभूति 



मैने देखा है
नित होते
एक समर
जिजीविषा के निमित्त
विभीषिका जिसकी
उद्धवेलित कर देती मन को
चित्त, विकृति के कगार पर
डगमग डगमग
डोल डोल कर
भयभीत पीत बदन के संग
संतुलित स्वयं को करता
अस्तित्व के निमित्त
स्वयं की

मैने देखा है, रुदन,
दर्द के गीत
हर पल हर क्षण
विह्वल हो हो,
रुधिर सरिता नयनो से झरती
कांतिहीन चेहरों को
तड़ाग सदृश्य बनाती
डूबी आकांक्षाओ की तरणी
एक नहीं , अनगिनत
जिसमें

मैने देखा है
अधर पुष्प को कुम्हलाते
मसले पुष्पों पर ज्यूँ
रवि की निष्ठुरता
बरसी हो,
उनकी पंखुड़ियाँ सूखी
काँटों से भी तीव्र
चुभन अब करती ,
पर मजबूरन
शृंगारिक आभाष निमित्त
उनको अधरों पर धरते

और सुनी है
सरगम के पीयूष स्वरों में
एक चीख !
वातायन से
प्रतिध्वनित हो रही
टकरा टकरा अपना सर,
कुछ रोती कुछ गाती सी
ज्यूँ करती, भेद्य दिशा की
अथक खोज
स्वतंत्रता निमित्त

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

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सोमवार, 23 सितंबर 2013

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसाने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
 भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर

वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की
आज की ही तरह
चला रहा होगा
पाँव तू
इस मकडजाल में
औ चाहता होगा
वापसी , तूभी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही
क्यूँ क़ि
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

अनामिका



स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव
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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

इजहारे दिल : चंद शेर



१ - हम तो कोशिश करते भूल जाने की अक्सर
      वो तो शायद , याद करते ही नहीं

२- वही चाँद वही तारे वही पिज़ा  वही  नज़ारे
     फ़िर क्यूँ चुप सब !
     लगता बिन तुम्हारे

३- रँगे हया के शबनम में लिपटी तब्बस्सुम तेरी
     हाय ! मुझमें , जुनू भर गई

४- तुझे देख नहाता जमुना जल में
     मुझे बदगुमानी हुई ताज महल की

५- ये नाजे अंदाज ये शोखी शरारत
     क्यूँ ना करे आशिक तेरी इबादत

६- तुम बस गई हो साँसो में इस कदर
     जिसको भूलना , मौत का पैगाम ले के आएगी

७ - आँखो का समझ  अश्क तूने मुझे जुदा किया
      शबनम सी मोहब्बत मेरी खाक में मिला दिया

                           उमेश कुमार श्रीवास्तव
     

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

व्यथा हिय की



मैं रोता हूँ या मैं हँसता
आज मुझे ये याद नहीं
कल रोता था या था हँसता
ये भी मुझको याद नहीं। .

सुख की किरण मिली थी कोई
इस पड़ाव तक आते आते
तम में खोई इन आखों को
ऐसी    कोई    याद      नहीं। .

उस पड़ाव से चला था जब मैं
थी इक गठरी, कुछ अनुभव की
सुख था,दुःख था , या दोनों था
यह भी बिलकुल याद नहीं।

यहाँ से आगे कहाँ है जाना
या तम में होगा खो जाना
जाना है तो किस पथ जाना
आया अब तक याद नहीं।

कहाँ से आया ? कहाँ हूँ आया ?
कहाँ टिका हूँ ?कहाँ है जाना ?
भटक रहा हूँ इन प्रश्नों  में
उत्तर  आता  याद  नहीं।

                उमेश कुमार श्रीवास्तव 

बुधवार, 18 सितंबर 2013

नर्मदे , शत नमन



हे , नर्मदे
शत नमन
कोटिशः वंदन

स्नेहिल हिय , पुलकित गात
गह्यवर्ता की क्या बिसात
स्पर्श तेरा है वंदन
महक रहा चंहु दिश चन्दन
हे , नर्मदे
शत नमन
कोटिशः वंदन

आँचल की तेरी वो सरकन
कलकल ध्वनि में उन्मोदित मन
शान्त मूर्ति की वह चितवन
तेरे चरणों का शत चुम्बन
हे , नर्मदे
शत नमन
कोटिशः वंदन

आत्म क्षेत्र का कर उल्लंघन
विश्रंखलित हुआ जाता जीवन
भर आत्म शक्ति आलोक प्रमोद
दे सदगति , दे सदचिन्तन
हे , नर्मदे
शत नमन
कोटिशः वंदन

भीगी पलकें भीगे ये नयन
करते तुझको अर्घार्पण
भटकाव भरा यह जीवन
शरणागत अब , दे नव स्पन्दन
हे , नर्मदे
शत नमन
कोटिशः वंदन

                उमेश कुमार श्रीवास्तव


मंगलवार, 17 सितंबर 2013

चंद शेर दिल के


१- चाँद को हमने दागदार देखा था
   ये चाँद फिर कहाँ से बेदाग़ आ गया

२- दिल की तमन्ना को जुबाँ  पे लायें क्यूँ
   जब नजरें ही प्यार की हर बात कह रही

३- याद आती है तुम्हारी जब चिराग जल उठतें  हैं
   और दिल में मेरे यार ,अँधेरा सा बना रहता है

-४ कुशूर आप का नहीं जवानी भी क्या करे
    जब नजरें ही तीर बन कर विस्मिल कर रही

५- यादो में दिल रोयेगा गर उफ़ निकलने ना दूंगा
    गर उफ़ निकल भी गई तो अश्क ढलने ना दूंगा

                              उमेश कुमार श्रीवास्तव 

रविवार, 15 सितंबर 2013

मानवीय गुणो के पतन का मूल कारक

                    उद्वेग की प्रचूरता कितना व्यथित कर देती है। चिंतन को ,कुंठा की सीमा तक ला बावला सा बना देती है। कभी कभी जब चिंतन की धाराएँ हिलोरें लेने लगाती हैं , अन्तःचेतन में और कुछ नवीन विचारो  की पृष्ठिभूमि रचनें  लगती हैं मस्तिष्क पटल पर , उद्वेग की अधिकता और भोग इन्द्रियो का दुरूह आग्रह भटका देता है ,एक अंधड़ सा मचा उन्हें अपने गंतव्य तक पहुचने के पूर्व।  उस भयंकर अंधड़ के जन्म लेने के पूर्व विवश कर देता है , उस नवीन विचारोँ  के अनबूझ अनजाने भ्रूण को स्व -हनन हेतु।
                       भोग -इन्द्रियो का शमन कितना दुरूह कार्य है , इसे भोगने वाले का मन मस्तिष्क ही जान  सकता है। दूसरो को इसकी जानकारी शब्द -रचनाओं के माध्यम से सम्प्रेषित किया जा सकना असंम्भाव्य है। ये भोग इन्द्रियां संतोष की सीमा रेखा तक कभी पहुँच भी पाती हैं , ऐसा प्रतीत तो नहीं होता। असंतुष्ट अपूर्ण कामनाएं कितना बवंडर सा उठाती हैं मन मस्तिष्क में , इनको अभिव्यक्त किया जाना किसी बाह्य यान्त्रिकी से सम्भाव्य  नहीं है। मात्र भोक्ता का मर्म-स्थल ही इसकी पीड़ा समझ जान सकता है। भोग इंद्रियो के माध्यम से भोक्ता कभी उद्दीपको या कारको का भोग कर सकता हो या नहीं किन्तु इन भोग इन्द्रियो द्वारा स्वंम भोक्ता का भोग अवश्य कर लिया जाता है। दीमक सा चाट जाती हैं ये , दुश्चिंता बन भोक्ता के चिंतन , आत्मा व् काया  को।
                        त्याग के भाव से ही भोग करना चाहिए , क्योँ कि जगत का सर्वस्व ब्रह्म लीन है। यह वाक्य यद्यपि मन चित्त को सुखद व् सांत्वनाप्रद अवश्य लगते हैं , पर आज के भौतिक युग में जहाँ एक ओर सर्व सुखो से पूरित सन्तुष्ट जगत को देख , स्वयं के अभाव की कुण्ठा जन्म लेती है।  वहीँ यह , इन इन्द्रियो को उद्दीपक बन उद्दीप्त कर देती है और जो कुछ भी अपना है उसे मात्र स्वयं का समझ उसे भोगने की इच्छा जाग्रत हो उठती है।
                         जिस किसी पर अपनत्व आरोपित कर उसे भोगा  जावे उससे लगाव का होना भी सहज प्रतिक्रिया  होती है। उस लगाव का प्रतिफल प्रति लगाव के रूप में ,इस स्थिति में आ ढूढ़ना भी सामान्य मानव प्रकृति है। जिसमे आया क्षणिक ,तुक्ष अवरोध भी अनेक दुखद परिवेश का निर्माण कर देता है। अन्तःस्थल में बसा सच्चा लगाव उस पर से अपना मोह समेटने में भी असमर्थ हो कुंठा का शिकार होता जाता है। जिसका आधिक्य ही संभवतया उद्वेग के रूप में जन्म लेता है और मिटा देता है मानवोचित स्वाभाविक प्रकृति को ,स्वभाव को।
                          कितनी दुखदाई होती है वह पीड़ा जब दो ध्रुवो के समान आकर्षण में फंसा व्यक्तित्व , किसी एक की ओर भी खिंच नहीं पाता ,अधर में त्रिशंकु सा लटक जाता है। उस उद्दीपक का लगाव जिसने कि दूसरे से विकर्षित किया है जब विकर्षण ही अदा करने लगता है, स्वतः तक पहुचने देने , स्वयं में लीन होने देने में भी जब अवरोध उत्पन्न करने लगता है। तभी इस दुखदाई परिस्थिति का जन्म होता है। यही परि स्थिति उस परिवेश को जन्म देती है जिसमे फंस सामान्य व्यक्तित्व असामान्यता की ओर अग्रषित हो जाता है। जिसकी परिणति किसी तम  -विवर में खो कर अपना अस्तित्व मेट देना होता है। जो मानवीय गुणो  के पतन का मूल कारक है।
                                                           
                                                              उमेश कुमार श्रीवास्तव
                                                               दिनांक : १४. १० १९९५    .





शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हमें इतिहास रचना है

हमें इतिहास रचना है


हमें इतिहास रचना है
नया इतिहास रचना है

नई  है आज पीढ़ी भी  , नया है ज्वार खूनो  में
नया उत्साह ले कर के नया कुछ खास लिखना है।

अभी तक थी गुलामी की बची सिसकारियां दिल में
उन्हें उन्मुक्त सासें दे दिलो पर हास  लिखना है।

उन्होनें  तुष्ट कर कर के दिलो को बाँट डाला  था
सभी को साथ ले बन्धू , सभी को साथ दिखाना है।

हमारा धर्म है सहिष्णु हमारा कर्म है सहिष्णु
दिलो में आज सबके ही यही बस पाठ लिखना है।

हिन्दू सिक्ख ईसाई  मुस्लिम पारसी सारे
हिन्दुस्तान  है अपना ,हिन्दू हैं सभी न्यारे।

तभी तो आज सबको मिल, सभी को  साथ दिखना  है
हमें इतिहास रचना है नया इतिहास रचना है

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव
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कब तक


कब तक बलिदानों  की भाषा
हम से बुलवावोगे   ?
कबतक त्यागों  की आशा ,
बस हममें ही पाओगे ?

कब तक एक जून की रोटी में भी
बचत हमें सिखलाओगे ?
कब तक अधनंगे  तन से , चीर ,
चीर , ले जाओगे ?

कब तक दानी कहलाने का हक़ ,
 बस, हमको दिलवावोगे ?
कब तक ज्वरित कांपते तन से
सकल बोझ  ढुलवावोगे  ?

बलिदानो का आह्यवाहन उठाने वालो
ऐ त्यागो की आश लगानें वालो
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर
जब स्वयं  इन्हें अपना दिखलाओगे

ऐ पञ्च सितारा संस्कृतियो में पले  बढे
हो तुम तो चर्बी बोझ तले दबे पड़े
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर ?
दूजो के हित , जब बचत तुम्ही दिखलाओगे

हम तो वंशज दधीचि  के कहलाते
तुम भी कर्णधार हो राष्ट्र भूमि भारत के
जब लेते अस्थि हमारी धरणी उद्धार हेतु
फिर तुम कब , कर्ण बन दिखलाओगे

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव


गुरुवार, 12 सितंबर 2013

मेरी स्वप्न सुंदरी


अय चाँद, रश्मि तेरी
सकुचाती , शरमाती , झिझक-झिझक
अपने स्पर्शों से
पुलकित कर जाती थी
मुझको उस निशा मध्य

मेरे अंको को अपने अंक मध्य
छिपा कहीं ले जाती
स्वर्गीय भूमि मध्य,
उसका वह अद्भुत स्पर्श !
अपने जीवन को मैनें
जिया था शायद उसी निशा

अय चाँद तेरी चाँदनी का
वह अनछुआ स्पर्श
स्मृतिओ में ताजा
अमिट निशानी छोड़ गया है

मेरे अधरों पर उसके चुंम्बन
शीतलता के प्रतीक बने
अब भी अंकित हैं
प्रेम रशों की गूँज
अनुगूंजीत है कर्णपटों पर
अब भी मेरे

अब भी सासों में मेरी
स्फटिक सुंदरी की गंध रची है
उसकी अद्भुत काया में
अब भी मैं खोया रहता हूँ

इन्ही कारकों मध्य फँसा अब तक
ना चक्षु पटल खोल सका हूँ
कि स्वप्न मेरा, बस स्वप्न न ठहरे
जो पलकों के बाहर,
टकरा जाए , यथार्थ के पाषाणओं से
और बिखर जाए,
काँच की गिरी मूर्ति सी
मेरी स्वप्न सुंदरी
चंद्र-रश्मि
भरी दोपहरी

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

पहाड़ी फूल सी 'तुम'




तुम हाँ तुम
उस पहाड़ी फूल की मानिन्द
उत्परेरित करती रहती हो
मुझे सदा
जो शोषित करता है
चट्टानों के रस
मैदानों की मृद मृदा रस छोड़
उतुन्ग शिखर पर जा
और अपने चेहरे पर सदा
इक ओज लिए
मुस्कुराता रहता है
ज्यूँ कह रहा हो
सहज जीवन भी कोई जीवन है
जीवन तो कला है
विषमताओं में ,हास्य लिए,जीने की


मेरे पग जो लड़खड़ाने लगते हैं
उस शिखर को लख , जिसे
माना है मंज़िल ,मैने
राहों में जिसकी
अनगिनत सुरसाएँ खड़ी है
लीलनें को मुझे
पर उपेक्षा करने लगता है मन
ज्यूँ हो ही न उनका कोई अस्तित्व
अवलंबन पा लेता है जब, तेरा वो


लगता है ज्यूँ
इक लावा सा दौड़ता हो
धमनियों में
और रखने लगता हूँ मैं
ज्यूँ फिर फूलों पे कदम

हर पड़ाव की थकन ,जैसे
मिटा  देता है उसका दर्शन
वैसे ही तुम ,आ स्मृतियों में
नज़दीक ला देती हो
मंज़िल को , दो कदम


उसकी झलक जहाँ बुनियाद गढ़ती है
सतत संघर्षों की
वहीं तुम्हारी याद
मंज़िल तैयार कर देती है
हर राहों पर मेरे


मैं आज जहाँ भी हूँ
वहाँ मैं नहीं 'द्धय' तुम हो
मैं तो आभासिक छाया हूँ
असफलता या कि सफलता की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

                    

कर चिंतन,रे मन

क्या तुम कभी अपने पास आए थे स्वयं को भी लुभाए थे
यदि नही तो आ जाओ स्वयं के भीतर झाँक कर उसे लुभाओ 
देखो कहीं कोई दरकन तो नही है, टूटन तो नही है, गंदगी तो नही है, बुराई तो नही है 
जिन नरम तंतुओं से गढ़ा था तुझको उसमें कोई कड़ाई तो नही है.
फिर लुभाओ खुद को पहुचने को उसके पास
कर सको तो कर लो नहीं तो दूसरो को भी लुभाना छोड़ दो
खुद से भले दूर रहो पर खुद को दूसरो से भी दूर रखो
जिओ और जीने दो


जो गुण रहित है, कामना रहित है, निरंतर वर्तमान है, जिससे स्वम को पृथक नही किया जा सके जो अत्यधिक सूक्ष्म है उसे केवल अनुभूतिओं से जाना जा सके वह प्रेम है 


मेरे जेहन में जीवन संगनी की जो तस्वीर है वह औरत की वफ़ा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिल्कुल मिटा कर पति के आत्मा का एक अंश बन जाती है, देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है, आप कहेंगे मर्द अपने को क्यो नही मिटाता ?औरत से ही क्यों इसकी आशा करता है ? मर्द में वह सामर्थ ही नही है, वह अपने को मिटाएगा तो शून्य हो जाएगा, वह किसी खोह में जा बैठेगा और अह्न्कार मे यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला है सीधे ईश्वर में लीन होने की कल्पना करेगा, स्त्री पृथ्वी की तरह धैर्यवान है शांति - संपन्न है सहिष्णु है , पुरुष में नारी के गुण आ जाते है तो वह महात्मा बन जाता है , नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है , पुरुष उसी स्त्री की ओर आकर्षित होता है जो सर्वान्स में स्त्री हो , संसार में जो कुछ सुंदर है उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ , मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि उसे मार ही डालूं तो प्रतिहिंशा का भाव उसमें न आवे , अगर मैं उसकी आँखो के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे, ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पन कर दूँगा....प्रेमचंद...गोदान.....


ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय , मॄत्योर्मा अमॄतं गमय।
O Lord! Lead me from the untruth to truth, darkness to light and death to immortality.



धनाढ्य होने के बाद भी यदि लालच और पैसों का मोह है, तो उससे बड़ा गरीब और कोई नहीं हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति 'लाभ' की कामना करता है, लेकिन उसका विपरीत शब्द अर्थात 'भला' करने से दूर भागता है।


जिस प्रकार पशु को घास तथा मनुष्य को आहार के रूप में अन्न की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भगवान को भावना की जरूरत होती है। प्रार्थना में उपयोग किए जा रहे शब्द महत्वपूर्ण नहीं बल्कि भक्त के भाव महत्वपूर्ण होते हैं।


“जो जिसके मन में है, वह उससे दूर रह कर भी दूर नहीं है और जो जिसके मन में नहीं है, वह उसके समीप रह कर भी दूर है


गुण छोटे लोगों में द्वेष और महान व्यक्तियों में स्पर्धा पैदा करता है |


“We are what our thoughts have made us; so take care about what you think. Words are secondary. Thoughts live; they travel far.” - Swami Vivekananda

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

सोमवार, 9 सितंबर 2013

साथ चलोगी

 साथ चलोगी ?


कितनी दूर तुम साथ चलोगी
मेरे संग संग कदम बढ़ा कर
मैं तो पथिक दूर देश का
है अनजान मेरी डगर
क्यूँ ? कंटक पर कदम धरोगी ?


नहीं पड़ाव है ना ही मंज़िल
बस , चलना ही जीवन समझूँ
इक आशा उद्धेश्य साथ है
इक रस्ते जा दूजे आ जाऊ
पंचतत्व पतवार बना कर
क्यूँ ? यूँ मेरा साथ धरोगी ?

इस गंगे से उस गंगे तक
इस धरती से उस धरती तक
कहाँ व्योम ? कहाँ तिमिर ?
इस पथ का मैं पथिक निरंतर
क्यूँ ? फिर भी प्रस्थान करोगी ?

इस पार तुम्हें हैं लाखो खुशियाँ
जीवन की भौतिकता की
उस पार मेरी एकाकी आशा
अज्ञात ज्ञातसे मिल जाने की
सागर में खो जाने की
क्यूँ ? मुझ संग बूँद बनोगी ?

तुम्हे खींच रहे होगे जब
घनीभूत होते संबंध
विपुल विलाषिता के घेरे में
घिरे तुम्हारे होगे क्षण
उस क्षण भी क्या चंचलता तज
ध्येय धरा पर कदम धरोगी ?

ज्ञान सदृश्य तरल नहीं मैं
मन सदृश्य गतिशील नही
पर सरिता की जल राशि रहा हूँ
उबड़ खाबड़ समतल सब पर
गिरता पड़ता बहता रहता
क्यूँ ? ऐसे का साथ धरोगी ?

स्वयं नहीं जब जान सका
कौन, कहाँ और क्यूँ है मैं
है अस्तित्व धरा पर क्यूँ कर
भटक रहा जिस पर यह मैं
फिर कैसे 'तुम' को साथ करूँ
क्या ! मुझ संग 'मैं' की खोज करोगी ?

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव
www.hamarivani.com

प्यार क्या है ?

प्यार क्या है ?


प्यार क्या है ?
महज इक उत्तेजना !
जो घेर लेती है क्षण में
और उतर जाती दूसरे क्षण
वासना के ज्वार सदृश्य

या, प्यार है वह संवेदना
जो जोड़ती है , न केवल
मानवो को मानवो से
वरन संपूर्ण प्रकृति को
 इक दूसरे से
इक दूसरे का हो कर

प्यार क्या है ?
क्या मानवता पाठ
विपरीत है इसके
या कि , मानवता
 उदभुत हुई है, इसी से

सोदेश्य बाधित किया है
चिंतन हमने
इस दिशा में
और  संतुष्ट हैं
वासना को ही प्यार का
नाम दे कर
जो नही वो

प्यार अमी है
सोम रस सी
पवित्र है,ब्रम्ह सी
सरस है, शहद सी
निर्मल है , निर्झरणी सी
अदृश्य है , आत्म सी
कमनीय है , दामिनी सी
वास करती है सभी में
सुरसरि सी

प्यार मिलन दो आत्म का
मरता कहाँ तज अस्थि-पंजर
प्यार सास्वत अजर अमर

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

रविवार, 8 सितंबर 2013

दो मानव की परिभाषा




तुमने देखी होगी बूँद समाते सागर में
हमने बूँदो में सागर सिमटे देखा है

तुम मुग्ध हो रहे उन्मुक्त हँसी सरिता की देख
हमने चट्टानो को नीर बहाते देखा है

समीर त्रयी में मुस्काते बैठे तुम उपवन में
हमने तो अनल ज्वाल में उनको पलते देखा है

तुमको क्षुधा सता जाती होगी फल फूलो जिस्मो की
हमने उनको भूखे नंगे आते जाते देखा है

अब तुम्ही कहो क्या तुमने पाँव धरा पर रखे कभी
हमने उनको वसुधा-तनय बना सदा देखा है

क्या कहूँ कहाँ रही अचरज में पड़ने की जिज्ञासा
ये दुनिया कितनी बिखर रही दे दो मानव की परिभाषा

                       उमेश कुमार श्रीवास्तव

पिता जी के देहावसान पर उनकी स्मृति मे.




भीग गई थी पलकें,
अश्रु,
रह रह मचल रहा था
उद्वेलित मन गह्यवरता खो
ले आज हिलोर रहा था

सभी इंद्रियाँ पाषाण हुई ज्यूँ
तोड़ सभी परिभाषाएँ
रुधिर जम उठा धमनियो में
अब कहाँ डोल रहा था

भटक भटक कर तुम पर ही
टिक जाता था चिंतन
भूत भविष्य से , पल पल मुझको
जब जब तोल रहा था

हर पीड़ा पर मुझको तुमने
सिखलाया था हँसना
इस क्रूर घड़ी पर ,हँस ले खुल कर
दुर्भाग्य बोल रहा था

चिंताओं से घिरा हुआ पर
निश्च्छल लिए मुस्कानें
नज़रो के सम्मुख वह चेहरा
जब जब डोल रहा था

चले गये तुम चुपके से
बिना कहे कुछ बातें
क्या कारण था इस निष्ठुरता का
मन हुलस पूंछ रहा था

इन धमनिओ में रक्त तुम्हारा
इस पिंजर में जीवन
यह समझ-बूझ कर भी जब तुम को
चहूँ दिश ढूढ़ रहा था

तुमको रेखांकित करता असफल
अपने मस्तिष्क लहर से
व्याकुलता की लहरो में क्षण क्षण
जब मैं डोल रहा था


भीग गई थी पलकें,
अश्रु,
रह रह मचल रहा था
उद्वेलित मन गह्यवरता खो
ले आज हिलोर रहा था


   उमेश कुमार श्रीवास्तव
    दिनांक:२१.०७.१९९१

ग़ज़ल


ग़ज़ल


सियासत के रंग ये ज़रा देखिए
मुखौटे पे मुखौटा  ये चलन देखिए

कातिल ही देखो रहनुमा बन रहे
ये जमाने का उल्टा चलन देखिए

कितनी तड़प है उनके जिगर में
मौत बाँट उनका रुदन देखिए

चुस रहे जिस्म देखो मेहनतकसो  के
पी रहे जो लहू वो हमवतन देखिए

ऐ रब आज कैसा मंज़र हो रहा ये
ये माँ के वसन का हरण देखिए

मोहमाया में लिपटे सभी रहनुमा ये
महाभारत का करते जतन देखिए

               उमेश कुमार श्रीवास्तव

दर्दे दिल -४




१ शमा की नियति यही , रात दिन जलती रहे
    रौशनी देती रहे , खुद को अंधेरे में रख

२-आहें भरना मेरी फ़ितरत नहीं थी
    दिल लगा के तूने यह भी सिखा दिया

३-गेसुओं की महक से महका चमन ये सारा
    दिल भी हुआ बेचैन यूँ लेता नहीं किनारा

४-हर पल उनकी याद में घुट-घुट के मरता रहा
    मगरूर हैं वो इस कदर, ख्वाबो में भी ना आए कभी

५-न खुदा से है शिकवा न नाखुदा से शिकायत
     जब कश्ती ही है टूटी, क्यूँ कर न डूब जाए

६-अश्क आँखो के ना जाने कहाँ खो गये
     जी चाहता रोने को, रो नही पाते

७-कुछ तो कर अब ,ऐ परवर दिगारे आलम
    जिंदगी कटती नही बिन दिदारे यार के

८-जर्द लब भी अब मेरे हो चले मयखाना
    जब से उनके लब मेरे लब से छू गये

९-अब तक तो ना झुके थे आफताब के आगे
    महताब सा पा तुझे सर  नगूं कर लिया

१०-नज़रो की शोख तब्बस्सुम जब रुखसार पे उतरी
      शर्मो हया से उनने झट परदा गिरा लिया

                           उमेश कुमार श्रीवास्तव

सूत्र


मूर्खों से मूर्खता के विषय में बातें करना स्वयं को मूर्ख प्रमाणित करने का प्रयास मात्र है


अधेंरे मे रहने वाला उजाले से भय ख़ाता है पर उजाले मे रहने वाला सदा अधेरे से लड़ने को तत्पर रहता है


यदि आप की अच्छी पुस्तको से मित्रता है तो ज्ञान भी जल्द ही आपका मित्र बन जाएगा


                                             

शनिवार, 7 सितंबर 2013

सुभाषित--3


गुरुर्बन्धुरबन्धूनां गुरुश्चक्षुरचक्षुषां ।
गुरुः पिता च माता च सर्वेषां न्यायवर्तिनां ॥

"The teacher is kin to those who don't have any relatives; the teacher is an eye for the blind. The teacher is father and mother to everyone who lives on the path of justice."

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥ 
Everything is not good simply because it is old; nor a poem should be condemned simply because it is new; the wise resort to the one or the other after (proper) examination; (only) a fool has his mind led by the judgement of another.


को लाभो गुणिसंगम: किमसुखं प्राज्ञेतरै: संगति: का हानि: समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रति:।
क: शूरो विजितेन्द्रिय: प्रियतमा कानुव्रता किं धनं विद्या किं सुखमप्रवासगमनं राज्यं किमाज्ञाफलम्॥


What is a gain? It is the companionship of the virtuous. What is grief? It is the company of fools. What is loss? It is the dissipation of time. What is prudence? It is devotion to virtue. What is velour? It is the conquest of the senses. Who is the beloved wife? One who is devoted to her husband. What is wealth? It is knowledge. What is happiness? It is to remain settled in one's own country. What is ruler ship? It is to command obedience.


विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥

Knowledge gives discipline, from discipline comes worthiness, from worthiness one gets wealth, from wealth (one does) good deeds, from that (comes) joy.


विद्या नाम नरस्य रुपमधिकं प्रच्छन्नगुप्‍तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकारी विद्या गुरुणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
१२१॥ नीतिसूक्तिः
“Knowledge is certainly a man’s greatest beauty. It is a safe and hidden treasure.
It provides prosperity, fame and happiness. Knowledge is the teacher of all teachers.
It acts as one’s friend in a foreign country. Knowledge is the Supreme God.
It is the knowledge, not wealth, which is adored by kings. Without knowledge one remains as animal.”


स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
An imbecile is celebrated in his own home; a lord is respected in his own town; the king is worshiped in his own country; a learned man is honored everywhere.



वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारगणोऽपिच ॥

One good and noble son is better than a hundred fool sons. Only one moon lights the sky, where as thousand stars do not. Similarly one noble son brings fame and respect to family than hundred fools.


मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥
Let the world see me with the same. Let every body in the world see each other likewise.Let me see every creature in this world with a friendly eye.


अग्निहोत्रं गृहं क्षेत्रं गर्भिणीं वृद्धबालकौ।
रिक्तहस्तेन नोपेयाद् राजानं देवतां गुरुम्॥


One should not come empty-handed near the holy fire, a house, a field, a pregnant woman, an old man, a child, a sovereign, a deity and a guru.


अदृष्टपूर्वा बहव: सहाया: सर्वे पदस्थस्य भवन्ति वश्या: ।
अर्थाद्विहीनस्य पदच्युतस्य भवन्ति काले स्वजनोऽपि शत्रु: ॥

When a man is powerful and prosperous, friends gather around him and (come to him) from all directions; (but) if he is out of office and (lost his) fortune, they turn their backs on him, as foes in time of calamity.


दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥
 
पञ्चतन्त्र, मित्रसम्प्राप्ति
Charity, indulgence and destruction are the 3 alternatives to wealth. One which is not given in charity or used for self-enjoyment, that (wealth) will attain the 3rd state.


न चौरहार्यम् न च राजहार्यम् न भ्रातृभाजम् न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धते
 नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ - चाणक्य नीति
Neither the thief can steal it, nor can the king take it
Neither divided amongst brothers, nor too heavy to carry
The more you offer it others, the more it increases
Knowledge is the supreme form of wealth.


न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः न श्रूयते हेममयः कुरङ्गः ।
तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥

Neither has one made golden deer nor has anyone seen a golden deer. Even though, Ram desired to get the golden deer. In the time of destruction the intelligence goes opposite.


न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥
 मनुस्मृति
It is not a sin to eat non-veg food, not a sin to drink alcohol and not a sin to make love. These are only natural to all beings. If one can abstain from all these, then one can achieve great results.


धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः मानो धर्मो हतोवाधीत् ॥ 

- मनुस्मृति
Dharma destroys those who destroy the dharma by going against it. Dharma protects the person who protects it. Hence, dharma should not be destroyed but protected. Dharma that is destroyed, destroys.



काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥


A intelligent ('buddhiman') man spends his time in the research and studies of literature ('Kaavya') and philosophy ('Shastras' like Veda Shastra, dharma shastra etc.). Or in other words the said subjects are means of his entertainment (He gets satisfaction due to the studies of 'kaavya' and philosophy). In contrast a unintelligent ('Murkha') man gets satisfaction in bad habits like sleep (Laziness), quarrel or some type of addiction. Tatparya (Conclusion): In this subhaashita the subhaashitkar has in short advised the reader that how should one spend his/her time!! May be according to him a 'buddhiman' is a person who invests his time in order to get some thing 'valuable' and long lasting!!




नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
शीलं च दुर्लभं तत्र विनयस्तत्र सुदुर्लभः॥

In this world, to take birth in the human race is rare, wherein to obtain knowledge and wisdom is even harder. Further to have a noble character is harder and further still is modesty.


माँ भारती की पीड़ा


माँ भारती की पीड़ा



इस विपति की बेला को देखो
माँ झोली ले कर आई है
छः दशक की पीड़ा में
अपनी सब कांति गवाँई है



मुख से वाणी ना फूट रही
कंठ तलक पथराया है
चिथड़ो सम वसन बदन पर है
पैरो में छाला आया है

इस दीन दशा में हमसे मां
कुछ आश लगा कर आई है
हमने तो भुला दिया उसे
चल द्वार स्वयं ही आई है

गर पढ़ सकते पीड़ा नयनो की
तो पढ़ अर्थ निकालो तुम
माँ माँग रही क्या द्वारे पर
हो सके भीख सम डालो तुम

थी जंजीरो में जब जकड़ी
तुमने ही प्राण गँवाए थे
ललनाओं के हाथो ने भी
अपने सर्वश्व चढ़ाए थे

तब तो तुमने सर्वश्व सौप
माँ को खुशियो में तौल दिया
फिर हुआ आज क्या इन वर्षों में
स्वारथ में माँ को भुला दिया !

यह दीन दशा की है किसने
क्या यह भी पूछ  नही सकते
अपने स्वारथ को क्षणिक त्याग
माँ  कह, पुकार नही सकते

धिक्कार तुम्हे गर अब भी तुमने
माँ को द्वारे से दुद्कार दिया
माँ तो माँ है, सह लेगी, पर
समझो माँ को तुमने है मार दिया


        उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल-३

ग़ज़ल


ये जुनू है वहशत है या है दीवानगी
कि हर शख्स में तू है नज़र आती

प्यार से हर बुत को मैं चूमता फिरता
कि हर बुत तेरी अक्से-रु है नज़र आती

राहे इश्क पर कदम मेरे डगमगाते कुछ यूँ
कि कभी पास कभी दूर तू है नज़र आती

तीर-ए-नज़र अब तो रोक लो 'साकी'
दिल की हालत अब विस्मिल है नज़र आती

नाजो अदा तेरी देख लगता कुछ यूँ
हर फन में तू उस्ताद है नज़र आती

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव
                 दिनांक:२४.११.१९८९


ग़ज़ल- २

ग़ज़ल

शब्दो के हिन्दी अर्थ

यार र्‍ प्रेमी
कूंचे र्‍ गली
सबा र्‍ शीतल हवा
नामावर = पत्र वाहक
जख्में निहाँ = छिपी चोटें
बयां र्‍  विवरण बता देना
अश्क र्‍ आंसू
विस्मिल- घायल
आरजू र्‍ इच्छा, कामना
फना- गायब, अदृष्य
सब्र - धैर्य
तेगे जुनू= उन्माद की तलवार
आसियां- आवास
कफस- पिंजरा , गजल में शरीर रूपी पिंजरा
मगरूर - अभिमानी
फुर्कत र्‍ जुदायी , वियोग
नशेमन - घोसला , आवास


गुज़रेगी जब यार के कूंचे से तू सबा
नामावर बन जख्में-निहा उनसे कर देना बयाँ

कह देना उनसे कि अश्क भी अब सूखते
विस्मिल दिल से आरजूए हो चुकी कब की फ़ना

याद तो करता बहोत पर सब्र ही जाता रहा
कब तलक तेगे जुनू से मैं बचाता आसियाँ

इस कफस में आज तो ज़ान भी मचलने  लगी
छोटे पड़ने लगे अब ये ज़मीं ये आसमाँ

उस दिले मगरूर से आख़िर में कहना तू जा
मिट रहा फुर्कत में नशेमन का हर निशाँ

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव
                 दिनांक: २५.११.१९८९





शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

दर्दे-दिल --३



१   नयनो की मय अब ज़रा होठो पे लाइए
    अधरो से छू, हम भी ज़रा जन्नत तो देख लें


२   हम मजबूर हैं कितने की आ भी नही पाते
    यह जान कर भी कि तुम, होगी मुंतज़र में

३   तुमने कहा था इक दिन , मैं हूँ वहाँ जहाँ तुम
    तब से हर महफ़िल में , तुम हो नज़र आती

४   मैं करता हूँ याद तुम्हे तुम भी तो करती होगी
    मैं मुस्काता हूँ बस यूँ, कि तुम मुस्काती होगी

५   रिस रहा है चश्मे से दरिया-ए-लहू
    अश्क तेरी याद में कब के फ़ना हो गये

६   गुफ्तगू करता रहा मुद्दतो से मैं तेरी
    दरमियाँ राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना

७   दिल मुझसे जुदा था जिंदगी हुई जुदा
    अश्क भी अब कर चले मुझको अलविदा

८   तब्बस्सुम थी कल तक मेरी मिल्कियत
    तब्बस्सुम ही मेरी अदू बन गई है
    अश्को से कल तक मेरी थी आदावट
    उन्ही से अब तो गुफ्तगू हो चली है

९   चंद लम्हो के सफ़र में गुज़री है इक जिंदगी
    अब तो रोशन करेगी यादो की उनकी रोशनी

१०  लबों से उनकी मय है छलकती
    ज़ुल्फो से खुशबू के रेले हैं उठते
    बहकते कदम हैं बिन पिए ही साकी
    कूंचे से उनकी जब हम गुज़रते


                   उमेश कुमार श्रीवास्तव



दर्दे-दिल--२

१   चंचल शोख़ निगाहों से ना तीर चलाओ ऐ जालिम
    दिल के टुकड़ों पर पग रख यूँ ना मुस्काओ ऐ जालिम

२   तकदीर में लिखा है कब तक, यूँ देखना मजबूरियाँ
     इक दिन तो आएगा , जब पास होंगी दूरियाँ

३   हर ठोकरों के साथ मजबूत कर अपने इरादे
     ये बता दे आज तू , गिर कर सम्हलाना कहते किसे

४   अब ज़रा रहने भी दो इन जर्द पत्तों को ही तुम
     शोख कलियों से तुम्हारा दामन क्या भरा नहीं

५   बरहम-ए-जुल्फ जर्द-ए-हुस्न,कयामत की कोई निशानी है ये
     मोहब्बत खुदा ने बनाई ही क्यूँ, क्या कोई कहेगा जवानी है ये

६   बा-वफ़ा न रहा अब नज़र मे तेरी
     वादा किया था आने का, कर के भुला दिया

७   जालिम हुआ जमाना दुश्मन हुई खुदाई
    तुम भी गर रूठी रही, तो समझो की मौत आई

८   दोजख मे जाए ये मेरी मसरूफ़ जिंदगी
    मुझको तो मेरे यार का बुलावा मिल गया

९   आज मुझे ये होश कहाँ कि ह्स लूँ रो लूँ या गा लूँ
     तनिक ठहर इधर तो देखो बरसों की मैं प्यास बुझा लूँ

१०   शुष्क इन लबों को ताज़गी दे दो
      अपने लबों से छू कर इन्हे जिंदगी दे दो

                         उमेश कुमार श्रीवास्तव

दर्दे-दिल

१ ढूँढने से मिलते नहीं साकी रफ़ीक
  मुक्कद्दर में हों तो खुद ही ढूढ़ लेते हैं

 २ तितलियाँ फिरने लगी सड़को पे जब से
   लगता की गुलशन बन गया है शहर सारा

३ चश्में से लुढ़कते ये अश्को के दो कतरे
   दिल की बात बे ज़ुबाँ कह देते करीने से

४ बद-इन्सानियत की राह भी कितनी है सुकून बख्स
   चलते हैं आँख मूंद लोग लगती नहीं ठोकर

५  इस बुतनशी की सरकशी तो देखिए जनाब
    सरेमहफ़िल किस कदर अंगड़ाइयां ले रही है

६  लब पे छाले आए , आए फिर फूट गये
    मेरे नाले उस तलक आज भी पहुँचे नहीं
 
७  इस इश्क की मीना में गम की मय तो डाल
    देखें ज़रा साकी कहते किसे बहकना

८  मेरे कदम दर कदम इक और भी कदम है
    पर मालूम कर सका ना किसके ये कदम हैं

९   हर आश मेरी प्यास-ए-दरस लिए है
     पर उनकी शख्सियत तो,है भूल जाने की

१०   आता नहीं इश्क का आलिफ भी इन्हे साकी
     ये हुस्न-ए-हाला हैं ज़रा दूर ही रहना

११   इस हुस्न की महफ़िल में हम आज हैं आए
     देखें ज़रा हुस्न-ए-मदिरा किसे कहते

१२   खो दिया है दिल मैने जानम तेरी राहों में
      चाहे तो ठुकरा देना चाहे गले लगा लेना

१३   इस कदर बेचैन ना हो ऐ मेरे मासूम दिल
      बिजलियाँ गिर गिर के खुद फ़ना हो जाएँगी
                                   

                                उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

आत्म मंथन

आत्म मंथन


तरंगे उठती हैं
ज्वार-भाटों सी कुछ-कुछ
कभी स्थिर नही रहने देती
जो जिन्दगी को

कभी अनुभव करता हूँ
स्वयं को
उच्चतम शिखर पर
जहाँ सभी कुछ
मनोहारी प्रतीत होता है
चक्षु शीतलता की अनुभूतियाँ करते हैं
कानो में निश्च्छल स्वर लहरी बज उठती है
औ सांसो में चंदन महक उठता है
मन तृप्त सा हो जाता है .

जग की मोहमाया से लिप्त
यह भौतिक जीवन
वास्तव में नश्वरता की
अनुभूति से भर देता है
मस्तिष्क को
लगता है मेरी मोक्ष की तलास
पूरी हो चुकी है

सभी मे मैं स्वयं को अनुभव करने लगता हूँ
औ समस्त जड़ चेतन
मुझी में समाहित से दिखाई देते हैं
यह सामंजस्य
स्वयं का स्वयं से ही
कितना अद्भुत होता है
क्यूँ की वहाँ 'मैं' कहाँ होता है
केवल औ केवल
एक पिंड होता है
जिससे अलग जड़ चेतन
किसी का कोई
अस्तित्व ही नहीं लगता
और मैं विलीन होने लगता हूँ
उस अनन्त अभेद्य
अक्षर, ब्रम्‍ह में

पर क्षण भर में ही
प्रकृति की शाश्वातता
चुभने सी लगती है
आत्मा फिर उसी आवरण से
ढकने सी लगती है

अब मैं भाटे पर होता हूँ
प्रकृति के नियम की छाया में
इस भौतिकता के अन्तह्तल में कहीं
खो जाता हूँ मैं
एक ऐसे तल में
जो अतल सा प्रतीत होता है
क्यूँ कि वहाँ टिक कहाँ पाता हूँ
निरन्तर
नीचे और नीचे
फिसलता पाता हूँ स्वयं को
फिर कैसे कहूँ
किसी तल की अनुभूति
होती है मुझे

कभी परिवार , कभी समाज ,
कभी देश कभी राष्ट्र
कभी संस्कृति औ सभ्यता जैसे
अनेक स्तर
तल की अनुभूतियाँ देते हैं
वास्तविकता से दूर
कभी धन कभी यौवन
कभी तन कभी मन
औ कभी जीवन की लालसाएँ
दुर्भिक्ष की भूख सी
घेर लेती हैं मुझे
इनका ही सहारा ले
उबरना चाहता हूँ,दो पल
पर डूबता ही जाता हूँ निरंतर
अतल के तल को
निश्चित करने

स्वयं को स्थिरता देने की चाह में
शायद खो देता हूँ
स्वयं को ही मैं
और खो जाता हूँ इन्ही के मध्य
भूल निर्लिप्तता की राह

सदा सर्वदा रहता आया
रथी मेरा
इन्ही दो अवस्थाओ के मध्य
नहीं पा सका समतल
अश्वो को लयबद्ध करता
झुझला पड़ता है सारथी
कभी कभी, औ
छोड़ देता है लगाम हाथो से
कुढता हुआ सा रथी पर
और उच्छसृंखल हो
दौड़ पड़ते हैं अश्व
अलग अलग दिशाओं में खींचते
रथ को
प्रेरित करती लगाम
बिलबिला उठता है रथी
नित निरंतर ठोकरे खा - खा उछलता
इस असमतल भूमि पर
यही होती पराकाष्ठा अनुभूति की
भौतिक जगत की मेरी

                        उमेश कुमार श्रीवास्तव

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मेरे अपने आदर्श

जिस व्यक्ति नें अंतःकरण की आवाज़ सुन स्वयं अवरोध का वरण किया है,वह स्वमेव निर्मल हो जाता है ,किसी पर बाह्य अवरोध लगा सुधारने का प्रयास क्षणिक सफलता तो पा सकता है शुद्ध व स्थाई निर्मलता नहीं......उमेश



जब हम क्रोधावस्था में होते है तो लोगो से हमारे दिल की दूरियाँ बहोत बढ़ जाती हैं यही कारण है कि क्रोधित व्यक्ति ज़ोर ज़ोर से बोलता है. किंतु जब हम शांत अवस्था में होते हैं तब दिल लोगो से सामान्य दूरी पर रहता है अतः उसे दूसरे दिल तक अपने विचार संप्रेषण हेतु ज़ोर से बोलने की आवश्यकता नही पड़ती वह सामान्य आवाज़ में ही दूसरे दिल तक अपनी संवेदनाओं का संप्रेषण कर सकता है.इन सब से विपरीतजब दिलो में प्रेम भरा हो तो दिलो की नज़दीकियाँ इतना अधिक होती है की उन्हे शब्द स्वरो की भी आवश्यकतानहीं रह जाती वे अपनी बातें कुछ बोले बिना भी एक दूसरे तक पहुचाने में सफल रहते है. प्रेम मे शरीर का हर अंग संवाद संप्रेषण का कार्य करता है......उमेश



सभी अपने अपने कर्मों के फल भोग रहे हैं इस भोग लोक में, परमात्मा कर्म बंधन में गूँथ कर जीव को इस लोक मेंसृष्टि के आरम्भ मे. छोड़ दिए है जीव जैसे कर्म करेगा वैसा फल उसे मिलेगा जिसे इस जीवन में उसे भोगना है अच्छे कर्म का अच्छा फल बुरे कर्म का बुरा फल . यदि कुछ कर्मों के, चाहे वो अच्छे हो या बुरे फल भोगने से इस जीवन में रह जाते हैं तो उन्हे भोगने हेतु पुनः जन्म कर्मों के फल के अनुरूप जीव को लेना पड़ता है, इसमे परमात्मा का किसी प्रकार का कोई अवरोध या अनुकम्पा नही होती ईश्वर आराधना पूजा पाठ या जितनी भी विधियाँ विभिन्न धर्मो में ईस्वारी कृपा पाने की प्रचलित हैं उनके मध्यम से हमें केवल सच्चा मार्ग, जीवन जीने का व सत कर्म करने की ईश्वरीय प्रेरणा के माध्यम से प्राप्त होती है किसी प्रकार की भौतिक वस्तु धन दौलत ऐस्वर्य इनके मध्यम से ना कभी मिला है ना कभी मिलेगा कर्म बंधन को ईश्वर भी सृष्टि आरंभ के उपरांत से ना तो तोड़ सका है ना ही तोड़ेगा अन्यथा वह सृष्टि के सम्मस्त प्राणिओ का सम दृष्टि रखने वाला पिता कैसे कहलाएगा वह धृतराष्ट्र न बन जाएगा.......उमेश


यदि पहली ही मुलाकात में कोई आप को आवश्यकता से अधिक महत्व दे तो , या तो इसमें उसका कोई निहित स्वार्थ है , अथवा वह आपको मूर्ख बनाने का प्रयत्न कर रहा है .........उमेश


मेरे जेहन में जीवन संगनी की जो तस्वीर है वह औरत की वफ़ा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिल्कुल मिटा कर पति के आत्मा का एक अंश बन जाती है, देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है, आप कहेंगे मर्द अपने को क्यो नही मिटाता ?औरत से ही क्यों इसकी आशा करता है ? मर्द में वह सामर्थ ही नही है, वह अपने को मिटाएगा तो शून्य हो जाएगा, वह किसी खोह में जा बैठेगा और अह्न्कार मे यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला है सीधे ईश्वर में लीन होने की कल्पना करेगा, स्त्री पृथ्वी की तरह धैर्यवान है शांति - संपन्न है सहिष्णु है , पुरुष में नारी के गुण आ जाते है तो वह महात्मा बन जाता है , नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है , पुरुष उसी स्त्री की ओर आकर्षित होता है जो सर्वान्स में स्त्री हो , संसार में जो कुछ सुंदर है उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ , मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि उसे मार ही डालूं तो प्रतिहिंशा का भाव उसमें न आवे , अगर मैं उसकी आँखो के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे, ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पन कर दूँगा....प्रेमचंद...गोदान.....
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