शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

अर्ज़ है..........



हमें तो शौक़ था इंतजारी का
पर इतना भी नहीं जितना तूने करा दिया
दिख भी जाओ, मेरे चाँद दूज के
नहीं तो कहोगे, तुमने ही दिया बुझा दिया...........उमेश.


खुशियो के गाळीचे पे गम का इक क़तरा
नही बना पायेगा खारा समन्दर..................उमेश...

मेरे तो अपने ही बहोत है गम देने को
मेहनत ना करो इतना तुम तो बेगाने ठहरे.........उमेश...

गुफ्तगू करता रहा मुद्द्तो से में तेरी
दरम्यान राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना..........उमेश...

ग़ज़ल




ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी
कि हर शख्स मे तू है नज़र आती

प्यार से हर बुत को मैं चूमता फिरता
कि हर बुत तेरी अक्से-रु है नज़र आती

राहे इश्क पर कदम मेरे डगमगाते कुछ यूं
कि कभी पास कभी दूर तू है नज़र आती

तीर-ए-नज़र अब तो रोक लो साकी
दिल की हालत अब विस्मिल है नज़र आती

नाजो अदा तेरी देख लगता कुछ यू
हर फ़न में तू उस्ताद है नज़र आती

.....उमेशश्रीवास्तवा....दिनांक 24.11.1989..

ग़ज़ल




चुपके चुपके यूँ तेरा ख्यालों में आना ठीक नहीं
अंजुम में आओ तो अच्छा ख्वाबों में आना ठीक नहीं

मासूम जवानी सफ्फाक बदन मरमर मे तरासा है तेरा
यूँ हाथ उठा अंगड़ाई ले दीवाना बनाना ठीक नहीं

शोख तब्बस्सुम चाह लिए गुमसुम अधर की पंखुड़िया
बाधित न करो यूँ यौवन को अवरोध लगाना ठीक नहीं

कैसे न कहूँ बिस्मिल हूँ मैं तेरी हर कातिल चितवन से
उठती नज़र से तीर चला यूँ नज़रें झुकना ठीक नहीं

मैं तो प्यासा था प्यासा हूँ बैठा हूँ मय की आश लिए
मय की ही प्रतिमूरत हो जब . आ छिप जाना ठीक नहीं

...उमेश श्रीवास्तव..19.11.1994

अर्ज़ है





करते मुसिर वो भूल जाने की मुझसे
दिल कम्बख़्त ,धड़कन की जगह नाम लिए जाता है



पंज़ीराई है मेरे अंजुमन में ये गम
तरन्नुम-ए-शहनाई ना राश आई मुझे



दर्दे दिल टीशा औ निकली फफोलों से आहें
जब कभी हम उन्हे दिल से भूलना चाहे



लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना



दिल दर्द से जब जब टीशता है यारों
उनकी यादों का ही कोई लम्हा होता है



अंदर से उठ कर धुआँ गुजरता जब दिल के पास से
रौशनाई यादें बन कागज पे चल पड़ती हैं



है साँस उखड़ी मेरी यादों में गोते लिए
भूलना कहते किसे कोई बतला दे मुझे



फकत याद में होता रहा खाना खराब
वो भी कितने मगरूर हैं देते नही खत का जबाब



मेरे दिल पे कदम तेरे शोर कुछ यूँ कर रहे
ज्यूँ पतझड़े बयार में गुज़रा कोई पेड़ों तले

१०

जाती है फिसल नज़रें मेरी पड़ कर तेरे रुख्सार पर
हैं चाहते लब मेरे बोसा तेरे रुख्सार पर

                           उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

बरखा उपरान्त का प्रकृति सौंदर्य



बरखा उपरान्त का प्रकृति सौंदर्य


कुच प्रकृति मातृ का पान किए
कल का निर्जन चैतन्य हुआ
ज्यूँ प्रसव व्यथा सह आज पुनः
इक नव मधुवन का जन्म हुआ

प्रात वात सुचि सुगंध मंद
खग कलरव के संग संग
शान्त प्रकृति है इठलाती
अपने वैभव के अंग अंग

शांत आपगा निर्झर करतल
करती कलकल पर निश्छल
ज्यूँ दो अधरों के बीच सुधा
या हों विरहन के अश्रु अविरल

पुष्पित डाली यूँ झूम रही
संग सखी पवन के घूम रही
कली मुकुल बन संग संग
उसके अधरों को चूम रही

जो वन जीवन में मस्त हुआ
या प्रकृति प्रेम अभ्यस्त हुआ
वे सब प्राणी हैं इठलाते
ज्यूँ माँ आँचल में , हों बल खाते 

डालो के गालों का ले अवलंब
कुछ मुकुल पुष्प बन झूम रहे
अनुरक्ता के अधरों को
भ्रमर मीत  बन चूम रहे

           उमेश कुमार श्रीवास्तव

कुंठा



हर चाह जब
तृष्णा में 
परिवर्तित हो जाती है
 और कदम
स्वमेव
मृगमारीचिकाओं की ओर
उठने लगते हैं
तभी जन्म होता है
इक नई कुंठा का

       उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल : एक मुद्दत हुई

ग़ज़ल : एक मुद्दत हुई

एक मुद्दत हुई , साथ देखे उन्हे
अब तो यादों से भी कतरा, निकल जाते हैं

जिस दर पे थी खिलती  तब्बस्सुम सदा
अब सरे शाम परदा गिरा जाते हैं

हम समझते इसे भी इश्क की ही अदा
पर , लोग हमे ही बेहया बना जाते हैं

इस कदर इश्क का जुनू है हम पर चढ़ा
कि , कूचें में फिर भी अश्क बहा आते हैं

उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन
जो हाथ गैरों का  थामे चले जाते हैं

हो मिलता शुकून उनको जलन से हमारी
सोच कूंचे में उनकी हॅम चले आते हैं

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरे शेर "कल के"




          १

है रकीबों की दुनिया सम्हल के ही चलना
जाने कहाँ पर मुक़द्दर भी रूठ जाए.

           २

समंदर सी लहरें उठी हैं दिल में
मजमून तेरे खत का, पढ़ते ही पढ़ते

            ३

हर तार मेरे दिल का बिछुडा हुआ सुरों से
सदियाँ गुजर रही सरगम के बिना

             ४

था दिल में मेरे भी इक बुतनसी का अक्स
पर सरकसी नें उसकी मिटा दिया है उसको

              ५

मैं पुकारता हूँ दिल से पर ज़ुबाँ नहीं है चलती
उसकी तंगदिली नें ताला यूँ लगाया

               ६

अश्कों की मेरे ना कोई अहमियत है
आहों नें उसकी तोहमत यूँ लगाई

               ७

किस मुकाम पे लगे , उठ किस मुकाम से
तल्ख़ जिंदगी नें , क्या क्या नहीं दिखाया

                ८

दुनिया की नज़र से छिपते छिपाते
चले आए हैं हम कहाँ से कहाँ तक
मगर राजे दिल अब छिपेगा ना दिल में
नज़र ही नज़र से आएगा ज़ुबाँ तक


                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

तुम कौन ?



हैं कौन से वे कदम
जो बढ़ रहे , नित निरन्तर
इस अंधमय
गुह्य प्रदेश में , मेरे
जिसकी महक
मेहदी रची सी
छा रही
निर्जन पड़े से
शून्य हिय पर 
मेरे

हैं कौन कर द्वय
मेहदी रचे
उठती खनक
कलाईयों से
धानी चूड़ियों की
जिनसे
लुभाती मुझे

ये स्वप्निल नयन
नील हंस युगल सम
टकटकी बाँधे
निहारते जो मुझे
अपने लगें
पर, अजनबी से
हैं ये किसके

धड़कनें उठती निरंतर
शब्द दस्तक दे रहे
दिल पर मेरे जो
है ये किसकी
मुझे छू रही जो
बहकती सी

किस रूपसी का
सरसराता सा वसन
मुझको लपेटे हुए सा
अहसास करा जाता है जो 
बदन को,
ज्यूँ आलिंगन में भरे
हो कोई मुझको
प्यार करता

अरूणोदयी आभा की
शीतलता लिए
ये अधर किसके
जो मुझको
कर रहे बेकल
छू लेने को, उन्हे
अपने अधर से
पा लेने को
चन्द अमी कण

रात्रि की मध्यिका से
घने कुन्तलों में
दमकता
चाँद सा मुखड़ा
अहसास निरंतर करा रहा
हिय में बसी प्रतिमा
उसी की
जो निकट हो कर
मेरे इतने
समानान्तर दूरी लिए
क्षितिज सी
छू न पाता हूँ
अथक अपने प्रयत्न से
कैसे ना मानूं इसे
मैं स्वप्न सा

है स्वप्न सारा 
यह जान कर भी
टूटने के दर्द को समेटे
स्वयं में,
हैं प्रतीक्षा में
नयन-हिय द्वय
द्वार खोले खड़े
उसी की

           उमेश कुमार श्रीवास्तव

नीर



नीर 



नीर
इक लकीर है
अस्तित्व की
इस जगत में
जीवन की

नीर
इक प्रतिबिम्ब है
हृदय का
हर स्पंदन
है समाहित
उसमें

नीर
इक रश्मि है
प्रमोद की
दमकती है
नयनो में
मोतियो सम

नीर
इक पथ है
समाधि की
सज़ा
दया , करुणा, प्रेम से
बिठाती है पास
उसके

नीर
इक सृष्टि है
है समेटे
जड़ चेतन औ
अचेतन
ब्रम्‍ह को भी

नीर
इक कण
ओस का
गुमनाम सा उदय हो
गुमनाम रहना चाहता
देख अदृश्य होता, उजाला

नीर
इक जलद है
स्वच्छंद घुमक्कड़
दूसरों पर,
पर जीवन
कर देता तर्पण

नीर
इक समुद्र
विशाल वक्ष
शान्त,गंभीर
निश्च्छलता का
ओढ़े आवरण

नीर
बस नीर है
कुछ चंद जल कण
लुढ़क जाते अधर पर
औ कभी
पद रज तल

          उमेश कुमार श्रीवास्तव

जवानी के दर्द

         
                १
अब तो हूँ मैं लाश जिधर भी ले चलो
रंज गम औ खुशी को खुदा हाफ़िज

                २

कितने अरमां ले निकला था सफ़र में
काफिला बढ़ गया खाक के चंद गुबार दे कर

                ३

सिसकियाँ निकली न अश्क ही चश्मों से बहे
इक रेत का घरोंदा ढहा औ हम तन्हा रह गये

                ४

काश इक ख्वाहिश तो हो जाती पूरी
क्या आया ही हूँ जीने जिंदगी अधूरी

                ५

इतनी दफ़ा टूटा जुड़ा हूँ जिंदगी में
कि , बस उसी का नाम अब है जिंदगी

                ६

ढूँढने से लोग कहते खुदा मिलता
मुझको अब तक नाखुदा तक मिला नहीं

                ७

इतने अरमाँ क्यूँ पाल रखे थे तूने
कि मौत पर इनकी दो कतरे अश्क बहा न सके

                ८

खुशफ़हमियों नें मुझको है खाक में मिलाया
बदगुमानियाँ ही देखें कुछ राह ही दिखाएँ

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

वेदना



इक दर्द की लहर
सर से पाँव तलक
दौड़ सी जाती है
जब कभी
फागुनी हवा संग , महकती
तुम्हारी याद , चुपके से
समा जाती है
धड़कनो मे मेरे

सरसो के ताजे खिले फूल कहाँ
और कहाँ जर्द होता ये बदन
तुम्हारी यादो में
चारो दिशाओ में फैले ये
पतझड़ को देख
तरस उठता है मन
गुज़री बहारो के लिए

जब दिल जलता है तो
शोलो का उठना लाजमी है
क्या लगता नहीं तुम्हे
देख टेशू , कि
कहीं किसी का दिल
अंगारा हो रहा
तुम्हारी , सिर्फ़ तुम्हारी ही
यादो में

शोलो की अंतिम परिणति
राख है यह जान कर भी
अब तलक दूर कहीं दूर
अनजान किनारो पर तुम
मंद मंद अनिल झोको में
लहराती कुन्तल
अपनी दुनिया में
मुझसे बेख़बर मस्त हो
आलिंगन में बाँधे अपना वर्तमान

जब तुम्हे नहीं आना जीवन में
क्यूँ करती हो खेल
स्वप्नो में आ निरंतर
क्यूँ दिखाती हो मुखड़ा अपना
प्रेरणा का प्रतीक
शांत शौम्य मनोहारी

क्यूँ बधाती हो ढाढ़सें
क्या इसी लिए , कि
यादो में ही जीता रहूं
बस यूँ अकेला एकाकी बन
दर्द के खारे नीर को
जिंदगी भर
पीता रहूं

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

चंद शेर


                            1
तेरी इसतिरछी चितवन से घायल हुआ हूँ जाता 
कैसे कह दूं इन्हे हटा लो बिन देखे रहा न जाता


                         2

सोचा था दूर होकर मैं भी करूँगा याद
पर क्या करूँ की तुम तो दिल मे बसे हो मेरे
                        
                        3

 होता तो है दर्द उन्हे भी जो दर्दो में ही पलते है 
बेदर्द बन किसी को यूँ दर्द दिया ना करो  

              4
मैने हर राह को मखमली सा ही पाया है
 तेरी ही चाहतो ने हर खार को हटाया है

                     5

कितनी हो खूबसूरत जानता मैं नहीं
रह सकूँगा तेरे बिन मानता मैं नही
                        
                                  उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

कड़वा सत्य


कड़वा सत्य


गिरी पाती एक
पतझड़ में टूट कर
ना आह ही निकली
ना रोया ही फूट कर
कश्मकश तो थी दिल में
पर वो भी क्या करे
प्रकृति के नियम से
वो क्यूँ मुह मोड़ ले
वर्षा में भीगा कोमल तन
शरद में था अकड़ा
हेमंत में ठिठुर ठिठुर कर
था साख में ही जकड़ा
शिशिर में सिसक रहा पड़ा
पैरों के तले
प्रकृति के नियम से वो क्यूँ कर लड़े
आया है जो जग में
है नश्वर बन के आया
जाएगा सांझ बन कर
सुबह के तले
जाएगा सांझ बन कर
सुबह के तले

 उमेश कुमार श्रीवास्तव

निद्रा-देवी


निद्रा-देवी



वह आई चुपके-चुपके
औ आँखो में उतर गई
मैं सुधबुध खो
रहा देखता उसे
जो किसी महक की तरह
ह्रदय में विचर गई

मैं खोया था यादो में
और किसी की
विरह व्यथा थी मेरे दिल में
और किसी की
पर वह थी दूर बहोत ही
मुझसे साकी
इसने आ आलिंगन में, भरा मुझे
मस्ती में थी झुलसी
 मदमस्त करा मुझे
मैं खोया खोया रहा देखता उसे
जो , धीरे धीरे ले आगोश में
वहीं की वहीं पसर गई

वह आई चुपके-चुपके
औ आँखो में उतर गई
मैं सुधबुध खो
रहा देखता उसे
जो किसी महक की तरह
ह्रदय में विचर गई

          उमेश कुमार श्रीवास्तव

नारीत्व



एक दिवस
इक नव यौवना मजदूरन
अपने कर्म धर्म से
निवृत हो कर
प्रस्थान कर रही थी घर को
कुछ बादल थे आकाश मार्ग पर
अपने साम्राज्य को बढ़ा रहे
ज्यूँ उस नव यौवना पर
मुग्ध हो आज
खिलों की वर्षा करना चाह रहे
उन्हे देख वह नव यौवना
दौड़ पड़ी
सोच अवस्था अपने घर की
उसके उन्मुक्त वक्ष भी
दोलित हो करने लगे वज्र प्रहार
पर उसके मुख मंडल पर
छाई मुस्कानों में
 थी ज्यूँ
इक अनार कतार
इतने में कुछ दुष्ट मानवों का झुण्ड
टूट पड़ा सोच उसे
शावक बच्चा
पर हाय यह थी उनकी भूल
वह थी प्रचंड शक्ति
दुर्गा की जैसे शूल
उसमें भी थी भारत की
नारी की लाज
पर झपट पड़ी छोड़ लाज आज
वह दुश्टों पर
बन क्रुध बाज
और बता दिया क्षण में
क्या होती नारी की लाज
क्षण में ही वे सब
कांप रहे थे
अपनी करनी पर सब
कर पश्चाताप रहे थे
उस यौवना के चेहरे पर
छाई थी इक खूनी लाली
या लग रही थी गुस्से में
 वह , साक्षात माँ काली

         उमेश कुमार श्रीवास्तव

चंद दिल के नाले


              
1

चुपके से तुमने भर दी गागर ऐ जिन्दगी

थोड़ा खाली जो रखती गागर , जान तो पाता क्या पाया है 
               
2

दिनभर की थकान ले कर पहुचा जो घर पे मैं

तेरी इक तब्बस्सुम ने हर दर्द हर लिया
              
 3

मैने हर राह को मखमली सा ही पाया है

तेरी ही चाहतो ने हर खार को हटाया है
             
 4


मेरे कदम दर कदम इक और भी कदम है 

जो कह रहे कि साथी अकेला नही तू राह में

राह में तू रोड़े अब लाएगी क्या ऐ किश्मत

मेरा प्यार चल रहा जब मददगार बन कर 

              
5

सोचा था दूर होकर मैं भी  करूँगा याद

पर क्या करूँ की तुम तो दिल मे बसे हो मेरे

                      
                                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

मैं हूँ वह क्षण



मैं हूँ वह क्षण,
जो गुजर चुका है,
जाने कब का
मैं हूँ वह कण,
अस्तित्व मिट गया है जिसका
मेरा शरीर अब मेरा क्या कहलाएगा
जब अर्पण कर दिया उसे,
जाने कब का
ये दिल भी उसका, मन भी उसका
मेरा अब कहलाए क्यूँ
जब अनुभव करते, सब मिल कर
प्रतिबिम्ब उसी का
ये स्पंदन मेरे रहे नहीं
ये चिंतन मेरा रहा नहीं
इस अगम अन्धमय हिय प्रदेश में
वाश हुआ है, जब से उसका
मैं हूँ वह क्षण,
जो गुजर चुका है,
जाने कब का
मैं हूँ वह कण,
अस्तित्व मिट गया है जिसका
       उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 20 नवंबर 2013

इतवार



इतवार,यानी
स्वर्ग का द्वार
आज के मानव का
आदि व अंतिम प्यार
है इतवार का इंतजार
दिल बेकरार
कब आएगा तू
ऐ मेरे यार
ऐ बेरहम
कुछ कर रहम
ना और काट
दुःख दर्द बाँट
ले गति मेरी
तू दौड़ कर
हर वीक में
आ सात बार

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

उठो मौन व्रत तोडो




कितनी बार कहा था तुमसे
ना तुम चुप यूँ रहना
आज साल रही बेचैनी
जब चाहो कुछ कहना

भीड़ तंत्र है लोकतंत्र ये
चाहे हल्ला गुल्ला
जो चीखे जितने ही ज़ोर से
उसके सब दुमछल्ला

दो कौड़ी का त्याग नहीं पर
कहलाते सरताज सभी
सीना ताने चले अकड़ कर
करते सब पर राज वही

खून ख़राबा लूटपाट सब
काली काली माया
खद्दर कोट कमीज़ के नीचे
है सबने इन्हे छिपाया

यह दल है या वह दल है
सब कीचड़ के ही दलदल
पर सबने कितने जतन से देखो
सब को है भरमाया

घिन आती है सोच सोच कर
इन सब की वो फितरत
जनहित का झूठा झाँसा दे
साध रहे सब स्वारथ

देशभक्त औ सेवक जन वे
जो सचमुच के हैं पंडित (बुद्धिजीवी)
मौन साध कर देख रहे सब
होती , वर्जनाएँ सब खंडित

कब जागेंगे तंद्राओं से
समझ नही कुछ आता
एक एक ग्यारह भी होते
यह उन्हे क्यूँ नहीं भाता

मौन त्याग कर अब तो उठ लो
कीचड़ से तुम भय त्यागो
दलदल बन रहा , देश ये सारा
अब तो अपनी उष्मा दो

सोख लो सारी नमी मृदा से
जो दलदल पैदा करती
शौम्य धरा को वापस लाओ
जो सतयुग की हो धरती

राम राज्य को लाने को
इक राम नही है काफ़ी
वानर सेना के सेनानी बन
वह काम करो , जो है बाकी

चुन चुन कर सब चोर उचक्के
उनकी माया गान करो
जन जन तक फैले कु-ख्याति
ऐसा विशद बखान करो

टूट जाएगा भ्रमजाल सभी का
जब सच सम्मुख आएगा
प्रजातंत्र की प्रजा हेतु
यह देश तभी बच पाएगा

इसलिए आज फिर कहता हूँ
उठो मौन व्रत तोडो
इक इक को संग ले ले कर
अपनी कड़ियाँ जोड़ो

   उमेश कुमार श्रीवास्तव (२०.११.२०१३)




रविवार, 17 नवंबर 2013

चन्द शेर व मुक्तक


               १
निगाहों के खंजर न यूँ चलाओ हुजूर
थोड़ी सी पलकें झुका लो हुजूर
                २
भीग जाती हैं जब कभी पलकें मेरी
खिलखिलाने की कोशिसें करता हूँ मैं
आँसुओ के शैलाब भी पी जाता हूँ
क़ि कहीं कोई दर्दे दिल पहचान न ले
                ३
हर बात पर कभी कभी एतबार नहीं होता
नजरों का हर खंजर दिल के पार नही होता
दिल में यदि मोहब्बत है तो जुदाई है ज़रूरी
क्यूँ कि जहाँ तड़प न हो वहाँ प्यार नहीं होता
                  ४
कोई देता किसी को सहारा नही
मिलती कोई लहर दुबारा नहीं
सागर के होते दो किनारे मगर
प्रेम सागर में होता किनारा नहीं
                 ५
प्याले से पी के मय , लोग कहलाते शराबी
नज़रों से पीने वाला मैं, क्यूँ ? शराबी तो नहीं

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव 

ग़ज़ल



एक मुद्दत हुई , साथ देखे उन्हे
अब तो यादों से भी कतरा, निकल जाते हैं

जिस दर पे थी खिलती  तब्बस्सुम सदा
अब सरे शाम परदा गिरा जाते हैं

हम समझते इसे भी इश्क की ही अदा
पर , लोग हमे ही बेहया बना जाते हैं

इस कदर इश्क का जुनू है हम पर चढ़ा
कि , कूचें में फिर भी अश्क बहा आते हैं

उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन
जो हाथ गैरों का  थामे चले जाते हैं

हो मिलता शुकून उनको जलन से हमारी
सोच कूंचे में उनकी हॅम चले आते हैं

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव


काश तुम्हारे पहलू में मेरा ही दिल होता
समझ तो सकते तन्हाई में जीना कितना मुश्किल होता

तुमने तो अंगड़ाई ले कर खुले छोड़ दिए गेसू
इन घनी सावनी रातों से बचना कितना मुश्किल होता

तुम इतने बेफ़िक्र हुए बाँध के पग में ये घुंघरू
दिल की अब धड़कन को समझाना कितना मुश्किल होता

अदा भरी इन आहों को अब रोक भी लो ऐ 'साकी'
पहले जीना ही मुश्किल था अब मारना भी मुश्किल होता

                      उमेश कुमार श्रीवास्तव
                 दिनांक:२३.०७.१९८९

ग़ज़ल जिगर का लहू है कागज पे यारो

ग़ज़ल  
जिगर का लहू है कागज पे यारो
ग़ज़ल कह न इसको फ़ना कीजिए

अश्के नमी है हर मोड़ पर
फिसलन से बच कर चला कीजिए

कसक-ए-मोहब्बत दिल में बसी है
दर पर न इसके हंसा कीजिए

जख़्मो से खूं तो अब भी है रिसता
हैं मरहम ये आँसू न गवाँ दीजिए

मैं तो हूँ, खाक-ए-चमन अब तो यारो
हमसे न यूँ अब मिला कीजिए

जिगर का लहू है कागज पे यारो
ग़ज़ल कह न इसको फ़ना कीजिए

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

सरिता


सरिता



धरती का सीना तोड़ फोड़
करती कल कल का मधुर शोर
निकल आती इक सरिता धार
नितांत क्लांत और कमजोर ၊

फिर वह नन्ही सी बाला
पग रखती मंज़िल की ओर
पग पग नई उमँगो के संग
लेती जाती नई हिलोर  ၊ 

आगे आई विपदाओं को
अवरोध बनी बाधाओं को
काट छांट कर आगे बढ़ती
न छूट जाए समय की डोर ၊

पा प्रकृति का रूप श्रृंगार
ममत्व भरा प्रकृति का प्यार
उत्साह उमँगो का संगम हो
दौड़ पड़ी मंज़िल की ओर ၊

जब तक राह रही समतल
तब तक शान्त चंचल निश्चल
जब राह मिली अवरोधित
दिखला देती यौवन का ज़ोर ၊

अनजाने पथ पर चल बढ़ती
अनजानी मंज़िल की ओर
पर जान रही वह, यह सत्य
जाता श्रम पथ मंज़िल की ओर ၊

जब पा जाती मंज़िल का द्वार
वह पा जाती खुशी अपार
सागर के सीने से लग कर
हो जाती भाव विभोर  ၊

सागर सा पी पा कर भी
करती ना अहंकार कभी
सागर के बच्चो को फिर
देने लगती अपनत्व प्यार ၊

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

वह गाँधी की "पगडंडी "


वह गाँधी की "पगडंडी "



एक पगडंडी
उस गाँव से भी गुजरती थी
इस देश में
जहाँ अमन था
अहिंसा थी
कुल मिला कर चैन था
और इक स्वप्न था
राम-राज्य का
पर हमने
पहला पग
इस पगडंडी के विपरीत ही
उठाया था
और उचटती निगाह से
जिसमें तिरस्कार का
घोल था
उस पगडंडी को
निहारा था
पर , पगडंडी नें
एक बालक सी
मधुर मुस्कान बिखेर
हमें आशीष दे
शुभ-यात्रा कहा था

आज वह पहला पग
कितना सही था
समझ आ रहा है
हर राही
जब उस पगडंडी की तलास में
दर दर की ठोकरें खा रहा है
पर इस भीड़ में
कंकरीट के जंगलो की
जब उसे ढूँढ नहीं पा रहा है
क्या करे वह ,
इसी भटकन में
और भी भटकता चला जा रहा है
भटकता चला जा रहा है

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 16 नवंबर 2013

प्रथम पक्ष वर्षा का




कितनी अनुपम लगती प्रकृति
धुली धुली सी उज्ज्वल
चमक उठा है जग कण कण
पा कर पावन बरखा जल

झूम झूम कर इठलाती
कुंज पौध औ वृक्ष लताएँ
सुमन अधर भी देखो
प्रफुलित हो कर मुस्काएँ

शुष्क धरा के विदीर्ण हृदय पर
देखो हरियाली छाई
ज्यूँ विरहन नें पी स्वागत में
अपनी चुनरी लहराई

घनघोर घटायें घटाटोप
घूमड़ घूमड़ कर आती हैं
अपनी शीतल बूँदो से मोती
कितने आज लुटाती हैं

हैं साज़ सुनाई पड़ते कितने
औ राग सावनी सुर के
बरखा की बूंदे भी गिरती
आज सरगमी धुन पे

प्रकृति जगत का हर इक प्राणी
आनंद मग्न हो झूम रहा
पर एक हृदय ऐसा भी देखो
जो विरह अग्नि को चूम रहा

पी के वियोग में प्रेयसी हिय
मचल मचल हो मूढ़ रहा
पपिहा हो कर ज्यूँ विह्य्वल
पी पी कह पी ढूढ़ रहा

शीतल करती बरखा सब को
इक हृदय इधर पर जलता है
उधर बुझ रही धरा तृष्णा
इक आशदीप इत बुझता है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरी सम्बल " तुम "




क्यूँ आज प्रिये हो रही उदास
बिखरे क्यूँ हैं ये गेसू
चल रही आज क्यूँ साँस उच्छास
क्यूँ आज  प्रिये हो रही उदास

यह तो जीवन है मृत्यु नहीं
इसमें सब सहना पड़ता है
सुख दुख दो पहलू हैं
हर में हँस रहना पड़ता है

जब तपती है यह धारणी
सूरज गरमाता जाता है
तब ही बरखा की ले फुहार
सावन मस्ताना आता है

फिर तुम क्यो हो रही अधीर
धीरज क्यो खोती जाती हो
पतझड़ के पीले पत्तो सम
तुम क्यूँ कुम्हलाई जाती हो

गर आया है यह पतझड़
इस जीवन की बगिया में तो
इक दिन यही ले आएगा
बसंत के रंगीले फूलो को

देखो इस सरिता धारा को
जो नित आगे कदम बढ़ाती है
क्या देख कभी वह बाधाएँ
पथ छोड़ वहीं रुक  जाती है

देखो बगिया के माली को
जो सदा बाग में ख़टता है
क्या पतझड़ का आगमन देख
प्यार कहीं भी घटता है

है वही सामर्थ पौरुष
जो नित ज्वारो में खेले हैं
है उनका जीवन ही जीवन
जो नित शोलो को झेले हैं

गरमी से तपती धरती पर
जब सावन की बूंदे गिरती हैं
मानव को करती शान्त विह्वल
ताप धरा का हरती हैं

पर यह ही मानव एक दिवस
इनसे भी उकता जाता है
शीत दिवस में ठिठुर ठिठुर
फिर गर्मी की आश लगाता है

यह प्रकृत नियम हैं अटल प्रिये
रोके न रुके हैं कभी कहीं
जो आया है वह जाएगा भी
क्यूँ दिखलाना धीरज की कमी

नारी ही सदा सामर्थ बनी
नारी ही सदा संम्बल है बनी
नारी में हीडूबा है जग ये
नारी ही सदा पुरुषार्थ बनी

नारी के बिना ये नर जीवन
नरको से ज़्यादा बदतर है
नारी की इक हल्की सी प्रेरणा
दुःख में सुख से बेहतर है

बस यही आश मैं लगा रहा
तुमसे भी आज ये प्राण प्रिये
इस बिपति की बेला में भी तुम
साथ धैर्य का रखो प्रिये

अंधकार साम्राज्ञी निशा
बहुत ही ज़ोर लगाती है
पर अरुनोदय के प्रथम चरण से
दूर भागती जाती है

वैसे ही समझो इसे प्रिये
ये क्षणिक मात्र को आई है
क्या कहीं आसुर प्रवृति
इस जग में टिक पाई है

मैं मान रहा हूँ सांध्य इसे
अभी रात अंधेरी आएगी
इससे भी कष्टकर कष्ट मिलेंगे
धारणी भी नीर बहाएगी

पर पुरुषार्थ रहा जिंदा
औ प्रिये प्रेरणा मिली तुमसे
तो वह दिन भी दूर नहीं जब
सुरभि सुमन , पुष्पित होगे इनसे

        उमेश कुमार श्रीवास्तव (१४.१०.१९८७)

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

मंज़िल की राह




अय पथिक !
क्या सोच रहा ?
बन जड़ यूँ अविचल !
पग बाँध रहे क्या आज ?
आज क्यूँ
होता विचलित पल-पल ?

विचलित हो उद्देश्य त्यागना
पुरुषार्थ नहीं कहलाता
इक नन्ही चींटी के आगे
गज नतमस्तक हो जाता

यह तो जीवन की राहें हैं
ना सुमनो की सैय्या है
इनकी कोमलता की आश
आश की इक मृगतृष्णा है

मिल भी जाएँ चंद पलो की
इनसे गर कोमलता
उद्देश्य त्यागना भाव विभोर हो
होगी तेरी असफलता

चन्चलता की आश न कर
रूप दानवी हैं ये
ये लहरें , नहीं सरिता की
ज्वार समंदर का है

अगर बना ले निज पग तरणी
पतवार बना ले बाहें
है जग में अवरोध कौन सा
रोक लें तेरी राहें

भ्रमित हुआ इनसे अगर तू
ना ठौर कहीं मिलेगी
चट्टानो सा  दृढ़ तू बन जा
ये कदम तेरे चूमेंगी

आज कर रही परिहास तेरा जो
ये मुस्काती कलियाँ
कल तुझसे अभिसार करेंगी
बन जीवन की लड़िया

काम क्रोध पर विजय प्राप्त कर
दृढ़ अनुसासन पा ले
धैर्य धार पग अवधार तू
अपनी मंज़िल पा ले

           उमेश कुमार श्रीवास्तव (०४.०८.१९८९)

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

वैवाहिक जीवन के तृतीय बासंती सुरभित पथ पर अपनी वामा को अर्पित की गई चंद पंक्तियाँ ( ०४ फ़रवरी १९९७ )


वैवाहिक जीवन के तृतीय बासंती सुरभित पथ पर अपनी वामा को अर्पित की गई चंद पंक्तियाँ ( ०४ फ़रवरी १९९७ )


कल की घड़ियों में सज्जित हो कर
गुजर चले दो मधुर वर्ष
प्रवेश नवीन वर्ष में, परिणय के
देते कितने प्रमुदित हर्ष

कितने चुपके चुपके गुज़रे
खो से गये थे जिनमें हम
पता लगा न उनके जाने का
ऐसे इकसार हुए थे हम

कितनी मधुर घड़ी थी वह
कितने सुरभित वे पल छिन
बासंती फूलों से सुरभित
तुमको वरण किया जिस दिन

वामा बन कर तुमने मेरी
उत्साह नया संचार किया
जीवन को नई उमंगे दी
इस जीवन को श्रृंगार दिया

उमस घुटन से भरा नीड़ था
जिसमें तुमको मैं लाया था
तेरे आने से ही मैंनें
उसको उपवन सा पाया था

हर पल तेरी सुरभित सांसो नें
जीवन मेरा चैतन्य किया
उर्वी तेरे आगम नें
जीवन मुझको उपहार दिया

प्रेम वाटिका की आश मेरी
तुमने आ कर साकार किया
तेज खो रहे अंशू को
नव जीवन उपहार दिया

मेरी बगिया , मरूभूमि मध्य थी
स्नेह सलिला सा प्यार किया
जीवन की इस सूखी बगिया को
इक मधुर पुष्प उपहार दिया

हर पल हर क्षण तुमसे मैनें
जीवन रस को है पाया
स्नेह प्यार की क्षुधा लिए
अक्षय प्यार तुमसे पाया

प्यारी प्यारी खट्टी मीठी
कितनी ही घड़ियों में सिमटे हम
इक साँस बने इक जान बने
जिन घड़ियों से गुज़रे हम

हर साँस मेरी हर आश मेरी
अब बाट जोहाती रहती है
इक पल को भी ओझल जब तू
मेरे नयनों से होती है

बस यूँ ही इक रस हो कर
अपना प्यार निभाएँगे
ऋतुराज मध्य जब प्रणय हुआ
बन सुरभि प्यार लुटाएँगे

अनन्त बासंती फूलों से
हम परिणय वर्ष सजाएँगे
जीवन भर प्रेम सुधा पी कर
हम अमर युगल कहलाएँगे

        उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 13 नवंबर 2013

वह लहर है कौन सी





वह लहर है कौन सी
जो ज्वार सी उठती ,
अस्तित्व को ढकती हुई
डूब कर आकंठ जिसमें
चैतन्य हो उठता हूँ मैं
अनभूतियो का इक नया
संसार रच जाती है जो
वह लहर है कौन सी

अदृश्य सा मैं दृश्यमान
स्थिर भी मैं , हूँ वेगवान
जड़त्व में भी द्रव्यभान
जो करा जाती मुझे
वह लहर है कौन सी

माया में हूँ लिपटा अभी
सिमटा समाधि में भी अभी
सुरभि सी मदमस्त कर
शूल सी चुभ जाती है जो
वह लहर है कौन सी

हंसता हूँ मैं जिस किसी पल
रोता भी हूँ मैं उसी पल
अनल अनिल दोनो हूँ मैं
कराती प्रतीत एक ही पल
सरिता भी तो तड़ाग भी
जो बना देती मुझे
वह लहर है कौन सी

आज तक ढूढा सदा
ना खोज पाया हूँ जिसे
 सिमटा कभी, विशाल भी
स्व आत्म को पाया हूँ मैं
उस लहर को पर अभी तक
ना ढूढ़ पाया हूँ मैं
औ भटकता हूँ पूछता
वह लहर है कौन सी.....?

          उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 11 नवंबर 2013

सांध्य सुन्दरी अलबेली




चपल चीकने तन
मदमाता यौवन ,
स्वप्नीले नयन,
मंद सुगंध,अलको के घन से
झिरती खुशबू
फैलाती आती
सांध्य सुन्दरी, अलबेली

मदमस्त रक्त में सिहरन थिरकन
भर जाती
जब चुपके से,
गुनगुन गा जाती
वह निशा लाडली
चंचल नयनो से ,
कटि मटका
कर जाती घायल
तम दुहिता

सबकी बाहों में इठला जाती
ललचाती
उन्मुक्त भाव से
प्रेम सुधा गागर
लुढ़काती , आती
सांध्य सुन्दरी अलबेली

      उमेश कुमार श्रीवास्तव