हे अर्धान्श
मानव समाज को,
हे नर अर्धान्श
नारी ,
जब जब तुझ पर
नर-पशु ने
अमानुशी प्रहार किया
कायिक या मानसिक ၊
ना सोच, है पाषाण
मानव समाज ၊
स्पन्दन जो प्राण में ,
तुझसे ही पाया ,
चेतना सुचि ज्ञान
तूने ही तो
है, बोध कराया ,
लाखों योनियों में
भटके सभी
ये तेरी योनि है
जिसने,दुर्लभ मानव
तन दिलाया ၊
जो न होता स्तन तेरा
हे मातृ शक्ति
पोषित न होती
इस धरा पर प्राण शक्ति ၊
जन्म पाया
शक्ति पाई
ज्ञान पाया
इस धरा पर
अवतरण का
अभिमान पाया ၊
क्या क्या न दिया तूने ,
हैं ऋणी सब,
नारी बिना नर कल्पना ?
अकल्पनीय है ၊
इस अर्थ युग में
है प्रश्न मेरा भी
यक्ष सा
जो रहा है
अब तलक
दुर्भिक्ष की भूख सा,
जो व्यथित
तैरता व्योम में
धुनता
अपनी ही गुरुता को
कि , क्या यह समाज
अब मानव का है ?
या, हिंसक पशुदानवों का ?
पाठशाला ,गोद माँ की
जबसे दूषित हुई
अर्थ, धूरी बनी ,
स्नेह, दोयम बना
संस्कारों की थाती
छूट पीछे गई ,
लालसा जो जगी
माया नगरी की चमकती,
धनागार की ।
तू भी भटकती जा रही
सुचि पथ छोड़ कर
अर्थ खातिर अपने वसन-
असन सब छोड़ कर
क्या नही चिन्तन की बेला
आ गई
आत्म मंथन की है शायद
यह ही घड़ी ၊၊
तुझको सिखाने नर कोई
यदि आयेगा.
प्रथम गुरु के सामने
क्या कहीं टिक पायेगा ၊
इसलिये
अब तुझ पर ही भार है
खुद को ही दे सीख
यही अब सार है ၊
तुने दिये नर नारियों में
श्रेष्ठ हैं
जग कल्याणियों की
बस गुरू तू श्रेष्ठ है ,
तू ही बना सकती
पुरुष को राम है
तू ही बना सकती
हर प्राण को
निष्काम है ၊
मुद्रा नही, जीवन है ये
जी ले जरा ,
भौतिक नही, अध्यात्म से भी
मिल ले जरा,
है,राक्षसी मुद्रा, पकड़ से
बच जरा,
ध्येय जीवन, न कि मुद्रा,
समझ जरा ၊
शान्तिमय ,आनन्दमय
आरोग्यदायी प्राण है
भौतिक-जगत-सुख
बस दुखों की खान है ၊
बुद्धि चतुर , उलझा रखे
मायाजाल में ၊
क्यूं उलझती जा रही
इस जंजाल में ၊
प्राण की सुन,
अन्तस उतर अब फिर तनिक
बन चुकी
जितना भी बनना था वणिक,
धात्री तू इस धरा की
जान तू ,
मानवों की, मान तू ,
अभिमान तू ၊
पशु बन रहे मानवो को
संधान ले ,
फिर धरा को
स्वर्ग से ऊंचा मान दे ၊
सभ्यता-संस्कृति की ,
आधार तू ,
मानवी सागर में
जीवन की ,
है, पतवार तू ၊
आंचल तेरा,गोदी तेरी
यदि खो गई
इस धरा से, मानव निशानी,
फिर तो जानो, खो गई ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक २४.०१.२०
इन्दौर से जबलपुर यात्रा
ओव्हर नाइट एक्स०
अधूरी
प्रथम पाठशाला
सभ्य नागरिक अथवा मुद्रा राक्षस
कुटुम्ब के लिये एक व्यक्ति का
ग्राम के लिये एक कुटम्ब का