शुक्रवार, 31 मई 2019

शासकीय आभियांत्रिकी महाविद्यालय जबलपुर परिसर में लगे वटवृक्ष को देख हुई संवेदना पर एक प्रस्तुति:

शासकीय आभियांत्रिकी महाविद्यालय जबलपुर परिसर में लगे वटवृक्ष  को देख हुई संवेदना पर एक प्रस्तुति:-


ऐ बरगद की छांव घनेरी
ना अकुला,
क्यूं व्यथित ह्रदय  ?
स्पन्दन विहीन मानव तन जड़
तुझको आरोपित जड़त्व व्यर्थ
प्रेम सुधा से आपूरित
हर पल्लव
मां के आंचल सा दे दुलार
तू सम्पूर्ण नर अर्धांश
नारी स्वरूप
देता स्नेह,दुलार,प्रेम,लाड़
कर देता सर्वस्व समर्पित
पर पाता क्या
उपहास, उपेक्षा
व्यथा,भग्न ह्रदय
की  अकथ पीर घनेरी
अश्रु आज तक बहा न सके
मरू सदृष्य दृग तेरे
तेरी व्यथा, पीड़ा
व्यर्थ नहीं वरन है यथार्थ
तू सर्वस्व समर्पित कर
मौन खड़ा
तेरे आंचल में पला बढ़ा
मनु वंशज
मद मस्त हुआ अनजान खड़ा
भूल मूल की पीड़ा
तन साध , तना सा तना खड़ा
पर तुझमें उसमें जो अन्तर है
ना वह जान सकेगा
तू बस देता वह बस लेता
वह ना मान सकेगा
हे , तरूराज
व्यथा तुम त्यागो
तुम तुम हो वे वे हैं
इस अंतर को जान
ऐ धरा सुता
क्षमा कर निष्ठुर ,कृतध्न
मानव को
तू सदा रही है प्रमुदित
बांटती आमोद
यूं सदा सरल बन जीना
सदियां ही गुजरी
अभी तुझे
ना जाने क्या क्या
ह्रदय चक्षु से है सहना
ना ह्रदय सरसता कम कर
लुटा ममत्व ,स्नेह ,प्रेम की बून्दें
भरती रह शुष्क ह्दय को
स्नेहिल जल से
अपने आंचल की
ठण्डी छांव तले
उमेश कुमार श्रीवास्तव 28.02.2017 जबलपुर

प्रेम सुधा

प्रेम सुधा
 

यह प्रेम सुधा की धारा है
इसको हाला मत कहना
नयनो के धोखे में आ कर
इसको मधुशाला मत कहना
जब अगन लगे तन मन में
इसको नाकारा मत करना
जीवन में रंग यही है भरे
इसको बेचारा मत कहना............उमेश

दर्दे दिल

दर्दे दिल


१-सम्मा की नियति यही , रात दिन जलती रहे
    रौशनी देती रहे , खुद को अंधेरे में रख
२-आहें भरना मेरी फ़ितरत नहीं थी
    दिल लगा के तूने यह भी सिखा दिया
३-गेसुओं की महक से महका चमन ये सारा
    दिल भी हुआ बेचैन यूँ लेता नहीं किनारा
४-हर पल उनकी याद में घुट-घुट के मरता रहा
    मगरूर हैं वो इस कदर, ख्वाबो में भी ना आए कभी
५-न खुदा से है शिकवा न नाखुदा से शिकायत
     जब कश्ती ही है टूटी, क्यूँ कर न डूब जाए
६-अश्क आँखो के ना जाने कहाँ खो गये
     जी चाहता रोने को, रो नही पाते
७-कुछ तो कर अब ,ऐ परवर दिगारे आलम
    जिंदगी कटती नही बिन दिदारे यार के
८-जर्द लब भी अब मेरे हो चले मयखाना
    जब से उनके लब मेरे लब से छू गये
९-अब तक तो ना झुके थे आफताब के आगे
    महताब सा पा तुझे सर  नगूं कर लिया
१०-नज़रो की शोख तब्बस्सुम जब रुखसार पे उतरी
      शर्मो हया से उनने झट परदा गिरा लिया
                           उमेश कुमार श्रीवास्तव

चन्द शेरो- शायरी

चन्द शेरो- शायरी


१. रिस्तों की महक को बनाये रख ऐ नाखुदा।
किस्ती है दरिया है बस जज्बे है बा खुदा ।
२. मैं हूं तन्हा तन्हा बस मुंतजरे खबर ।
हुजूर हैं कि कोई खबर लेते नहीं मगर
३. लगता गुल- ए-गर्ज नहीं महकने की अब ।
हर बार तंज कश रहा बागवान को ।
४. दिल-ए-लहू से मैं तुझे नज्म में भरूं ।
मगरूरियत ये तिरी बस इक वाह ही करे
५. जानता हूं सो गई हो पर ख्यालात भेज रहा हूं।
मैं किस तरह अकेला हूं वो हालात भेज रहा हूं ।
उमेश श्रीवास्तव

मुक्तक

 मुक्तक


याद आती रही गुनगुनाती रही,
दिल में हजारो मृदंग बजाती रही ।
तल्ख धूप होती रही रात भर,
हर कली प्यार की मुरझुराती रही ।
अल सुबह चौंक कर हम जग गये,
असलियत मुझे मुंह चिढ़ाती रही ।
दूर बैठे हुए मुस्कुराओ यूं न तुम,
दिल की आवाज फरियाद लगाती रही ।

उमेश श्रीवास्तव

रुबाई

 रुबाई

ऐसा न था कि डूब जाते हम,
झील, समन्दर, या आब-ए- दरिया में ।
कई डूबतों को बचाया था हमनें । 
न नाप सके तेरी झील सी आखों की गहराई ।
जो डूबे तो  फिर , वापस आ न सके ।

उमेश श्रीवास्तव

चन्द शेर

                😍 चन्द शेर😍

१. ऐ इश्क न हुआ कर इस उम्र में।
    यार, दीवाने (पागल) का तमगा लगा देता है ।
२.  कैसे कहूं नहीं इश्क मुझे तुमसे जालिम ।
     बसी रहती हो सांसों में खुशबू बन कर ।
३. उम्र की चादर को यूं न फैलाओ कि,
    घुट जाये बेचारे झश्क का दम।
४. उम्र गुजर जाती है जो सदा पाने में ।
     हमने पाया उसे आ तेरे मयखाने में ।
५. हुश्न की दीवानगी नही ये जूनू-ए-मोहब्बत है।
    हम तुम्हे देखे बिना चैन नहीं पाते जो ।

                💐उमेश श्रीवास्तव💐

चंद शेर

१.
ख्वाब सी झिलमिलाती
सबा सी मदमस्त करती
ये तेरी याद है कि
इत्र की भीनी खुश्बू

२.
अल सुबो उठ कर तेरा ,
वो चुपके से आ जाना
ता दिन मेरे खयालो में रम जाना
विदा आफताब कर शब पर छाना
मुझे सोने के लिये प्यार लुटाना
तू क्या है मेंरी यार
कहीं मेरी जां तो नही

३.
तू तो उड़ रही बे-पर अय हमनशीं
है कौन जिसने तुझे ये तदबीर कही

४.
आह यूं न भर इश्क को रुसुवा न कर
इश्क में डूबना है इबादत रब की

५.
रब तेरे साथ है जो तू इश्क का है नेक बंदा
अपने बन्दे को वो कभी मायूस न करे।

उमेश श्रीवास्तव

जिन्दगी

जिन्दगी

इतनी तो फुरसत दे जिन्दगी
कुछ तो तुझे भी मैं जी सकूं
संग बहता रहा पर मिल ना सका
बिन मिले तू बता, क्या मैं कह सकूं ।

तू सदा से विदेही रही जिन्दगी
बस बही जा रही अनवरत चंचला
मायावी कीच में तू पड़ी ही नही
मै निरा जड़ हूं ठहरा ,उसी में फंसा ।

तनिक तू समय दे ,मुझे साथ ले ले
सिसकता रहूं मैं ,यूं कब तक खड़ा
जानता हूं ,मै ये कि, तू ठहरती नहीं
हो न सकता क्या ये,ले तू मुझको बहा ।

काश ! तू भी बहे संग मैं भी बहूं
मेरी धड़कनो में भी सरगम बजे
भीड़ में खो गया जो अस्तित्व मेरा
तेरी वादियों में वो कुछ,मिल तो सके ।

कभी बरखा रही, सर्द रातें कभी
जेठ की धूप सी तू कभी थी तपी
यूं ही बावरा मैं ,इनसे डरता रहा
मर्म इनका मुझे क्यूं ना समझा सकी

हर घड़ी आज तक मै लड़ता रहा
दौड़ता ही रहा हांफता ही रहा
खुद को खुद ही से मैं दूर करता रहा
बस इसे जिन्दगी मैं समझता रहा

इस कदर थक गया पर जी ना सका
लुफ्त तेरे मौसमों का, न ले मैं सका
यूं न मायूस कर तू ठहर जा जरा
ले लूं तेरी झलक जो , न ले मैं सका ।

ठहर जरा ठहर जरा ऐ जिन्दगी ठहर जरा
गम के घूंट पी तो लूं  तुझे जरा मै जी तो लूं
हो न जाये शेष ये सफ़र ,जीने की संग चाह ले
प्यासा सफर करता रहा,ये अमी भी पी तो लूं ।

उमेश श्रीवास्तव 27.01.2017 जबलपुर

चन्द शेर (दर्द-ए-दिल)

चन्द शेर (दर्द-ए-दिल)

उनकी इश्क की इस अदा को देखो
दर्द हमें तब्बस्सुम गैरों को बांट देते हैं

दर्द दिल में जलन आंखों में लिये फिरते हैं
मरीज-ए-इश्क हैं, अश्कबार हुए फिरते हैं

उनकी मगरुरियत नालों पे कान देते नही
इक हम हैं कि पुकारे चले जाते हैं

उनको फिक्र कहां इश्क की बेकरारी की
उनको फुरसत नही अंजुमन के अपने तारों से

नज़रें दर पे कान आहटों पे लगे रहती है
न जाने कब हजूर बेआहट आमद दे दें

नालों--पुकार
अश्कबार---रोता हुआ
मगरूरियत--अंहकारग्रस्त
आमद- उपस्थिति
अंजुमन--महफिल
उमेश श्रीवास्तव , जबलपुर ३०.०१.२०१७

बुधवार, 22 मई 2019

शेर

गमदीदा हूं मुझे गमगुस्सार चाहिए
विस्मिल जिगर को गुल-ए-गुलजार चाहिए
नागवार लगती अब दुनियाई  रश्में
अब बस मुझे अश्फाक-ए-यार चाहिए
गमदीदा/दुखित, व्यथित,    गमगुस्सार/दिलासा देने वाला,  नागवार/अरुचिकर,बेस्वाद , अश्फाक/सहारा , अनुग्रह, कृपा

उमेश श्रीवास्तव

होली के रंग सब के संग

होली के रंग सब के संग

होली के रंग में
रंगीली उमंग में
आपका भी साथ हो
दिलों की ही बात हो
नयनों में प्यार हो
रंगों की बहार हो
हाथों में गुलाल हो
चेहरे सब के लाल हों

फागुनी बयार में
सुनहरी एक तान हो
झूमते बदन के संग
खिलती मुस्कान हो

यार हो प्यार हो
दुलार ओ सत्कार हो
जिन्दगी की रंगीनियों की
खुली इक दुकान हो

बांटिये खुले खुले
बन्द न कोई प्राण हो
प्यार भरे रंग सब
न दिल में कोई त्राण हो

हरे नीले पीले के संग
गुलाबी भी श्रृंगार हो
दिलों में भरे उंमग
लाली लिये प्यार हो

रिस्तों की खटास पर
मिठाइयौं की मार हो
मिटा दो खटास सब
होली की पुकार हो

गले लगा प्रिये सभी
रंग दो सभी चुनर
न हो अलग थलग कोई
बस प्यार की खुमार हो

आओ खेले होली हम सब
राधा कान्हा बन बन
प्रेम जगे धरती पर सात्विक
बने धरा वृन्दावन

सबके जीवन में खिल जायें
सतरंगी  फुलवारी
सुख की उझास यूं फैले
मिटे दुःखों की अंधियारी

उमेश श्रीवास्तव  जबलपुर १३.०३.२०१७

ग़ज़ल दर्द दिल में जब उभर आता है

ग़ज़ल

दर्द दिल में जब उभर आता है
रूह पर न जाने कौन छा जाता है
आंखें वीरान सी हो जाती हैं
चेहरा ज़र्द पत्तों सा सूख जाता है ।

रह जाता नही अपना वजूद अपने वश में
दर्द ही दर्द विखर जाता है
देने वाले देता क्यूं है यूं गम के गुबार
गर्दिशों में खुशनुमा मंजर विखर जाता है ।

वक्त पड़ जाता क्यूं भारी समझदारी पर
दिल दे देता है जबाब क्यूं वफादारी पर
इश्क सै कैसी कुछ तो कहें
संग चलते चलते जाने ये कदम क्यूं बहक जाता है ।

रोज लड़ते रहे हम  ख़ुदा से बन काफ़िर
वो हमसफर बने या खत्म कर दे ये सफर
दिल के दलहीज पर जो सुबो शाम
खैरमकदम कर दस्तक लगा जाता है।।

उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर १५.०३.२०१७

क्षणिकाएँ (फाग पर)

क्षणिकाएँ (फाग पर)

फाग,
मस्ती का मौसम
यौवन की आग

गुलाल,
प्रियतम की हथेली
प्रिये का हो गाल

रंगोली,
बाँहो में प्रिये के
प्रियतमे है झूली

पिचकारी
हाथो से 'उनके'
भीगी चोली सारी

अबीर,
गोरी की चितवन
लगा दिल पे चीर

गोझा,
घरवाली का संग
लगे आज बोझा

           उमेश कुमार श्रीवास्तव 

..




हूं शरणागत त्रिपुरारी

हूं शरणागत त्रिपुरारी

अय काल कराल
दिव्य ज्वाल
अय त्रिनेत्रधारी
नील कण्ठ
तेरी शरण  तेरी शरण
अभ्यागत है तेरी शरण

अय जटाधारी
भूतनाथ
अय मृगछालधारी
अघोरनाथ
दे वरदहस्त हूं शरण
तेरी शरण तेरी शरण

अय कृपापुन्ज
गंगधारी
शीतल करो
हिय अनल सारी
दूर कर सारे प्रमाद
दे कृपासिन्धु अपना प्रसाद
हूं खड़ा द्वारे तेरी शरण
तेरी शरण तेरी शरण

पशुवत बना जीवन मेरा
पशुपति तनिक तू देख ले
त्रिनेत्रधारी भस्म कर
तम भरे सारे विकार
हूं खड़ा द्वारे तेरी शरण
तेरी शरण तेरी शरण

इक बिन्दू का कण मात्र हूं
पर जलज तू ,हूं अंश मैं
पावन बनूं, पावन रहूं
ले भार तू ,जो अंश मैं
अभ्यागत बना आया हूं मैं
तेरी शरण तेरी शरण

हे शिव मेरे शंकर मेरे
भोला हूं मै ,भोले मेरे
हे भस्मांगधारी भस्म कर
अरि बन रहे विष अपार
अय त्रिशूलधारी त्रिपुण्डनाथ
त्रिताप हर आमोद भर
हूं खड़ा कब से शरण
तेरी शरण तेरी शरण

भय मुक्त कर निर्द्धन्द कर
इस पार भी उस पार भी
जीवन बने परमार्थकारी
निर्मल ,सजल , सत्यधारी
अर्चना के पुष्प संग, हूं शरण
तेरी शरण तेरी शरण

उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर दिनांक १८.०३.२०१७

ये मानव का रूप कौन सा ?

ये मानव का रूप कौन सा  ?

भागती सी जिन्दगी
दौड़ते से लोग
सांसे उखड़ रही
हांफते से लोग

चल रहे इधर कुछ
कुछ पल उधर रहे हैं
बस संग कोई नहीं है
अपने में खोये लोग

है दायरा बस उन्ही का
दूजा न कोई अब तो
कांधे पे अपने खुद को
ढोये पड़े हैं लोग

दूजे की गर वो सोचे
मानो गड़बड़ी है
प्रगति जो दिखी किसी की
तो, पर काटते हैं लोग

कोई जी रहा क्यूं
अपने मौज में है
आंखों की किरकिरी इसे
बतलाये पड़े है लोग

नेकी हमी से जिन्दा
हम उसके रहनुमा है
बदगुमानियों की गुदड़ी
ओढ़े पड़े हैं लोग

खुद पर कभी न आंखे
बस औरों को तक रहे हैं
खुशनामियों को अपनी,
चिघ्घाड़ते से लोग

कहते रहे धरा पर
धनी,ज्ञानी जिसे सब
निर्धन ,जड़ दिख रहे
ईर्ष्याग्रसित से लोग

अब तो बदल दो यारो
तस्वीर मानवों की
किस राह पे चले थे
किस राह खड़े हैं लोग

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर दिनांक १९.०३.१७

शनिवार, 18 मई 2019

मुक्तक

चश्मो में चमकी तब्बस्सुम जो देखी मेरी जिंदगी मुस्कुराने लगी
रुखसार पे तेरी हया जो  देखी ये  जिंदगी  गुनगुनाने  लगी
लबो की तेरी गुलाबी ओ रंगत  मुझमें फिर जुनू है जगाने लगी
क्या कहूँ क्या कहूँ क्या कहूँ ऐ जानम ख्वाबो में भी तू जो जगाने लगी
                                                                    उमेश श्रीवास्तव

गुरुवार, 16 मई 2019

ऐ ,भौतिक प्रलोभन

,भौतिक प्रलोभन

कितनी बार तुमसे कहा
कि ,
ना आया करो यूँ
चुपके से।
मुझे तुम्हारा यह तरीका
नागवार लगता है
चुपके से खलल डालना
एकांत आराधना में
मेरी,
टेशू से दहकते
मदमस्त यौवन से अपने

कितनी बार रोका है तुम्हे
कि,
मुझे भाते नहीं
ऋतुराज
और तुम हो कि
पतझड़ में भी
बुला लाती हो उन्हें
जलाने को मुझे

मैंने कहा था न तुम्हे
मैं विश्वामित्र नहीं बन रहा
तुम्हारी मेनका बनने कि चाह
तुम्हे
नचा रही है यूँ
उतार दो तुम इन्हे
और फेंक दो दूर
क्षितिज के पास
जहां से फिर , मिल ना सकें
और , न अवरोध ही बने
मेरे
ये तुम्हारे सरगमी
नूपुर

क्यूँ नाहक तुम
देती हो दस्तक , उन द्वारों पर
जिन्हे खुले सदियाँ ही नहीं
इक युग
गुजर चुका  है
मुझे चिढ सी होने लगी है
अब तो
जहां थी पहले
सहानभूति।
कि , तुम चाहती हो
पत्थर को द्रव्य बना
मुहर लगाना
विजय पर अपनी

यैसा नहीं कि मैं
मुग्ध नहीं हूँ
इस लावण्यमयी
यौवन से तेरे
मैं भी चाहता हूँ
इक सुहाना संसार
जीने को
तुम सी ही संगिनी
सुधा- अधर पीने  को

पर नहीं चाहता तो बस
किसी सुमन का
यौवन में ही मुरझाना
मैं स्वयं को जानता हूँ
बस कारण इतना
दूर रहने का तुमसे
क्यूँ कि तुम सी कली
न सहेज पाऊंगा
अपने जीवन ध्येय से
भटक
अपने आराध्य को
विलग कर।
न यही चाहूंगा
मुरझा जाओ तुम
मुझे पराजय का
अहसास करा

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 13 मई 2019

शेर-२

१-रात ख्वाबो में रहा किसी के पहलू में,
आंख सुबो खुली है खुमारी में हंसते हुये।

२-चंद शबनम के कतरों ने बयां कर दी हालात-ए-दिल
किसी को अहसासो को पढ़ने का हुनर आ है गया ।

३-जिन्दगी जीने के लिये हुक्मरानो का हुक्म तो बजाना होगा
रूमानी होने के लिये कुछ वक्त तो बचाना होगा...?

४-वक्त के हर पहलू ने वादा है किया
तेरा हर काम करूंगा मैं तू रूमानी तो रह

उमेश १५.११.१६

शेर

१-इश्क को हद में बांध कर कोई कहे
डूब जा तू दर्द -ए-गुबार में

२-तूने यूं भिगोया मुझे अपनी इश्क  की बून्दो से ,
इस तरह तर हूं अब सूख जाऊं मुस्किल है।

३-जान के जाने का मंजर क्या होगा
तुझसे दूर होते ही जान लेता हूं।

४-तूने दीदार जो कराया जल्वा-ए-हुश्न ,
हूं अब तलक खोया हुआ तेरी रूह में हूं ।

५-है रुह को बस तेरी ही तमन्ना
तेरे जल्वे को बस देखता ही रहूं
मेरे सामने यूं ही बैठी रहो तुम
जिन्दगी भर यूं तुम्हे बस तकता रहूं

६-थी तमन्ना तुम्हारी शायरी में ढलो तुम
अब हर लफ्ज शेर का है तुम्हारे लिये

७-यूं न मचला करो जरा सम्हला करो
ये शुरूआत है इंतहां ये नहीं

८-तेरी आरजुओं से बन्ध गया हूं मैं
अब तमन्ना यही बस रिझाती रहो

उमेश श्रीवास्तव

ग़ज़ल अहले दिल की तेरी दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई

ग़ज़ल

अहले दिल की तेरी  दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई
कुछ और पिला ऐ साकिया,दर्दे दिल भी ये  बढ़ा गई

अब सुकून मुझे ज़रा मिले, कुछ तो जतन बता मुझे
तेरे रुख़ की इक झलक तो दे, न जला मुझे न जला मुझे

तेरे जाम को ये क्या हुआ, ब- असर  से जा बे-असर हुए 
लगा लब से अपने इन्हे ज़रा, इन्हे सुर्ख सा बना ज़रा

जो अश्क हैं इन चश्म   में, बेकद्र में न बहा उन्हे
अश्क-ए-हाला ज़रा, तू मिला  मेरी शराब में , शराब में

तोहमत न दे बहक रहा, मैं,तिरी महफिले जाम में
मै तो डूबता चला गया तिरी इस नशीली शाम में

वो असर हुआ है दिल पे कि, बे-असर हुई शराब भी
तेरा हुश्न तिरी वो दास्तां मेरे होश ही उड़ा गई

उमेश कुमार श्रीवास्तव,०३.०९.२०१६ जबलपुर

मेरे विचार

  मेरे विचार


       कहा जाता है कि पृथ्वी पर चौसठ लाख योनियों में अपनें कर्मों के अनुरूप आत्मा अपने अन्तःकरण के साथ जन्म लेती हैं । यह वैज्ञानिक तथ्य है कि प्राणियों की लाखों खुंखार व अत्यधिक घृणित तथा भयावह प्रजातियां लुप्त हो गई हैं जिनमें जड़ योनि के पेड़ पौधों की भी प्रजातियां सम्मिलित हैं । जिससे ऐसी योनियां जिनमें अपना कर्मफल भोगने के लिये प्राण को जन्म लेना था वह बची ही नहीं । दूसरी तरफ मानव प्राणी की जनसंख्या अर्थात इस प्रकृति की योनी पृथ्वी पर अन्य प्राणियों की तुलना में स्वमं को स्थापित कर विकास करनें में सफल रही । अतः जो योनियां जानवरों कीड़े मकोड़ो पेड़ पौधों की लुप्त हुई उस योनि के घृड़ित विभत्स, दुर्दान्त कर्म करते हुए अपना कर्म फल भोगने हेतु उस प्रकृति की आत्मा सह अन्तःकरण को उपलब्ध मानव योनि में ही जन्म लेना पड़ रहा है । जिससे देखने में मानव जनसंख्या में वृद्धि दिखती है किन्तु वास्तव में मानव स्वरुप में अधिकांश जनसंख्या उन विलुप्त जानवरों कीट पतंगों पक्षियों पेड़ पौधों की हैं जिनकी योनियां विलुप्त हो चुकी हैं । इसी कारण इन योनियों में जन्म लेने से उनके जो गुण स्वभाव होते वे मानव में दिख रहे है । अतः इन्हे इनके आकार प्रकार के आधार पर इन्हे मानव मानने की भूल भूल कर भी न करियेगा । दो हाथ दो पैर ,दो आंख दो कान एक नाक सह सिर के सभी प्राणी मानव नहीं रह गये हैं यह समझते हुये इनसे वर्तमान युग में डरना स्वाभाविक है ।
मेरी सोच मेरा आंकलन सहमत तो स्वागत असहमत तो क्षमाप्रार्थी

गजल अय यार तेरी सोहबत में हम

यदि मेरे यार को दर्द दे सुकूं मिलता है
तो मुझे सहने की ताब दे दे ऐ मेरे खुदा ၊

गजल

अय यार तेरी सोहबत में हम
हंस भी न सके रो भी न सके ।
किया ऐसा तुने दिल पे सितम
चुप रह भी न सके औ कह भी न सके।

बेदर्द जमाना था ही मगर'
हंसने पे न थी कोई पाबन्दी
खारों पे सजे गुलदस्ते बन
खिल भी न सके मुरझा न सके

हम जीते थे बिन्दास जहां
औरों की कहां कब परवा की
पर आज तेरी खुशियों के लिये
खुश रह न सके गम सह न सके

हल्की सी तेरी इक जुंबिस
रुत ही बदल कर रख देती
पर आज दूर तक सहरा ये
तप भी न सके न जल ही सके

जब साथ न देना था तुमको
तो दिल यूं लगाया ही क्यूं था
यूं दम मेरा तुम ले हो गये
ना जी ही सके ना मर ही सके ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०४.०९.१६

अजनबी

अजनबी

उस अजनबी की तलास में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरो पर

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालो में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल

पर अब तक तलास रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसेमैं जानताहूँ वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से

जाने कब पूरी होगी मेरी तलास
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव...01.09.1990...

मेरी व्यथा

मेरी व्यथा

दुनिया की
तेज रफ़्तार दौड़ नें
(सभ्यता,संस्कृति के विपरीत)
आधुनिकता की ओर
पीछे छोड़ दिया है
मुझे
काफ़ी पीछे
जहाँ से
रास्तो के निशाँ
मिट चुके हैं
गर्दो-गुबार में
जिनके सहारे ही
मैं
उस दिशा की ओर
अग्रसर हो सकता
जिस ओर
जन समुदाय
अपनी रफ़्तार नापने को
गतिमान हुआ था

मैं अब भी
प्राचीर से चिपका बैठा हूँ
गौरवान्वित होता
अपनी वैभव पूर्ण
प्राचीन, खंडहर बनते
सभ्यता के विशाल
प्रासाद से,
शायद यह भूल कि,
यह कलयुग है
जहाँ आज का महत्व है
कल का नहीं

कल के सांस्कृतिक मूल्य
आज पुरातन हो
बू कर रहे हैं
पश्च-गामी समाज को
हर प्रयास
सामान्जस्य का , मेरा
निरर्थक हो रहा
स्वयं को गतिशील करने का

मेरा मोह
(अपनी सभ्यता, सस्कृति का)
मेरा भय
(पिछड़ने का , कट जाने का समाज से)
दोनो का द्वंद
मुझे नज़र आता
कुरुक्षेत्र स्वयं मे ही
जहाँ
नैवैद्य बना
होम कर रहा हूँ
स्वयं को  ही मैं

कब और कहाँ किस तरह
उस बिंदु को पाऊँगा
जहाँ युद्ध और शान्ति में
सामान्जस्य बिठा
गतिशील करूँगा
स्वयं को
समाज मे स्थापित होने को
स्वयं को
सामाजिक जन्तु कहलाने को

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

दर्द की छाया

दर्द की छाया

दर्द अहसासों के सहारे
धमनियों से गुजरता है जब
इक शीत की लहर सी
चलती है संग संग
गर्म लहू जमने सा लगता है
दिल की सुरम्य वादियों में
पतझड़ सा छा जाता है
उजड़ जाती हैं
बसी फूलों की बस्ती
कलियां सूख कर
झड़ जाती हैं शाखाओं से

दर्द एकाकी न होता है कभी
वह काफ़िला संग लिये चलता है
मन मस्तिष्क पर चढ़ दौड़ते
जब अश्व उसके
हो जाती हैं शिथिल  इन्द्रियां पंचम
शीत कुहासे से घिरा एकाकी हिय
संकुचन की परा छू लेता है
धड़कने छोड़ देती है साथ
प्राणवायु ही जब दगा देती है

दर्द अहसासों के सहारे
चुपके से
धमनियों से शिराओं में उतर आता है
शिराओ के मकड़जाल में फंस
सारे वजूद को आगोश में ले
शिव से वजूद को भी
शव सदृष्य बना जाता है

दर्द कैसा भी हो
न बाटों यारों
बांटना ही है तो प्यार बांटो यारों
दिल की राह पर जो दर्द आ जाता है
अच्छे अच्छों की वो दुनियां मिटा जाता है
प्यार वह बाग है जो
हर दिल में सजाना होगा
फूलों के मकरंद से भी उसे महकाना होगा
न कर सको ऐसा तो
बस इतना कर लो
गरल छोड़, अमी का
संग कर लो

उमेश कुमार श्रीवास्तव २८.१२.२०१६ (12.00)

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष" 
वही रश्मि औ वही किरण है
वही धरा औ वही गगन है
वही  पवन है नीर वही  है
वही कुंज  है वही लताएँ

पर्वत सरिता तड़ाग वही हैं
वन आभा श्रृंगार वही है
प्राण वायु औ गंध वही है
भौरो  की गुंजार वही है

क्या बदला है कुछ,नव प्रकाश में
ना ढूंढो उसको बाह्य जगत में
वहाँ मिलेगा कुछ ना तुमको
डूबो तनिक अन्तःमन में

क्या कुछ बदला है मन के भीतर ?
जब आये थे इस धरती पर
क्या वैसा अंतस लिए हुए हो ?
या कुछ बन कर ,कुछ तने हुए हो !

अहंकार , मदभरी लालसा
वैरी नहीं जगत की  हैं यें 
यही जन्म के बाद जगी है
जो वैरी जग को ,तेरा कर दी है

यदि विगत दिवस की सभी कलाएँ
फिर फिर दोहराते जाओगे
नए वर्ष की नई किरण से
उमंग नई  क्या तुम पाओगे

जब तक अन्तस  अंधकूप है
कहाँ कही नव वर्ष है
अंधकूप को उज्जवल कर दो
क्षण प्रतिक्षण फिर नववर्ष है

हर दिन हर क्षण, जो गुजर रहा है
कर लो गणना वह वर्ष नया है

हम बदलेंगे  युग बदलेगा
परिवर्तन ही वर्ष नया है

गुजर रहे हर इक पल से
क्या हमने कुछ पाया है
जो क्षण दे नई चेतना
वह नया वर्ष ले आया है 

मान रहे नव वर्ष इसे तो
बाह्य जगत से तोड़ो भ्रम
अपने भीतर झांको देखो
किस ओर  उझास कहाँ है तम

अपनी कमियां ढूढो खुद ही
औरो को बतलादो उसको
बस यही तरीका है जिससे
हटा सकोगे खुद को उससे

सांझ सबेरे एक समय पर
स्वयं  करो निरपेक्ष मनन
क्या करना था क्या कर डाला
जिस बिन भी चलता जीवन

कल उसको ना दोहराऊंगा
जिस बिन भी मैं जी पाऊंगा
आत्म शान्ति जो दे जाए मुझको
बस वही कार्य मैं दोहराऊंगा

राह यही  नव संकल्पो की
लाएगी वह  अदभुत हर्ष
तन मन कि हर  जोड़ी जिसको
झूम कहेगी नया वर्ष

आओ हम सब मिलजुल कर 
स्वागत द्वार सजाएं आज
संकल्पित उत्साहित ध्वनि से
नए वर्ष को लाएं आज

   उमेश कुमार श्रीवास्तव

चतुर शेर


                     १

लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना ၊

                       २

फकत याद में होता रहा खाना खराब
वो भी कितने मगरूर हैं देते नही खत का जबाब ၊

                          ३

अंदर से उठ कर धुआँ गुजरता जब दिल के पास से
रौशनाई यादें बन कागज पे चल पड़ती हैं ၊

                             ४

हूं चाहता तो मैं भी , तुझको चूम लू       
पर आसमां तू ठहरा , मुझे हद पता है अपनी ၊

.......... उमेश श्रीवास्तव

मातृ दिवस पर इस वसुधा पर की सभी माताओं को मेरी ओर से आदरान्जली

मातृ दिवस पर इस वसुधा पर की सभी माताओं को मेरी ओर से आदरान्जली :-

अनन्त मंगल घोषकारी   
*माँ* ध्वनि अपरम्पार है ,
'ब्रम्ह' भौतिक लोक की ,
हर प्राण की आधार है  ၊

गढ़ती अनेको रूप जिससे
ये चराचर चल रहा
रहते अगढ़ पशु ,माँ पाठ बिन
मानव प्रगति जो कर रहा ၊

माँ आप में हैं देव तीनों
तृदेवियां भी आप में
ब्रम्हाण्ड की हर शक्तियां
माँ शब्द में ही व्याप्त हैं ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव

रविवार, 12 मई 2019

Meri Gajale Mere Geet (मेरी ग़ज़लें मेरे गीत): मार्तण्ड-नीर

Meri Gajale Mere Geet (मेरी ग़ज़लें मेरे गीत): मार्तण्ड-नीर: मार्तण्ड-नीर हिय में छवि ,तेरी क्या धारी मैं हो गई बावरी दिनकर जड़ चेतन सब मोहित मुझ पर हूं मोहित मैं तुझ पर छवि मेरी बदल गई है सब झांक...

Meri Gajale Mere Geet (मेरी ग़ज़लें मेरे गीत): मार्तण्ड-नीर

Meri Gajale Mere Geet (मेरी ग़ज़लें मेरे गीत): मार्तण्ड-नीर: मार्तण्ड-नीर हिय में छवि ,तेरी क्या धारी मैं हो गई बावरी दिनकर जड़ चेतन सब मोहित मुझ पर हूं मोहित मैं तुझ पर छवि मेरी बदल गई है सब झांक...

Meri Gajale Mere Geet (मेरी ग़ज़लें मेरे गीत): मार्तण्ड-नीर

Meri Gajale Mere Geet (मेरी ग़ज़लें मेरे गीत): मार्तण्ड-नीर: मार्तण्ड-नीर हिय में छवि ,तेरी क्या धारी मैं हो गई बावरी दिनकर जड़ चेतन सब मोहित मुझ पर हूं मोहित मैं तुझ पर छवि मेरी बदल गई है सब झांक...

शनिवार, 11 मई 2019

श्याम श्वेत घन

गहन गगन से
उतरे घन
श्वेत श्याम कुछ,
कुछ रक्तिम रक्तिम
कुछ कपास की
ओढ़े सदरी
कुछ ओढ़े हैं पीतवसन

अरूण संग बाल रवि
रश्मि प्रभा
बिखरी अनुपम
मृदु मेघ घनेरे
घेरे  घेरे
बहते चलते
रवि संग संग

रश्मि प्रभा
छिटकी बिखरी सी
इधर उधर
अटकी भटकी सी
जूझ रही स्व रुप बचाने
रूप निरख
कर अवशोषित
प्रमुदित कितना
ये घन मन

रक्तिम , श्यामल
पीत, धवल
नीलकमल सा
मोहनि सुन्दर
हर रूप सलोना
धर फिरता चंचल

रश्मि संगनी
संग मचल मचल
दृग चंचल वय चंचल
काया में रख सुन्दर
हिय चंचल
कुछ इठलाता बलखाता
जता रहा
यह बादल दल

विहसित रूप जलज
सघन
घटा टोप घन
घन घन घन घन
छिपी किरण
रवि रश्मि सुनहरी
बेकल विकट
रुष्ठ पवन
सन सनन सनन
अब्द नीर बन
पड़े भूमि
हुए विकल अकुलाये
नीर बिन
नीर बिना बे चीर हुए
घन

मुक्त चपलिका
कुंदन कुंदन
विकल विकल
क्रन्दन क्रन्दन
नीर बहाते
बेनीर हुए घन

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर, दिनांक १०.०५.२०१७

गुरुवार, 9 मई 2019

गज़ल : वो अपनी तस्वीर को हर रोज

ग़ज़ल
वो अपनी तस्वीर को हर रोज बदल देते हैं
तदबीर से हम भी उन्हे दिल में जगह देते हैं
कभी रुखसारों की रंगत दिलकश
कभी लब पे मचलती शोख हँसी
कभी ज़ुल्फो की पेंचो उलझाती अदा
कभी अँखियों से झाँकती शरारत
इक मीना में भरी इतनी मय की तासीर है
औ कहते हैं कि पी के भी बा-होश रहो
क्या शै है दीदार-ए- हुश्न भी यारों
रोज नई जुंम्बीसे दे, जीना सिखा जाती है

उमेश कुमार श्रीवास्तव

ना यूं हमें ख्वाब में बुलाया करो

गजल

ना यूं हमें ख्वाब में बुलाया करो
मिलना हो तो हकीकत बन आया करो ।
रात फिर परेशां हमें कर डाला तुमनें
ऐसे डोरे हम पे न आजमाया करो ।
तुम जो मिल लेती हो ख्वाब में अपने
दिल, जमीं इश्क की ,आ आराम फरमाया करो ।
तड़पता किस कदर मैं खुद से बिछड़
मेरी रूह में उतर झांक जाया करो ।
हुश्न हो तुम ,नही मालूम इश्क की जलन
जरा इश्क की तलब ,खुद में भी जगाया करो ।
जानता, तुमको नही तलब इश्क-ए-आब की
पर मेरी तिश्नगी पे , तनिक तरस खाया करो ।
तुम तो जिन्दगी हो , मेरी जिन्दा दिल की
उसे इस कदर मायूस न बनाया करो ।
तब्बस्सुम को ख्यालों में न कैद रखो
मेरे इश्क पे थोड़ा तो मचल जाया करो ।
उम्र रक़ीब नहीं रुहानी बन जीने की
उम्र की आड़  ले दामन यूं न छुड़ाया करो।

उमेश श्रीवास्तव

पंच शेर

१. ऐ इश्क न हुआ कर इस उम्र में।
यार दीवाने (पागल) का तमगा लगा देता है ।

२.  कैसे कहूं नहीं इश्क मुझे तुमसे जालिम ।
बसी रहती हो सांसों में खुशबू बन कर ।

३. उम्र की चादर को यूं न फैलाओ कि,
घुट जाये बेचारे झश्क का दम।

४. उम्र गुजर जाती है जो सदा पाने में ।
हमने पाया उसे आ तेरे मयखाने में ।

५. हुश्न की दीवानगी नही ये जूनू-ए-मोहब्बत है।
हम तुम्हे देखे बिना चैन नहीं पाते जो ।

उमेश श्रीवास्तव

डूबता सा दिल

ढलती हुई सी सांझ,
डूबता सा दिल,
आज तू पहलू नही,
है टीसता सा दिल ।
रूठती सी रात,
जागती सी नींद,
करवटों में दर्द क्यूं,
पूछता सा दिल ।
आहटों पे कान क्यूं,
बेचैनियों के संग,
तू नहीं यहां कहीं ,
जब जानता ये दिल ।
रूक रही सी सांस क्यूं,
क्यूं थम रहा सा दिल,
बिखर रही सी जिन्दगी से,
है पूछता सा दिल ।
उमेश

अभिलाषा

अभिलाषा

अय सूरज
तू तपता क्यूं है ?
यूं शोलों में
जलता क्यूं है ?
आ अंको में
तुझको भर लूं
शीतल वाश
तन हिय मैं कर दूं

रहे अगन न
बाकी कण भी
सब शोषित
स्व तन मैं कर लूं
कान्ति तेरी,
तुझको ही अर्पित
शीतल कनक बना
तुझको मैं
तुझको, तुझको
अर्पित कर दूं

मैं अविरल हूं
जल की धारा
तू जग का है
पालन हारा
तेरे श्रम का मोल नही तो
क्यूं ना अनमोल
मै आगत कर लूं

उमेश श्रीवास्तव १९.०१.२०१७

मार्तण्ड-नीर

मार्तण्ड-नीर

हिय में छवि ,तेरी क्या धारी
मैं हो गई बावरी दिनकर

जड़ चेतन सब मोहित मुझ पर
हूं मोहित मैं तुझ पर
छवि मेरी बदल गई है
सब झांक रहे हैं गहवर
रक्तिम लाली गालों पर लख
हैं मोहित होते नभचर

तरूवर छोड़ धरा जड़ अपनी
आये देखो प्रियवर
मै अदनी थी पोखर , भानू
तू बना दिये है सागर

ये छवि मेरी तेरी छाया है
तू मेरा कुसुमाकर
रात रात जग ठिठुर तका है
तब प्रात मिले हो मन नागर

उमेश श्रीवास्तव १९.०१.२०१७

चन्द बन्दिशें दिलेनादां

१.
ख्वाब सी झिलमिलाती
सबा सी मदमस्त करती
ये तेरी याद है कि
इत्र की भीनी खुश्बू

२.
अल सुबो उठ कर तेरा ,
वो चुपके से आ जाना
ता दिन मेरे खयालो में रम जाना
विदा आफताब कर शब पर छाना
मुझे सोने के लिये प्यार लुटाना
तू क्या है मेंरी यार
कहीं मेरी जां तो नही

३.
तू तो उड़ रही बे-पर अय हमनशीं
है कौन जिसने तुझे ये तदबीर कही

४.
आह यूं न भर इश्क को रुसुवा न कर
इश्क में डूबना है इबादत रब की

५.
रब तेरे साथ है जो तू इश्क का है नेक बंदा
अपने बन्दे को वो कभी मायूस न करे।

उमेश श्रीवास्तव

जिन्दगी

जिन्दगी

इतनी तो फुरसत दे जिन्दगी
कुछ तो तुझे भी मैं जी सकूं
संग बहता रहा पर मिल ना सका
बिन मिले तू बता, क्या मैं कह सकूं ।

तू सदा से विदेही रही जिन्दगी
बस बही जा रही अनवरत चंचला
मायावी कीच में तू पड़ी ही नही
मै निरा जड़ हूं ठहरा ,उसी में फंसा ।

तनिक तू समय दे ,मुझे साथ ले ले
सिसकता रहूं मैं ,यूं कब तक खड़ा
जानता हूं ,मै ये कि, तू ठहरती नहीं
हो न सकता क्या ये,ले तू मुझको बहा ।

काश ! तू भी बहे संग मैं भी बहूं
मेरी धड़कनो में भी सरगम बजे
भीड़ में खो गया जो अस्तित्व मेरा
तेरी वादियों में वो कुछ,मिल तो सके ।

कभी बरखा रही, सर्द रातें कभी
जेठ की धूप सी तू कभी थी तपी
यूं ही बावरा मैं ,इनसे डरता रहा
मर्म इनका मुझे क्यूं ना समझा सकी

हर घड़ी आज तक मै लड़ता रहा
दौड़ता ही रहा हांफता ही रहा
खुद को खुद ही से मैं दूर करता रहा
बस इसे जिन्दगी मैं समझता रहा

इस कदर थक गया पर जी ना सका
लुफ्त तेरे मौसमों का, न ले मैं सका
यूं न मायूस कर तू ठहर जा जरा
ले लूं तेरी झलक जो , न ले मैं सका ।

ठहर जरा ठहर जरा ऐ जिन्दगी ठहर जरा
गम के घूंट पी तो लूं  तुझे जरा मै जी तो लूं
हो न जाये शेष ये सफ़र ,जीने की संग चाह ले
प्यासा सफर करता रहा,ये अमी भी पी तो लूं ।

उमेश श्रीवास्तव 27.01.2017 जबलपुर