गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

जड़ से जो उखड़े

जड़ से जो उखड़े

 जड़ से जो उखड़े,तो जाओगे कहां 

पत्तों के सहारे, ना बसेगाआसियां ၊


तनोगे कैसे ,तने के बिना
बिन शाख कैसे होगी जीविका
अभी जो हरे हैं कल पीत होंगे
ले जायेगा पतझड़ हर इनके निसां ၊

जड़े सींचती है पोषक रसों को
पोषित सदा, फूलता औ फला है,
जड़ों के बिना, त्रिशंकू बनोगे
न दे सकोगे कोई, पग के निसां ၊

जड़ों से जुड़े जो पाओगे पोषण
हरितिमा लिये लहराओगे सदा
प्राणसंचरण ले ,छांव पा जायेंगे
सहेजेगी धरा भी तेरा आसियां ၊

जड़ से जो उखड़े,तो जाओगे कहां
पत्तों के सहारे, ना बसेगाआसियां ၊


उमेश श्रीवास्तव
नव जीवन विहार कालोनी
विन्ध्य नगर
दिनांक : ०९ . ०३ . २०२१

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

चन्द शेर

चन्द श़ेर

१. है मोहब्बत जो फिक्र करते तुम्हारी
नही तो हमें फिक्र खुद की भी नहीं है
२. ना समझी हमें तू, न बातें हमारी
खता कर रही ये अदू  अब तुम्हारी । ( अदू /अदा)
३. उन्हे तो मजा आ रहा जिन्दगी का
उन्हे क्या फरक कोई गुमसुम है कहीं पर
४. सर्दियों की गर्मियां जिस्म घायल करें है
लाख कोशिश करो खूं जमता नहीं है ।
५. शोखियां जो हैं उनकी खंजर सरीखी
काट देती जिगर पर, न लहू वो निकालें
६. हुश्न पर चढी गर, इश्क की चासनी तो
जमाने सम्हलना , आग लग जायेगी
७. इश्क तो जला है बन पतंगा सदा
 न फुरसत समा को , रौशनी बाटने से

उमेश श्रीवास्तव

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

जीवन ,सच क्या ?

कितना मुश्किल होता है
सच को 
सच साबित करना

अभी
सुबह जग कर
परदे सरकाये
सुनहली धूप 
बिखरी दिखी चहुं दिश
किरणों संग 
गरमाहट का बाग
फुटहरी कलियां ले
गलीचे का रूप धरे
कदम तले
नरम हथेली से 
सहलाती सी
उन्माद जगाये
आंगन में फुदकती 
चिड़ियो की चुक चुक
मीठी मीठी स्वर लहरी
शीतलता का 
अहसास जगाती
मधुर बयार संग
अन्तर मन को भी
उष्मता बांट रही थी ၊
मन सधता सा
अध्यात्म जगत की ओर
साधना पथ पर
बस बढ़ने को था ၊

पर शायद
यह मेरा भ्रम था
यथार्थ नही
क्यों कि 

उसने आ कर
उन्मादित स्वर में कहा
क्या मौसम है !
रिमझिम रिमझिम
गिरता पानी
बादल का संग छोड़
हम से संगत जोड़ रहा है 
देखो चहुं दिश
धुआंधार सा पसरा
जलकण
शीतलता का अहसास कराता
तन मन दोनो
भिगो रहा है
चिन्तन में भी
अपनी स्मृतियां
गोभ रहा है  ၊
पग तल में
छप छप राग
अन्तस तक झंकारित
लिपट नाचने को
अंग अंग
फड़के 
उष्म हो चुकी 
रक्त वाहिनियां
उन्मादित
तन मचले आलिंगन को
तड़ित कौंधती
हर विचार में
ज्यूं रवि रश्मियां
अपनी कमशिन काया के
अंकों में भर
उष्मा से भर रही 
चहकते नभचर
संगीत मिलन का
छेड़े देखो
कहां तुम खोये
यह मिलन बिन्दु
आत्म प्रकृति का
आओ कुछ आज यहां हम बोयें ၊

क्या सच है ?
बिचर रहा इस माया वन में
बिचार रथी बन
अपने रथ पर
इन्द्रियों का अश्व 
भाग रहा है
रथी अश्वों को 
बस देख रहा
ना साध रहा है ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
नव जीवन विहार विन्ध्य नगर
सिंगरौली
दिनांक : ०९ . ०३ . २०२१








मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

अबूझ आकांक्षा

 अबूझ आकांक्षा

 

उत्कंठा
मुक्ति के ,
अनुभूति की
भटकाती सदा ၊

यह प्रकृति है,
मायावी ၊
रची ब्रम्ह की ၊
आलिप्त करती सदा,
हर कण के
कणों को भी ၊
निर्लिप्त केवल
ब्रम्ह ၊

मुक्ति
स्वातन्त्र है ,
गेह से ၊
इन्द्रियों से ,
पंचवायु से ,
मन ,बुद्धि, दंभ से
आधीन जिनके
उत्कंठा पालता ,
प्राणी ၊

अनुभूति
अन्तस का
नाद है ,
निःस्वर
भेदता है
हर क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ को
कर सके प्रवेश
विरला इस
गुह्य क्षेत्र में
जो रचता ब्रम्ह है ၊

मुक्ति स्वरूप ,
ब्रम्ह बनने की चाह,
युगों से,
देती रही धरा पर,
अबूझ प्राणियों के,
झुण्ड के झुण्ड ၊

कुछ देवत्व पा
इठलाने लगे
कुछ विदेह बन
इतराने लगे
कुछ दानवों के रूप में
निर्मोहिता का
नग्न नृत्य
धृ पर चतुर्दिक
दिखाने लगे ၊
पर हो सके ना
निर्लिप्त ,
मुक्ति का प्रथम पग ၊
डूबे आकण्ठ,
मायावी सरोवर
नीर में ၊

निर्लिप्तता
यूं कि ज्यूं
पुण्डरीक ၊
कीचक और
जीवन सार जल से भी ,
मुक्तता का
कराता आभास
उसमें ही आकंठ डूब ၊

रहा सदा
अति दुरूह
पग उठाना
प्रथम ၊

आकांक्षाएं, अभिलाषाएं
चाहे जितनी पाल लो
दहलीज से
बाहर निकलने को ,
यदि कोई उद्धत न हो,
क्या करेंगी
उत्कट ईप्सा
यदि पगों को
मंजिलों की
चाह न हो ၊

मायावी ऐश्वर्य
जाल ,
फंसा रखता सदा
गेह, मन ,बुद्धि को ၊
आत्म तत्व से विलग
सुख सागरी जल में
तिरते हम,
बस सोच कर मुक्ति के
आनन्द को,
पालते, लालसा का
भ्रूण हैं ၊
और भौतिक सुखों की चाह में
करते निरन्तर,
भ्रूण वध ၊
मुक्त कर स्वयं को
स्वच्छन्द बन ၊

उमेश , इन्दौर, दिनांक ४ - ५ . ०९. १९


सद्‌ तप

अग्नि दहकती मार्तण्ड मध्य जब
तब  पहुचाता  शीतलता शशि है
अनल वेग से तपता वारिधि जब
तब शीतल कर पाता  वारिद है ၊

तरल,सरल बन,जलता बाती में
दीप, तिमिर तब दूर करे,
अग्निदग्ध हो माटी तपती,
तब वसित, नगरों को वो करे ၊

अतुल्य दाह व पीड़ा सहती
प्रसव जगत तब करती प्रसू
वक्ष स्थल पर दारक हल सह
जग पोषण करती मां भू ၊

सदकर्मों का ताप बढ़े जब
सदगति तब ही देते हैं वसु ၊
सदकर्म करो तप से भी तपो
भयहीन बनों संग हैं जो प्रभू ၊၊

उमेश श्रीवास्तव
केराकत जौनपुर प्रवास
दिनांक २४.१२.२०२०


सोमवार, 21 दिसंबर 2020

पूरी कायनात है मेरा आशियां

गुलजार साहब की  रचना का जवाब देने का प्रयास किया है ,
 यदि पसन्द आये तो दो शब्द अवश्य चाहूंगा : -

पूरी कायनात है मेरा आशियां
घर में गुमसुम यूं बैठूं , जरूरत क्या है

लाख कातिल हों जमाने में यारों
दूर यारों से रहूं !
ऐ जिन्दगी तेरी जरूरत क्या है 

सच कहा , है, बाहर की हवा कातिल
बैठूं घर में !
ऐ मेरे रहनुमा, फिर तेरी जरूरत क्या है

नेमत है जिन्दगी, ये जानता मैं भी
घर बैठ बेज़ार करूं !
फिर इसकी जरूरत क्या है 

दिल बहलाने के लिये न जियो घर में
गलियां सूनी रहें ?
ऐ जिन्दगी , फिर तेरी जरूरत क्या है ?

उमेश श्रीवास्तव
केराकत, जौनपुर प्रवास
दिनांक २१.१२.२०२०

रविवार, 20 दिसंबर 2020

सद्पथ

सद्पथ

 

अज्ञात , ज्ञात हो

भूत बन रहा
जिस क्षण को हम 
भोग रहे
प्रारब्ध बन रहा
हर कर्म हमारा
नव भविष्य निर्माण हेतु ၊


उत्साह,उमंग
प्रेम-तरंग
यदि
हर क्षण की ये
थाती हो
हर कर्म हमारा,
ईंट व गारा,
नव आगात
कल्याण हेतु ၊

आज सींचते 
जिन बीजों को
कल के वृक्ष वही होंगे
क्या बोओगे
बबूल बीज तुम ?
आम्र कुंज 
पहचान हेतु ၊

प्रेम धरा है
कर्म बीज है
उत्साहपूर्ण सदकर्म
करो ,
रश्मि रथी बन
अंध पथों में
प्रेम प्रभा
आह्वान हेतु ၊

उमेश श्रीवास्तव
दिनांक २२.१२.२०२०
केराकत , जौनपुर प्रवास




गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

ग़ज़ल. करते हो प्यार कितना अहसास कराइये

ग़ज़ल

करते हो प्यार कितना अहसास कराइये
गुल बन ना बैठिए, ज़रा, खिल तो जाइए

जल जाएगा ये दिल, जो रीते रहे जलद
बरखा की बन बदरिया, ज़रा , झूम जाइए

सब कुछ किया हमने,मगर,जगा सके न हम
खुद अपने प्यार को ज़रा, अब तो जगाइए

तुमको हंसाने के लिए रोना हमे क़ुबूल
मेरे लिए भी ज़रा , कुछ कर दिखाइए

लुट जाएगी बगिया मेरी , यूँ जी न सकेंगे
जां मेरी जानम मेरी , कुछ जान जाइए

टूटते बिखरते रहे अब तलक तो हम
कुछ सुकू मिले मुझे , दामन बिछाईए

करते हो प्यार कितना अहसास कराइये
गुल बन ना बैठिए, ज़रा, खिल तो जाइए

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

रविवार, 13 दिसंबर 2020

ग़ज़ल. कहाँ से चला था कहाँ आ गया हूँ

ग़ज़ल
कहाँ से चला था कहाँ आ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ

इधर भी उधर भी नज़ारे नहीं अब
नीचे ज़मीं ऊपर सितारे नही अब

दिल तो है बच्चा, मगर खो गया मैं
कशिश में किसी की हूँ सो गया मैं

ना भूला हूँ बचपन के खेलों की दुनिया
ना भुला हूँ अरमां तमन्ना की दुनिया

वो गलियाँ अभी भी रूहों में रची हैं
लटटू की डोरी उंगलियों में फसी है

बिखरी है अब तक वो पिट्टूल की चीपे
डरी थी जो गुड़िया उसकी वो चीखें

वो बारिस की, कागज की किश्ती हमारी
चल रही बोझ ले अब भी जीवन की सारी

वो अमवा की बगिया वो पीपल की छइयां
नदिया किनारों की वो छुप्पम छुपैया

सभी खो गये हैं उजालों में आ के
तमस की नदी के किनारों पे आ के

वो माँ की ममता भरी डाट खाना
आँखों से पिता की वो तरेरा जाना

कमी आज सब की खलती हमे अब
गुम हो गये इस भीड़ में हम जब

ये तरक्की ये सोहरत ये बंगला ये गाड़ी
वो माटी के घरोदे वो पहिए की गाड़ी

बदल लो इनसे सभी मेरे अपने
नही चाहिए छल भरे, छलियों के सपने

न लौटेगा अल्हड़ वो बचपन हमारा
सफ़र है सहरा, है सीढ़ियों का  सहारा

आँखो ने सहरा के टीले दिखाए
जहाँ है दफ़न मेरे बचपन के साए

चलता रहा छोड़ बचपन की गलियाँ
सकरी हो चली हर ख्वाहिशों की गलियाँ

अब  तो यहाँ दम घुटने लगा है
नई ताज़गी से साथ छूटने लगा है

भटकते भटकते कहाँ फँस गया हूँ
कफस में जाँ सा धँस मैं गया हूँ

कहाँ से चला था कहाँ आ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर दिनांक २८.०६.२०१६


शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

एक शेर के जवाब में दो शेर

मुसाफ़िर शायरी में ये शेर पढ़ा किसका है न मालूम

हमे अपना इश्क तो एकतरफा और अधूरा ही पसन्द है..
पूरा होने पर तो आसमान का चाँद भी घटने लगता है...

जबाब देने को  कीड़ा कुल बुलाया, नज़र है तो जवाब दो शेरों से दिया

१.  चांद आसमां में , न घटता बढ़ता
     बस देखनें का अंदाज बदल देती है तू ၊
     इश्क इक तरफा ..? है फितूर
     पूछ देखो,पथ्थर में आग लगा देती है तू ၊

क्योंकि : - 

२. कदर - ए- इश्क आती कहां है हुश्न को 
     खुद़ पर गुरुर करता रहा है आज तक ၊
     इश्क पूरा कहां है हुश्न बिन
     सबब सदियों से रहा इक तरफा - ए- इश्क
.
प्रयास सही था या नहीं ..? कदरदानों से दाद का इंतजार होगा ।

उमेश श्रीवास्तव

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

दो शेर

                       १
वो लिखते हैं लिख कर मिटा देते हैं ,
न जाने क्या है जो दिल में छिपा लेते हैं ၊
                            २
ख्वाब फूल हैं , न छिपा किताबों में तू
ज़र्द हो, दर्द की, दास्तां सुनने को ၊
 
                            उमेश ... ८.१२.२०

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

प्रेम नहीं होता तन से, यह मन की थाती होती है ,
स्नेह तरल घृत साथ रहे, तन जलती बाती होती है ၊

उमेश : ९.१२.२० शिवपुरी

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

दो शेर

                       १
वो लिखते हैं लिख कर मिटा देते हैं ,
न जाने क्या है जो दिल में छिपा लेते हैं ၊
                            २
ख्वाब फूल हैं , न छिपा किताबों में तू
ज़र्द हो, दर्द की, दास्तां सुनने को ၊
 
                            उमेश ... ८.१२.२०

रविवार, 29 नवंबर 2020

शेर-वो-शायरी

१-इश्क को हद में बांध कर कोई कहे
डूब जा तू दर्द -ए-गुबार में

२-तूने यूं भिगोया मुझे अपनी इश्क  की बून्दो से ,
इस तरह तर हूं अब सूख जाऊं मुस्किल है।

३-जान के जाने का मंजर क्या होगा
तुझसे दूर होते ही जान लेता हूं।

४-तूने दीदार जो कराया जल्वा-ए-हुश्न ,
हूं अब तलक खोया हुआ तेरी रूह में हूं ।

५-है रुह को बस तेरी ही तमन्ना
तेरे जल्वे को बस देखता ही रहूं
मेरे सामने यूं ही बैठी रहो तुम
जिन्दगी भर यूं तुम्हे बस तकता रहूं

 ६-थी तमन्ना तुम्हारी शायरी में ढलो तुम
अब हर लफ्ज शेर का है तुम्हारे लिये

७-यूं न मचला करो जरा सम्हला करो
ये शुरूआत है इंतहां ये नहीं

८-तेरी आरजुओं से बन्ध गया हूं मैं
अब तमन्ना यही बस रिझाती रहो

उमेश श्रीवास्तव

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

चन्द भाव दिल के

               चन्द भाव दिल के             
                          १
होता तो है दर्द उन्हे भी जो दर्दो में ही पलते है  
 बेदर्द बन किसी को यूँ दर्द दिया ना करो ၊
                           २
सोचा था दूर होकर मैं भी  करूँगा याद
पर क्या करूँ की तुम तो दिल मे बसे हो मेरे ၊
                          ३
मेरे कदम दर कदम इक और भी कदम है 
जो कह रहे कि साथी अकेला नही तू राह में,
राह में तू रोड़े अब लाएगी क्या ऐ किश्मत
 मेरा प्यार चल रहा जब मददगार बन कर ၊
                           ४
मैने हर राह को मखमली सा ही पाया है,                      
तेरी ही चाहतो ने हर खार को हटाया है ၊
                           ५
दिनभर की थकान ले कर पहुचा जो घर पे मैं ,
तेरी इक तब्बस्सुम ने हर दर्द हर लिया ၊
                            ६
चुपके से तुमने भर दी गागर ऐ जिन्दगी
थोड़ा खाली जो रखती गागर,जान तो पाता क्या पाया है ၊.....

रविवार, 8 नवंबर 2020

शनिवार, 7 नवंबर 2020

प्रेम तृषा

 प्रेम तृषा

 

प्रेम तृषा क्यूं व्याकुल करती,

इस पड़ाव पर आ कर भी ၊

जीवन रीता क्यूं लगता है ,
सुख सागर को पा कर भी ၊

जीवन सरिता का पावन जल,
सदा पोषता रहा मुझे ၊
रिक्त व्योम सा अन्तस मेरा,
रहा वही सब पा कर भी ၊

रति प्रतीक्षा रही सदा ,
मलंग,मदन से  जीवन को ၊
पर,हर काया में, प्रेम, रिक्त पा,
खोया सब कुछ पा कर भी ၊

चाह रही, निर्झरणी काया,
अन्तस तक भीग रहूं  ၊
प्रेम सुधा में डुबो दे मुझको,
खो दूं खुद को पा कर भी ၊

अब तक सोच यही थी मेरी
खुद मुझको वह ढूढ ही लेगी,
शीतशुष्क स्वांसो को अब भ्रम
पहचान सकूं ना ! पा कर भी ၊


उमेश: ०७.११.२०
शिवपुरी



शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

दीपावली शुभ कामना संदेश

दीप शिखा की, बन रश्मि मनोरम
तम दूर करो हर हर जर जर
हर ताप हरो, सन्ताप हरो
हर प्राण करे हरि हर हरि हर ၊

स्वदीप बनो, विकार गरल बाती तन कर ၊
घृत आत्म तरल, सिंचित  बाती
उजियार करो , जल,जग कण कण को ၊
मार मरा कर ना जी तू , राममयी कर जीवन को ၊

उमेश श्रीवास्तव , नव जीवन विहार कालोनी , विन्ध्य नगर ,सिंगरौली , 07.11.2018 ।


बुधवार, 4 नवंबर 2020

मुक्तक

प्यासा हूं सरि तीर मैं
तकते हुए नीर 
जलता हुआ जिगर
पर, होती नही है पीर ၊ 
. .उमेश

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

मन




         (1)

मन में ही तो तपन है
मन में ही है छांव
ढूढ़ सके तो ढूढ़ ले
कहां है उसकी ठांव ၊
         (2)
रमे रहे, मन में रहे 
प्रीत,प्रेम औ रार
प्रीत, प्रेम आनन्द है
रार टूट का द्वार ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक  : ४.११.२०

सोमवार, 2 नवंबर 2020

दीपावली की सभी को शुभकामनाएँ

दीपावली की सभी को शुभकामनाएँ  

नव दीप जलें हर आँगन में
नव जीवन के स्पंदन के

हर मन में उजियारा हो
जग पे छलकता सारा हो
मिट जाए अंधेरा इस जग का
इक ऐसा चमकता तारा हो
हर आश बँधे विश्वास बँधे
इक दूजे के अभिनंदन से

नव दीप जलें हर आँगन में
नव जीवन के स्पंदन के
                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

मेरे विचार २८.१०.२०

मेरे विचार

प्रश्न : भावना शून्य की स्थिति क्यों और कब होती है? इस स्थिति का मतलब क्या होता है सर?

उत्तर : भावना क्या है पहले यह जाने
जब किसी व्यक्ति वस्तु या स्थान से लगाव उत्पन्न हो तो मन चिन्तन उससे जुड़ जाता है तो भाव उसके प्रति जगता है उसके हर अच्छे बुरे पहलू को हम चेतना से जुड़ अपना मानने लगते हैं उसका हर सुख दुःख हमे खुशी या दुःख देता है मन की यह दशा ही भावना है ၊
भावना शून्य हुआ ही नही जा सकता,
भाव न जगना पाषणता की निशानी है जहां प्राण है वहां पाषाण नही हो सकता और प्राणवान भावना शून्य नही हो सकता हर प्राण के स्पन्दन में भाव है ၊

प्रश्न : तो मनुष्य पाषाण कब हो जाता है ?

जब मानव के अन्दर का सब सरस भाव सूख जाये
रस का अभाव पाषाण बनाता है ၊
सरसता जीवन है, शरीर के हर अंग से रस बहाना जिससे जग कण कण सरस होता रहे ,जीवन का मूल है ၊

प्रश्न :  हूं, और रस का अभाव  कब और क्यों होता है ?

जब हम जान बूझ कर रेगिस्तान में अपने जीवन रस को बहा दें जहां रस का अजश्र श्रोत है उसको अनदेखा कर ၊
प्रश्न : तो क्या हमारा स्वयं का भावना शून्य होते जाना यह दर्शाता है कि हमारा प्रेय रेगिस्तान है ?
उत्तर : जीवन रस भाव है जिससे भावना बनती है यदि भाव किसी के प्रति जगे रस प्रवाहित हो उस दिशा में भावना की लहरें उठें ,वे लहरें नौ में से किसी भी रस तरल की हो ,उसके तक पहुंचे और फिर लुप्त हो जायें बिना किसी परिणाम तो हां वह रेगिस्तान है , पर उस तक भावना की लहरों का पहुंचना आवश्यक है , अन्यथा वह रेगिस्तान नहीं है वरन स्वयं में ही कहीं रेगिस्तान बना है जो स्वयं की भावना का शोषण कर रहा है ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी , २८.१०.२०


जीवन तृषा की तृप्ति

जीवन तृषा की तृप्ति

स्वाती बून्द मिली कब किसको ?
पपिहा सम, तड़प, जगे तन जिसको
तन मन जरे , हिय अगन तपन से
तृप्त करे , तब , जलधर आ उसको ၊

है बून्द वह रसराज की ,
पर खोजती तपता बदन ,
तृप्त करती बस उसे ,
करता उसे जो, सब समर्पण ၊

प्यास बुझती ही रही
जग प्यास में चलता रहा
है मलंग जो, नेह में
बस तृप्त वह होता रहा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी , २८.१०.२०

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

मेरे विचार

मेरे विचार

*भावना शून्य की स्थिति क्यों और कब होती है? इस स्थिति का मतलब क्या होता है सर?*

भावना क्या है पहले यह जाने
जब किसी व्यक्ति वस्तु या स्थान से लगाव उत्पन्न हो तो मन चिन्तन उससे जुड़ जाता है तो भाव उसके प्रति जगता है उसके हर अच्छे बुरे पहलू को हम भावना से जुड़ अपना मानने लगते हैं उसका हर सुख दुःख हमे खुशी या दुःख देता है मन की यह दशा ही भावना है

भावना शून्य हुआ ही नही जा सकता


नहीं सर मेरे साथ बहुत होता है जब मैं भावना शून्य हो जाती हूं

भाव न जगना पाषणता की निशानी है जहां प्राण है वहां पाषाण नही हो सकता और प्राणवान भावना शून्य नही हो सकता हर प्राण के स्पन्दन में भाव है

To मनुष्य पाषाण कब हो जाता है

जब उसके अन्दर का सब सरस भाव सूख जाये

रस का अभाव पाषाण बनाता है

सरसता जीवन है शरीर के हर अंग से रस बहाना जीवन का मूल है

हूं ,और रस का अभाव  कब और क्यों होता है ?

जब हम जान बूझ कर रेगिस्तान में अपने जीवन रस को बहा दें जहां रस का अजश्र श्रोत है उसको अनदेखा कर ၊

जीवन रस भाव है जिससे भावना बनती है यदि भाव किसी के प्रति जगे रस प्रवाहित हो उस दिशा में भावना की लहरें उठें ,वे लहरें नौ में से किसी भी रस तरल की हो ,उसके तक पहुंचे और फिर लुप्त हो जायें बिना किसी परिणाम तो हां वह रेगिस्तान है , पर उस तक भावना की लहरों का पहुंचना आवश्यक है , अन्यथा वह रेगिस्तान नहीं है वरन स्वयं में ही कहीं रेगिस्तान बना है जो स्वयं की भावना का शोषण कर रहा है ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव



शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

विजयादशमी

विजयादशमी

विजयी हुए थे राम मगर,
वह युग त्रेता बीत गया ၊
दुर्गुण पर्यायी रावण तो
इस युग में आकर जीत गया ၊

हर प्राण हुआ है रावण अब
जो बचे रहे वे रीते हैं ,
सुख बांट रहे हैं रावण अब 
राम तो रीते रीते हैं ၊

खलनायक नाहक रावण  है
हर नायक आज दुर्दान्त यहां ,
था चरित्रत्रयी का, वह अधिनायक
हैं दुष्चरित्रता से ये निष्णान्त यहां ၊

पुतलों पर भले ही चेहरे हम
रावण के आज सजाते हैं ,
राम मुखौटे पहन पहन
रावण का दहन कराते हैं ၊

गौर से जो देखें हम अन्तस
तो रावण को वहां सजाये हैं,
पुतलों में रावण के भीतर
हम ,राम को आज बिठाये हैं ၊

हम विजय कर रहे सुर जन पर,
दुर्जन की जयकार लगाते हैं ၊
विजयादशमी को हम सब मिल,
यूं राम दहन कर आते हैं ၊

यदि यूं ही हम विजयी होते
हर सुर का हनन करायेंगे ၊
फिर ,वह दिन दूर नही साथी ,
हम रावण दिवस मनायेंगे ၊

अब तो जागो हे भारत,
स्वचरित्र सन्धानों तुम  ၊
रावण के अच्छे गुण अपना,
अपने रावण को संहारो तुम ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,दिनांक ०८.१०.१९ विजयादशमी , पुरी , उड़ीसा

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

गज़ल

 गज़ल

 

ना जाने क्यूं जिन्दगी, बे-साज लग रही

कुछ तो कमी है जो, बे-आवाज लग रही ၊
हूं भीड़ में अकेला , है  माज़रा ये क्या
सब की नज़र है मुझ पर, नज़र बेआवाज लग रही ၊
सबा-ए-मुंतजर से, घुलती ये जिन्दगी
है मुंतज़री ये किसकी ,अनजान लग रही ၊
रग रग में घुल गई है, अहसास है जगा
जान-ए-हया है कौन ? बे-पहचान लग रही ၊
कब तक घुटूं उसके मुंतज़र में मैं
जो प्यार की प्यारी सी परीजान लग रही ၊

उमेश , इन्दौर, २८.०९.२०

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मेरा अन्तस

 मेरा अन्तस

 

दो सरिताएं बहती ,

मेरे अन्तस में ,
निर्मल , निर्झर
स्निग्ध नीर की ,
अकूत राशि ले ၊

अन्तस मेरा
सदा रहे ,
भीगा - भीगा सा
पर अह्रलादित
मन्द मन्द मुस्कान लिये
दोनों सरि के
सुरभित तट पर ၊

इक सरि की धारा
काम भरे ,
आपूरित मन
मोहनी मूरत संग
भटक - भटक रसपान करे ,
जगति धरा के
लावण्यमयी हर कृति से
अद्वैत मान
अमूर्त रुप में ၊

भ्रमर सदृष्य मन
उड़ चलता
उन्मुक्त गगन में
कली कली से
गुपचुप गुपचुप
स्नेह चुराता
बिन ठेस लगाये
उसके मन को ,
मुकुल बना
पुष्पित कर देता ,
आह्लाद जगा ၊

हर में स्व को
स्व में हर को
आभासित करता
प्रेम सरि की 
किंचित बून्दो से ,
भिगो भिगो कर
हर इक मन के
प्रेम तृषा को
पग दे जाता 
बढ़ जाने को ,
प्रेम पथिक बन
तृषा तृप्त कर आने को ၊

दूजी सरि की
स्निग्ध जल राशि
आत्मक्षेत्र के 
उद्‌गम स्थल से.
हर हर कर
हहराती
पर शोर नहीं
नाद नहीं
निःशब्द
सभी, बहा ले जाती ၊

समतल, समरस
मृदु धारा,
है जिस पर विस्तृत
इस नद की बून्दे,
आभास उसे ही,
जो बाह्य जगत से
है आंखे मूंदे ၊

जब जब मैंने
तन मन चिन्तन को,
इस जल कण में
है,घोल दिया,
अदृष्य सुरसती (सरस्वती) बन,
संगम सुख को
तब भोग लिया ၊

इसकी जलधारा
सुसुप्त कराती,
मन चिन्तन को
उपनिषद कराती,
निकट ब्रम्ह के,
खो जाने को 
विराट पुरुष के
अनन्त रूप में
घुल जाने को ,
दृष्य जगत के पार अदृष्य से
एकाकी हो ,
मिल जाने को,
विस्तार स्वयं का 
पा जाने को ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक २५.०९.२० ၊


बुधवार, 23 सितंबर 2020

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,

आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

अनामिका

अनामिका

स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

अनामिका

अनामिका

स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,

आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरे विचार

                         मेरे विचार

   जीवन के सभी मंत्र अध्यात्म हैं जो प्राणी मात्र के जीवन को सरल सरिता सा निर्वाध बहते हुए सागर में समाहित होने की राह दिखाये, शेष सभी नश्वर भौतिक मोह माया ၊अध्यात्म कोई गूढ़ या अज्ञेय विधा नहीं है वरन सब से सरल , जन्म से ही जीव के साथ जुड़ी विधा है जिसे मानव अपनी बढ़ती आयु के साथ भौतिक जगत की ओर आकर्षित होते हुए छोड़ता जाता है और जीवन को स्वयं गूढ़ बना अध्यात्म को अबूझ व गूढ़ समझने लगता है ၊ अन्यथा शैशव व बाल पन के जीवन के व्यवहार की ओर दृष्टिपात कर देखें वह सरल है या गूढ़ ?वही अध्यात्मिक जीवन है ၊ इस भाव को अध्यात्मिक भाषा में  तटस्थ प्रेक्षक भाव कहते हैं , जिसमें न कोई अपना होता है न पराया यहां मैं या मेरा भी नहीं होता ၊यही भाव मानव को शान्त, निर्मल व आनन्द मय बनाता है ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर २२.०९.२०

बुधवार, 16 सितंबर 2020

मुक्तक

है कस्ती वो कागज की
जो सैलाबों में भी नही डूबी
कई दरियायी बेड़ों को
किनारों पर है डूबते देखा ।

उमेश
२०.०९.२०


रविवार, 13 सितंबर 2020

हमें इतिहास रचना है

हमें इतिहास रचना है
नया इतिहास रचना है

नई  है आज पीढ़ी भी  , नया है ज्वार खूनो  में
नया उत्साह ले कर के नया कुछ खास लिखना है।

अभी तक थी गुलामी की बची सिसकारियां दिल में
उन्हें उन्मुक्त सासें दे दिलो पर हास  लिखना है।

उन्होनें  तुष्ट कर कर के दिलो को बाँट डाला  था
सभी को साथ ले बन्धू , सभी को साथ दिखाना है।

हमारा धर्म है सहिष्णु हमारा कर्म है सहिष्णु
दिलो में आज सबके ही यही बस पाठ लिखना है।

हिन्दू सिक्ख ईसाई  मुस्लिम पारसी सारे
हिन्दुस्तान  है अपना ,हिन्दू हैं सभी न्यारे।

तभी तो आज सबको मिल, सभी को  साथ दिखना  है
हमें इतिहास रचना है नया इतिहास रचना है

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

कब तक बलिदानों की भाषा

कब तक बलिदानों  की भाषा
हम से बुलवावोगे   ?
कबतक त्यागों  की आशा ,
बस हममें ही पाओगे ?

कब तक एक जून की रोटी में भी
बचत हमें सिखलाओगे ?
कब तक अधनंगे  तन से , चीर ,
चीर , ले जाओगे ?

कब तक दानी कहलाने का हक़ ,
 बस, हमको दिलवावोगे ?
कब तक ज्वरित कांपते तन से
सकल बोझ  ढुलवावोगे  ?

बलिदानो का आह्यवाहन उठाने वालो
ऐ त्यागो की आश लगानें वालो
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर
जब स्वयं  इन्हें अपना दिखलाओगे

ऐ पञ्च सितारा संस्कृतियो में पले  बढे
हो तुम तो चर्बी बोझ तले दबे पड़े
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर ?
दूजो के हित , जब बचत तुम्ही दिखलाओगे

हम तो वंशज दधीचि  के कहलाते
तुम भी कर्णधार हो राष्ट्र भूमि भारत के
जब लेते अस्थि हमारी धरणी उद्धार हेतु
फिर तुम कब , कर्ण बन दिखलाओगे

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

समर्पण
पूर्ण समर्पण
इक दूजे को
इक दूजे का
अर्पण
तन-मन-चिंतन
इस जीवन से
उस जीवन का
संघर्षण
मिलन,तर्पण
दो आत्म क्षेत्र का
मधुर मिलन
बस और नही कुछ
यही है चिंतन
पाणिग्रहण  का
मधुमय बन्धन

       उमेश कुमार श्रीवास्तव

आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

कितने दिन से मैं चुप था
आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ
समय जोहता कहाँ किसी को
उसके संग भी , कुछ तो रह लूँ

रही अदावट मेरी सदा ही
नये मूल्य आदर्शों से
किंचित पल अब ,ठहर सोचता
कुछ उनसे भी गागर भर लूँ

मैं पुरुषार्थ प्रतीक बना
विपरीत लहर के चलता था
पर मुर्दों सम , संग लहरों के
क्यूँ ना, बहने का,अनुभव कर लूँ

ज्ञान अधूरा तब तक, जब तक
द्धय, तम-ज्योति, ज्ञान न होवे
निमित्त इसी के,आज पाप से
चन्द पगों का गठजोड़ न कर लूँ

नहीं कह रहा , पुण्य भूमि हूँ
हूँ पाप पुण्य से मिला बना
पर , मथमथ कर इस जीवन को
क्यूँ ना आगत उज्ज्वल कर लूँ

कितने दिन से मैं चुप था
आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

प्रेम गर्भांण्ड (बीज)

   प्रेम गर्भांण्ड (बीज)

 

नेह गुहा में प्रीत पले

अंकुर बन फिर, प्रेम जगे
करबद्ध बीज शीश झुका
अपने सारे अभिमान तजे ।

नव पल्लव अपने कर में
सारे जग का अनुराग भरे
अभिसिंचित पूरित प्रेमसुधा
जड़ को प्रेषित कर, चैतन्य करे ।

हो शुष्क मृदा या आद्र मृदा
पथरीली हो या चट्टान मृदा
बस अवशोषित कर प्रेमसुधा
वह सुरभित करता है वसुधा ।

गर्भांण्ड प्रेम,अति सूक्ष्म रहा
इन्द्रिय जगत के, परे बढ़ा
जब तक आच्छादित रही धरा
तब ही तक प्राणी चहुंओर बढ़ा ၊

जब जब रीती, स्नेह सुधा
पाषाण हुई, हर प्राणप्रभा
रणभूमि बनी फिर फिर वसुधा
विचलित,जीवन की सारी विधा ၊

हर मे पोषित बस प्रेम करो
हर पग पर वृन्दा धाम करो 
रसखान बनो रणवीर तजो
हर जीवन राधे-श्याम करो  ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक : १५.०९.२०
इन्दौर









प्रेम पर दोहे

प्रेम पर मुक्तक


प्रेम रंग डूबे वही, 
जामे अनन्त को वाश ,
हर हिय में रमता वही ,
का आम का खास ।


हिय हिलोर के छानिये , 
नवनीत प्रेम अति मृदु ,
अंग अंग पर लेपिये , 
होये पीर विलुप्त ၊

प्रेम आश है बावरी
ना बैठे इक ठौर
सदा भटकती संग संग
मिलन कोश हो दूर ၊


प्रेम तृषा मृगलोचनी , 
भरमाये हर बार ,
तिरछे चितवन से लखे , 
जाये हिय के पार ၊

प्रेम न देखे रंग है,
प्रेम न देखे रूप,
जड़ चेतन जिससे जुड़े,
ढले उसी के रूप ၊

उमर न कोई प्रेम की
न कोई है गात
हिय मध्य जब ऊपजे
दमके दिन अऊ रात ၊ ।


उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक : १२ . ०९ . २०

रविवार, 6 सितंबर 2020

ग़ज़ल। चाहते तो थे नही कि आपको यूँ दर्द दें

ग़ज़ल

चाहते तो थे नही कि आपको यूँ दर्द दें
क्या करें ज़ज्बात-ए- दिल हम बयां कर दिए

अर्जमन्द आप है नाज़ुक जिगर है आप का
अजनबी की बात पर यूँ आप हैं रो दिए

है अजब हाल ये मेरे लिए ऐ नासमझ
आईना खुद आज अपना अक्स है दिखा दिए

ऐ हवा थम जा ज़रा आँचल न उसका यूँ उड़ा
मासूक ने मेरे लिए अश्क हैं बहा दिए

क्या करें हम इल्तिजा आज़ाद इक परवाज़ की
सैय्याद ने पर काट के फिजाओं में उड़ा दिए

ऐ सनम सब्र कर टूटा नही ये दिल मेरा
वो हैं हम जिसने किर्चों से ताज बना दिए

आब-ए-तल्ख़ ये तेरे मरहम बन के आए हैं
जो जमाने ने थे दिए वो जख्म सारे भर दिए

ना तनिक गमगीन हो मुस्कुरा दो अब ज़रा
ये जमाना छोड़ दो अब आह भरने के लिए

आब-ए-तल्ख़ :  आंसू,  :  अर्जमन्द : महान

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,०७.०९.२०१६

ग़ज़ल: आपको हमने कहा

ग़ज़ल: आपको हमने कहा

आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये
इश्क की इस राह में , पहले कदम घबरा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

यूँ तेरी अर्ज़ तो , आगोश में, आने की है
पर हया-ए-रुख़ से तुम ,खुद से ही शर्मा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

है कली जो दिल में तेरे ,लब पे वो जल्वा चाहती
जुल्फ को रुख़ पर गिरा, क्यूँ उसे भरमा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

ये तेरी सांसो की सरगम, कर रहीं मदहोस हैं
इन पे पहरा क्यूँ बिठाया, हो तिश्नगी बढ़ा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

छोड़ दो  हया ये अपनी,लब ज़रा अब खोल दो
हीर-रांझे की गली में, यूँ ही नही तुम आ गए
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,०७.०९.२०१६

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

" तुम "

" तुम "

अल्हड़ निर्झरणी की धारा सी
मेघ घनेरी बन उठती तुम
मेरे तन मन के आंगन को
स्नेहिल शीतल कर जाती हो ।

पुष्पित, सुरभित वन बयार सी
अन्तस तक गमकाती तुम
मेरे तन के हर श्वासों में
अबूझ चेतना भर जाती हो ।
 
मुकुल ,कली से पुष्पित सी
कोमल भाव जगाती तुम
अरूण रश्मि सी, भेद मुझे
आनन्द मग्न कर जाती हो ।

झंकृत वीणा की ध्वनि सी
अन्तस ऋचा जगाती तुम
भाव जगत की ज्योति जला
साम गान कर जाती हो ।

अदृष्य जगत की प्रभापुण्ज सी
अलौकिक जगत सजाती तुम
मेरे हर तम को, हर , हर कर
हरि , हर नाद सुना जाती हो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक ०६. ०९ . २०

गजल၊ आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं

गजल

आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो, गुनगुना क्यूं न लू।
आपकी शोखियां मदहोश कर गई
सोचता हूं बे-वजह मुस्कुरा क्यूं न लूं।

हूं जानता आप मेरे नहीं, 
इस दिल में आपके बसेरे नहीं
मानते पर कहां दिल के जज्बात हैं
इक घरौंदा तिरा मैं बना क्यूं न लूं।

आप यूं चल दिये ज्यूं देखा नहीं
रूप की धूप को चांदनी से उढ़ा
चांदनी से जला,खाक बन जायेगा
खाक-ए-बदन फिर उड़ा क्यूं न लूं।

कदमों में लिपट चैन पा जाऊंगा
गेसुओं में भी थोड़ा समा जाऊंगा
सबा से जो मदद,थोड़ी मिल जायेगी
बदन से लिपट झिलमिला क्यूं न लूं।

आपको आप से ही चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो गुनगुना क्यूं न लूं।

उमेश २८.०८.२०१६ जबलपुर

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

गजल। अय यार तेरी सोहबत में हम

गजल

अय यार तेरी सोहबत में हम 
हंस भी न सके रो भी न सके ।
किया ऐसा तुने दिल पे सितम 
चुप रह भी न सके औ कह भी न सके।

बेदर्द जमाना था ही मगर'
हंसने पे न थी कोई पाबन्दी
खारों पे सजे गुलदस्ते बन
खिल भी न सके मुरझा न सके

हम जीते थे बिन्दास जहां
औरों की कहां कब परवा की
पर आज तेरी खुशियों के लिये
खुश रह न सके गम सह न सके

हल्की सी तेरी इक जुंबिस
रुत ही बदल कर रख देती
पर आज दूर तक सहरा ये
तप भी न सके न जल ही सके

जब साथ न देना था तुमको
तो दिल यूं लगाया ही क्यूं था
यूं दम मेरा तुम ले हो गये 
ना जी ही सके ना मर ही सके ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०४.०९.१६

बुधवार, 2 सितंबर 2020

ग़ज़ल अहले दिल की तेरी दास्तां ,

ग़ज़ल

अहले दिल की तेरी  दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई
कुछ और पिला ऐ साकिया,दर्दे दिल भी ये  बढ़ा गई

अब सुकून मुझे ज़रा मिले, कुछ तो जतन बता मुझे
तेरे रुख़ की इक झलक तो दे, न जला मुझे न जला मुझे

तेरे जाम को ये क्या हुआ, ब- असर  से जा बे-असर हुए  
लगा लब से अपने इन्हे ज़रा, इन्हे सुर्ख सा बना ज़रा 

 जो अश्क हैं इन चश्म   में, बेकद्र में न बहा उन्हे 
 अश्क-ए-हाला ज़रा, तू मिला  मेरी शराब में , शराब में

तोहमत न दे बहक रहा, मैं,तिरी महफिले जाम में
मै तो डूबता चला गया तिरी इस नशीली शाम में

वो असर हुआ है दिल पे कि, बे-असर हुई शराब भी
तेरा हुश्न तिरी वो दास्तां मेरे होश ही उड़ा गई

उमेश कुमार श्रीवास्तव,०३.०९.२०१६ जबलपुर

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मेरे विचार

       मेरे विचार 

      प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ, अपने विचार और अपने कार्य-व्यवहार को अन्तिम सत्य मान कर दूसरों से अपेक्षा करता है कि वे उसी के अनुरूप अपने कार्य-व्‍यवहार का निरूपण, निष्पादन व क्रियान्वयन करें , यही दुःख का मूल है क्योंकि वह स्वयं भी दूसरे व्यक्ति के लिये दूसरा है ၊
      इस श्रृष्ठि में मानव के अद्भव काल से मानव कार्य व्यवहार का नियमन होता आया है , हर काल विशेष में उस काल की परिस्थितियों के अनुरूप मानव के अच्छे व बुरे विचार ,आचरण व व्यवहार को परिभाषित किया जाता है उसी के अनुरूप समझ , विचार व कार्य व्यवहार मानव अंगीकृत करता है ၊
     आदि से सनातन निरन्तर वर्तमान तक, हर काल में जो आचरण , व्यवहार , विचार व कार्य उचित या अनुचित रूप में निरूपित होते आयें हैं उन पर किसी काल, स्थान विशेष या परिस्थिति विशेष का कोई प्रभाव नही पड़ा है वे ही सत्य अवधारित किये जा सकते हैं ၊ किसी काल विशेष ,स्थान विशेष व परिस्थिति विशेष में ही तार्किक बुद्धि से मानव समूह विशेष में जो आचरण ,व्यवहार ,विचार व कार्य प्रचलन में आयें हो उन्हे सत्य व प्रकृति के नियम के अर्न्तगत होना नही माना जा सकता ၊

     अतः उन आचार, विचार , कार्य व्यवहार को जो हर काल में व परिस्थिति में शास्वत रहे आयें हैं उन्हे दृष्टिगत रख अपने व दूसरों के कार्य व्यवहार व आचरण को हमे देखना चाहिए कि हम सही हैं अथवा वह दूसरा जिसे हम गलत ठहरा रहे ၊ दुःख का मूल कारण वहीं समाप्त हो जायेगा ၊ हां ऐसा करते आप को एक तटस्थ अम्पायर की भूमिका में रह मनन करना होगा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक ०१ .०९.२०२०

शनिवार, 29 अगस्त 2020

कारवाँ-ए-जिंदगी

कारवाँ-ए-जिंदगी

इक दिन अचानक
मिल गया था कोई
राह में जिंदगी के, 
यूँ ही चलते चलते
देख कर जिसे 
यूँ लगा ही नही
है अनजान वो
जिंदगी से मेरे

रूहों से रूहों की , 
पहचान थी यूँ
लगा ही नही
ना थे पहले मिले
यूँ चल पड़े ज्यूँ चलते हो आए
जिंदगी की डगर पर
यूँ ही लंबे सफ़र में

"मेरे नासमझ " को
समझ ये ना आया
मिला कौन अपना
किसे ओ है भाया

जिंदगी इस जहाँ में
बस कारवाँ है
मिलते बिछड़ते 
सौदागरों की
यहाँ कौन दिल से 
दिल जोड़ता है
मंज़िल पे आ के
छूटना साथ जब है

मै समझा सका ना
या "नासमझ" वो बने थे
आज तक मुझे ये
पता ही चला ना
हर शख्स की  अपनी
सौदागरी है, 
हर शख्स की अपनी
है पड़ाव-ए-मंज़िल

जिंदगी को है चलना
उसी राह पर है
जो जाती सदा
अबूझे मंज़िल
चलते रहेंगे बढ़ते रहेंगे
सभी के अपने 
बने कारवाँ ये

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, ३०.०८.२०१६

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

गजल၊ आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं

गजल

आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो, गुनगुना क्यूं न लू।
आपकी शोखियां मदहोश कर गई
सोचता हूं बे-वजह मुस्कुरा क्यूं न लूं।

हूं जानता आप मेरे नहीं, 
इस दिल में आपके बसेरे नहीं
मानते पर कहां दिल के जज्बात हैं
इक घरौंदा तिरा मैं बना क्यूं न लूं ।
आप यूं चल दिये ज्यूं देखा नहीं
रूप की धूप को चांदनी से उढ़ा
चांदनी से जला,खाक बन जायेगा
खाक-ए-बदन फिर उड़ा क्यूं न लूं।

कदमों में लिपट चैन पा जाऊंगा
गेसुओं में भी थोड़ा समा जाऊंगा
सबा से जो मदद,थोड़ी मिल जायेगी
बदन से लिपट झिलमिला क्यूं न लूं।
आपको आप से ही चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो गुनगुना क्यूं न लूं ।

उमेश २८.०८.२०१६ जबलपुर ၊

सोमवार, 24 अगस्त 2020

है भूल ये किसकी

क्या ये मेरा 
वही ,
चेतना का शहर है !
जो,
चहकता था अहिर्निस,
गुनगुनाता हुआ,
भटकता था हर क्षण,
गीत गाता हुआ ၊
रातों में भी 
जिसे,
सोना न आता
दर्द , चाहे हो जैसा
रोना न आता ၊

अचंभित हूं यारो
खड़ा मैं जहां हूं
यहीं तो महफिल सजती रही थी
वीरानियों से दो-चार 
हुआ जा रहा हूं
अचरज से यहीं मैं
गड़ा जा रहा हूं ၊

ये सड़कें वहीं हैं ?
या बदल ही गई हैं ! 
या चलते ही चलते
चली ही गई हैं
वीराने में आ कर
सुस्ताती ये सड़कें
लगती तो अपनी 
पर लगती नहीं हैं ၊

न लोगों का रेला
न मोटर न ठेला
बस हवा सरसरी है
खुशबू भरी है
खगों की चहचहाहट
खड़खड़ाहट पल्लवों की
यही कह रहीं हैं
कि, कुछ तो हुआ है
ठहरा हुआ जो
हर कारवां है ၊

श्वानों को देखो
खड़े हैं अचंभित
वो इन्सा कहां है
जो करते अचंभित
नही दिख रहे सब
गये वो कहां है 
सारी धरा अब 
लगती है अपनी
ये गली भी है अपनी
ये सड़क भी है अपनी
सूनी सड़कें पर भाती नहीं हैं
गलियों से रौनक, जो आती नहीं है ၊

चमन सज रहा है
पवन सज रहा है 
जरा सा जर्जर ये गगन 
सज रहा है
धरा का नगीना 
सिसकता घरों में
उसे छोड़ सारा
वतन सज रहा है ၊
कुछ तो गलत था
हमारी चाल में ही
हमें छोड़ सारा चमन सज रहा है ၊

उमेश : इन्दौर : दिनांक ..०३.०४.२०


तलास

तलास

उस अजनबी की तलाश में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ ၊

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास ၊

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो ၊

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरों पर ၊

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालों में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके ၊

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल ၊

पर अब तक तलाश रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसे मैं जानता हूँ,
वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से ၊

जाने कब पूरी होगी मेरी तला
उस अजनबी की
..................उमेश कुमार श्रीवास्तव


चांद मेरी

चांद मेरी


ऐ चांद तू निकल जरा
आयाम पर चल जरा
देख मेरी प्यास को
सूखते अहसास को ၊

मैं तो बस चल रहा
रीता रीता पल रहा
जिन्दगी की चाह में
सुलग सुलग,जल रहा ၊

ऐ चांदनी , यूं गुमां न कर
संग आ , आह भर
तप्त हो निखर ज़रा
है दिलजले का मस्वरा ၊

कुछ भी न हूं मैं चाहता
बस प्यार का अहसास ला 
तू मुझे निरख जरा
अहसास प्यार के जगा ၊

मुझको न कोई चाह है
चाहत तेरी, इक चाह है
इक निगह बस प्यार की
जिन्दगी न्यौछार है ၊

ऐ चांद रूख बदल ज़रा
नजदीकियां तो ला जरा
मैं भी सुकून पा सकूं
बस अब जतन ये कर ज़रा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
२७.०१.२१ 
शिवपुरी



मैने देखा है ह्रदय का स्पन्दित होना
हौले हौले उसका आन्दोलित होना ।
उसका स्मित होना महसूस किया है 
अपने अधर द्वय पर,अनायास ही ।
 उसकाआना ,इसका असहज होना

मुक्तक

मुक्तक

दर्द के अहसास यूँ ना दिलाया करो  
चाँद बन मेरे छत पे यूँ ना आया करो
देगी बदल रंग शबनम, जिगर- ए- लहू लेकर
ख्वाबों मे आ तुम यूँ झिलमिलाया ना करो

 ... उमेश

सब्र करता रहा सब्र जाता रहा 
इक वजह तो रहे इंतजार की ।
वो परदा भी क्या कफन जो बने
विस्मिल दिले बेकरार की  ।.....उमेश

बुधवार, 19 अगस्त 2020

मुक्तक

मुक्तक

दर्द के अहसास यूँ ना दिलाया करो  
चाँद बन मेरे छत पे यूँ ना आया करो
देगी बदल रंग शबनम, जिगर- ए- लहू लेकर
ख्वाबों मे आ तुम यूँ झिलमिलाया ना करो

 ... उमेश

रूबाई

रूबाई
नूर चमकती आंखो की , 
रूख्सारों की दमकती ये  लाली
गेसू में झलकती, जो सांझ की मस्ती, 
लब पे जो धरी मदिरा प्याली
इनकी उमर न हो कोई, 
अजर रखे रब की प्याली
यूं ही खुशियां बरसाओ तुम
बरसे इनसे रुत मतवाली
उमेश

शनिवार, 15 अगस्त 2020

कल्पित यथार्थ

कल्पित यथार्थ
 
 
कभी कभी,
व्यक्त नहीं कर पाता , मैं
अपनी बेचैनियां,
अकुलाहटें,
जो चेतन या अचेतन में कहीं,
मथती रहती हैं
सम्पूर्ण अहसासों को,
इस त्रि-आयमी 
पंजर में मेरे ।

मैं कूर्म सा,
वहन करता,लालसाओं के 
अनन्त नग, मदरांचल को,
जो मथानी है बना,
अन्तस सगर में ।
भोगेन्द्रियों का छोरहीन वासुकी
है डुलाता मदरांचल को,
सुर कभी ,कभी असुरों कीओर ।
,
फेड़ित हुआ, रथी,
आत्म चिन्तन,
बुदबुदों सा उड़ रहा,
तल को तरसता
अतल सी गहराईयों में  ,
है डूबता जा रहा ,
खींचती हैं निरन्तर
अन्धकूप सी गहराईयां
ज्यूं रथी को ।
मोह की माया में काया
रत हुई ज्यों,
व्यक्तित्व सारा
खो रहा इस अन्धमय
ज्ञान पथ पर ।

संधानने को 
ध्येय पथ को 
नित,
तम के विवर में हूं भले
पर एकाकी नहीं
त्रिनेत्रधारी मेरा शंभु
गाहे है बाहें मेरी ।


जगति कीचक मे
लिपटा हुआ मैं,
पवन के वेग सा
बहता रहा हूं ।
ब्योम सा हो रहा
तिमिर रस पीता रहा हूं ।
मगर यह जानता
सत्य सुन्दर सदा
तिमिर को शेष कर
उझास ही फिर आयेगा
मेरा शिव साथ है जब
रवि तेज,किस तिमिर में
छिप पायेगा ।

हूं भिज्ञ,
जीवन की हर लालसा से,
मायावी चासनी से
रिझाती रहती जो सदा,
ऐसा नहीं, कि,
अनभिज्ञ हूं ,
सीमाओं से खुद की,
यही तो कारक बने हैं
अकुलाहटों, बेचैनियों की
मेरे,

चाहता हूं 
निर्लेप रहना,
विदेह बन
माया ठगी को
स्वयं ठगना,
पर ठगा जाता रहा हूं ,
स्वयं की कर्मेन्द्रियों
से हार कर,
हूं सहारे बस एक उसके
जो मेरा "हर" है,
उसके सहारे ही चला हूं,
चल रहा हूं,
अकुलाहटों,बेचैनियों
में घिरा,
मुस्कुराहटो को अधरों पर
सजाये
पल रहा हूं  ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक १९ .०८.२०२०
 



मंगलवार, 11 अगस्त 2020

चन्द शेर

चन्द शेर
 
 
1..तुम तो शोख़ नज़रों से बिखेर गई तब्बस्सुम
ये ना पूछा, मेरे दिल की हालत क्या है

2..लोग पी जाते हैं प्याले पे प्याला नशे के लिए
तेरी इक नज़र से मदहोस हुआ जाता मैं

3..शर्मो हया से नहाया तेरा मरमर का बदन
देख ताज भी शरमाने लगा 

4..उफ़! हर अदा मय से तेरी डूबी हुई
डर है कहीं मयकश ना बन जाउँ मैं

5..सुबह शिकवा थी उनको शाम हमसे शिकायत
ना जाने अब क्या चाहती है जालिम

6..कहने को हमसे खफा है जालिम 
पर नज़रों से तब्बस्सुम बिखेरे जाती है

..उमेश

सोमवार, 10 अगस्त 2020

रूबाई


बदनाम करतें हैं लोग 
जंग "जिन्दगी" को बता
जीना आता नहीं जिन्हे 
ये उनकी शगल है शायद।

उमेश

रविवार, 9 अगस्त 2020

प्रेम मूल प्रकृति

प्रेम मूल प्रकृति



मूल प्रकृति, जीवन की मेरे
स्नेह-प्रेम ,मकरंद लिये
जग कण कण को बांटू जो मैं
क्षुधा मेरी, प्रतिपल वो मिले ၊

सानिध्य मेरा, है कालजयी
 माया पर भी, है वो विजयी
बस प्रेम अस्त्र , मेरा बल है
करता हर प्राण, यही विजयी

उमेश

बुधवार, 5 अगस्त 2020

चन्द शेर

चंद शेर

दामन न छोड़ तू कभी रज़-वो-सब्र का
तकदीर को तदबीर से बदलेगा ओ खुदा

ये रिज़ा है यार, ना तेरी मेरी खता
जो मिलना चाह कर भी हम मिल नहीं पाते

बिना रिज़ा के क्या कभी गुल खिले चमन में
यूँ देखते रिज़ा से , खार गुल से महक उठे

....उमेश श्रीवास्तव

हुस्न का दीवाना संसार नज़र आया
खुली जो आँखे नींद से व्यापार नज़र आया
..उमेश

बसते हैं दोजख की नादिया के किनारे
ख्वाबों में बसाए हुए जन्नत के नज़ारे 
ख्वाबों को रूबरू करने का है हौसला 
 बदलेंगे हम तस्वीर को अपने कर्मों के सहारे
...उमेश

मित्रता दिवस पर लिखी कविता व सन्देश , मीत मेरे

मीत मेरे
 
मीत मगन मन बदरा छाये,
तुम आये पुन बालसखा सम, 
उमड़ गरज बरखा बून्दो सम, 
तर कर दीन्ही मोरि चदरिया, 
आपा धापी छोड़ लखूं तुम्हे,
निरखत भूली पलक डगरिया
रीती रीतीरही आज तक
भर गई मोरी पूरी गगरिया ।

सभी मीत जन को सादर नमन, इस जीवन में उमंग ,तरंग ,हर्ष ,उल्लास ,अल्हड़ता ,सरलता, सहजता ,आत्मीयता ,स्नेह ,दुलार ,प्यार ,सत्कार ,जो आनन्द प्रदान करने वाले गुण हैं को बाल सुलभ बनाये रखने हेतु आपका जो अमूल्य साहचर्य सहयोग मिला है जिनसे मेरा यह जीवन बना है ,के लिये मैं धन्यवाद दे उसका अवमूल्यन करनें की घृष्टता न करूंगा,हां अपेक्षा अवश्य करूंगा कि यूं ही बच्चे को अपने में जीवित रखें और मुझमें भी मेरे अन्दर के बच्चे को हर्षित और जीवित रखने में सहयोग देते रहें । क्यों कि आज तो बच्चों ने जन्म लेना छोड़ दिया है वे सीधे प्रौढ़ रूप में जन्म ले रहे । "बचपन" से धरा रिक्त न हो इस हेतु हम सब का दायित्व भी है कि एक दूसरे का सहयोग कर अपने अन्दर के बच्चे की उसी रूप में जीवित रखें । जिससे सखा भाव भी धरा पर जीवित रहे । बालसखा के अनुरूप ।  
सभी को पुनः मित्रता दिवस की शुभ कामनाएं ...उमेश श्रीवास्तव ०६.०८.२०१७ जबलपुर

रविवार, 2 अगस्त 2020

मुक्तक: मुंतज़र ए दिल

मुक्तक मुंतज़र  ए  दिल
 
दिल के दिए को जला के रखा था 
चौखट पे दालान के सोचा था,
आएगा कोई अँधियारे मे मुस्कराने की वजह लेकर
क्या पता था मुंतज़र ए बयार बेकार है ,
 सामने सहरा की एक लंबी दीवार है,
 गुजर गई आई दीवाली मुस्कान बिखेर
, हम तो अब तक मुंतज़र मे ही बैठे है
 दिल के दिए को जला सींचते लहू से बाती.....
....उमेश

मन मोह लिया तूने , अब तो दरस दिखा जा।
तन मन है तुझमें खोया,  छू कर मुझे जगा जा ।
25.03.16

शनिवार, 1 अगस्त 2020

कुछ शेर

देखा था बस इक नज़र उस किताब को
अब तलक अटका हुआ पहले हरफ़ पे हूँ .....उमेश

दर-दर भटकते रहे ऐसी नज़र के लिए 
भेद देती दिल को जो चश्म-ए-नज़र से अपनी
..उमेश..

अब तलक़ ख्वाहिस यही पढ़ सकूँ इश्क-ए-नज़र
जिंदगी गुज़री मगर वो नज़र मिलती नहीं
...उमेश

ग़ज़ल वो अपनी तस्वीर को हर रोज बदल देते हैं

ग़ज़ल 
वो अपनी तस्वीर को हर रोज बदल देते हैं
तदबीर से हम भी उन्हे दिल में जगह देते हैं
कभी रुखसारों की रंगत दिलकश
कभी लब पे मचलती शोख हँसी
कभी ज़ुल्फो की पेंचो में उलझाती अदा
कभी अँखियों से झाँकती शरारत
इक मीना में भरी इतनी मय की तासीर है 
औ कहते हैं कि पी के भी बा-होश रहो
क्या शै है दीदार-ए- हुश्न भी यारों
रोज नई जुंम्बीसे दे, जीना सिखा जाती है

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०२.०८.१६ जबलपुर

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

चन्द अहसास








                चन्द अहसास


सुकून की तलास में फिरता रहा दरबदर
तू जो मिली जाना सुकूं क्या है।၊ १ ၊၊


ज़लज़ला हैं यादें वजूद तक हिला देती है ये, 
सफ़र है जिंदगी का जब तक आती ही रहेंगी ये ၊၊२၊၊


चंचल शोख निगाहों से ना तीर चलाओ ये जालिम
दिल के टुकड़ों पर पग रख यूँ, ना मुस्काओ ये जालिम၊၊ ३ ၊၊

जेठ की धूप भी जब चाँदनी लगने लगे, 
समझ लो यारों यह इश्क का बुखार है ၊၊४၊၊


लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना ၊၊५၊၊

........... उमेश कुमार श्रीवास्तव





गज़ल एक मुद्दत हुई उनको साथ देखे

एक मुद्दत हुई उनको साथ देखे
अब तो यादों से क़तरा , निकल जाते हैं

जिस दर पे थी खिलती हर साम तब्बस्सुम
अब सरे साम परदा गिरा जाते हैं

हम तो हैं समझते इसे, इश्क की ही अदा
लोग हम को बेहया , बना जाते हैं

इस कदर इश्क का जुनू है हम पर छाया
कि कूंचे में फिर भी अश्क बहा आते हैं

उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन 
जो थामे हाथ गैरों का चले जाते हैं

हो मिलता सुकून उनको जलन से हमारी
सोच कर यही हम भी चले आते हैं
.......उमेश श्रीवास्तव....01.08.1990

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

कुछ शेर

लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना........... उमेश कुमार श्रीवास्तव


फकत याद में होता रहा खाना खराब
वो भी कितने मगरूर हैं देते नही खत का जबाब................. उमेश कुमार श्रीवास्तव

अंदर से उठ कर धुआँ गुजरता जब दिल के पास से
रौशनाई यादें बन कागज पे चल पड़ती हैं ......      उमेश कुमार श्रीवास्तव


औकात नहीं कि नज्र कर दूं
इक ताज तेरे नाम को
दो अश्क मेरे भी रहे 
तेरी कब्र पर ये रूहे इश्क.........उमेश...

क़ब्रगाहे इश्क है ताज भी ये नाज़नीं 
दिल के जिंदा ताज की तू तो है मेरी मल्लिका
...उमेश...


मंगलवार, 28 जुलाई 2020

तुमको उठना ही होगा

तुमको उठना ही होगा

चीख रही मानवता 
तुमको उठना ही होगा
अय,जग दिग्दर्शक, पथ प्रदर्शक
भारत पूत महान

सत्य अहिंसा दया धर्म का
फिर से अस्त्र सम्हालो
भ्रात्रि-भाव का ले अवल्म्बन
फिर अखिल विश्व जगा लो

मायावी इस चकाचौंध में
है अखिल विश्वा भरमाया
सभ्य राष्ट्र की शीतलता में 
फिर , उनको आज बुला लो

वैर-भाव है जन्म ले चुका 
हर मानव के मन में
दानव की हो चुकी पैठ फिर
हर मानव के तन में

है जग तरणी  फिर डोल रही
तीव्र भँवर के आगे
ज्ञान शक्ति का अलख जगा 
पुन पतवार तुम्ही सम्हालो

प्रलय काल की बेला में, जग
कण-कण बिखर रहा है 
ब्रम्‍ह शक्ति से बना जगत
बस तुमको निरख रहा है

हो किस चिंतन में विचलित लगते 
पग अवधारो   भारत
भ्रमित भ्रष्ट्र इस त्रस्त्र जगत को
तुम  संधानो    भारत

..उमेश श्रीवास्तव...29.01.1991

गज़ल၊ गम में किसी के दिल को जला कर

गम में किसी के दिल को जला कर
फुर्कत में आँसू बहाता है कोई
 
जमानें के चलन को देखो तो यारों
मुखौटा लगा गुनगुनाता है कोई

अब तक मैं था बिस्मिल जिगर था 
ले दर्दे दवा अब बुलाता है कोई

मैं हूँ मुसाफ़िर सफ़र में रहा हूँ
मगर क्या करूँ अब सुलाता है कोई

अब हूँ वहाँ मैं जहाँ ना कोई था
फिर, महफ़िल वहाँ, क्यू सजाता है कोई

...उमेश श्रीवास्तव...27.02.1991

सोमवार, 27 जुलाई 2020

ग़ज़ल मुल्केअदम से लौट कर आऊंगा एक दिन

ग़ज़ल
           

मुल्केअदम से लौट कर आऊंगा एक दिन                     
अब्दियत तिरी वहाँ जो कर ना सकूँगा                        
नाआश्ना मैं रहाअन्जुमन से तेरी                                 
तू अदल पसंद रहा औ मैं बा-अदा                               
ख्वाहिश रही अजल से तेरे करम की                            
अज़ाब भी सहता रहादीदार को तेरे                              
अदम रसाई ही रही तेरी ऐ खुदा                                
अकारत ही गई सारी नफस मेरी                               
आज तो तू मान ले मैं भी हूँ दमसाज                           
मामूर ही रहेगा दिल में तेरा आशियाँ                            

उमेश कुमार श्रीवास्तव                                           
जबलपुर २६.०६.२०१६                                      
 
मुल्केअदम---: यमलोक                                                                  
  अब्दियत-------बंदगी पूजा आराधना                                                                 
 नाआश्ना----अनभिज्ञ, अज्ञानी
अजल-----अनादि काल , सृष्टि काल
   करम----आशीष,समर्थन,सहयोग
अन्जुमन----सामान्य प्रयोजन हेतु एक़त्रित हुए    व्यक्तियों का संगम 
    बा-अदा ----अभिनय करने वाला
    दीदार---- दर्शन, आमने सामने से देखना
अदल पसंद---------न्यायसंगत  
 अज़ाब--- नर्क यातना
अदम रसाई---- अपहुंच
ख्वाहिश---इच्छा  
अकारत----बेकार जाना  
नफस------श्वासोच्छवास. साँस, श्वास   
  दमसाज-----दोस्त , मित्र    
  मामूर -----बसा हुआ, आबाद

मद कामनी

मद कामनी

कुछ लिखना चाहूं क्या लिख सकता हूं,
तुम सुन्दर हो क्या कह सकता हूं  ?

सिन्दूर नहाया दुग्ध बदन ,
चिकनाई कमल के फूलों सी
आरोह अवरोह भरी काया
रति मादक कामुक झूलों सी 
अलकों मे समाई काली घटा
सावन का सुरूर जगाती हैं।
नयनों से छलकती हाला को
अधरों पे उड़ेलने आती हैं।
कटि प्रदेश का कम्पन ये
गतिमान तुम्हे जो करता है
ना जाने कितनों को ही
गति शून्य बना कर रखता है।
है जो तेरी चंचल चितवन
हदयवेध जो देती है
जाने क्यूं पीड़ा की जगह 
उन्माद वहां भर देती हैं
ना देख इधर यूं तीखे दृग से
अधरों पे छिड़क मद हाला तू
हूं पाषाण नही भगवान नही
कहना ये नही मतवाला तू ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर , २८.०७.२०१६

रविवार, 26 जुलाई 2020

तीन शेर




हमें तो शौक़ था इंतजारी का
पर इतना भी नहीं जितना तूने करा दिया
दिख भी जाओ, मेरे चाँद दूज के
नहीं तो कहोगे, तुमने ही दिया बुझा दिया...........उमेश......


अख्स-ए-बदन में रखा क्या है , रूह-ये-बदन दिल में लाया करो
लब-ओ-रूखसार पे भरो हया के रंग,बंद आँखो में चमन बसाया करो...उमेश...

फासला होता है कहाँ वक्त इक दरिया है
जिसमें डूबे हुए हम इंतजार करते हैं....उमेश...

गज़ल। मेरे गेसुओं की महक के सहारे

मेरे गेसुओं की महक के सहारे
गुलशन को जन्नत बना लीजिए

तब्बस्सुम खिली जो लब पे मेरे
उसे देख खुद भी खिलखिला लीजिए

कहते समंदर मेरे चश्म को तो
उन्ही में उतर फिर नहा लीजिए

मीना-ए-जाम है जब मेरा ये बदन
तो उठा के लब से लगा लीजिए

गमगिनियों मे कहाँ हो खोए 
सभी गम मुझी में भुला दीजिए

...उमेश श्रीवास्तव..26.02.1991

शनिवार, 25 जुलाई 2020

शेर

खुशियो के गाळीचे पे गम का इक क़तरा
नही बना पायेगा खारा समन्दर....उमेश...

मेरे तो अपने ही बहोत है गम देने को 
मेहनत ना करो इतना तुम तो बेगाने ठहरे....उमेश...

गुफ्तगू करता रहा मुद्द्तो से में तेरी
दरम्यान राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना...उमेश...

ग़ज़ल ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी

ग़ज़ल
ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी
कि हर शख्स मे तू है नज़र आती

प्यार से हर बुत को मैं चूमता फिरता
कि हर बुत तेरी अक्से-रु है नज़र आती

राहे इश्क पर कदम मेरे डगमगाते कुछ यूं
कि कभी पास कभी दूर तू है नज़र आती

तीर-ए-नज़र अब तो रोक लो साकी
दिल की हालत अब विस्मिल है नज़र आती

नाजो अदा तेरी देख लगता कुछ यू
हर फ़न में तू उस्ताद है नज़र आती

.....उमेशश्रीवास्तवा....दिनांक 24.11.1989..

आज धुंधलके उसको देखा

आज धुधल्के उसको देखा
दूर क्षितिज के बीच कहीं 
कौंधी इक जीवन रेखा 
आज धुधल्के उसको देखा
                      
गुमसुम चुपचुप व्योम घूरती
नयनो में नीर लिए 
अधरो पर इक सूखी बिखरी 
दर्द भरी मुस्कान लिए 

शांत था मुखड़ा बिखरी अलकें 
वसन बदन पर अस्त व्यस्त 
कंपित तन औ विह्वल मन से 
व्यथित हुए हिय प्राण लिए 

सम्हल सम्हल कर पग धरते 
अनिल वेग से थरथर कपते
हाथ पसारे आगे बढ़ते 
इक विरहन सा गात लिए 

अपने अगम हिय प्रदेश में 
उसके आगम को सह के 
उसकी पीड़ा में निज हिय को
मैने आज मचलते देखा 

आज धुधल्के उसको देखा....

...उमेश श्रीवास्तव....21.05.1989

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

तलाश

उस अजनबी की तलाश में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ ၊

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास ၊

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो ၊

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरों पर ၊

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालों में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके ၊

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल ၊

पर अब तक तलाश रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसे मैं जानता हूँ,
वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से ၊

जाने कब पूरी होगी मेरी तला
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव


गुरुवार, 23 जुलाई 2020

दरश की आश

दरश की आश


नेह जगा
हृदय गुहा में ,
कौन भला, चुप बैठा है ,
दुःख के सागर
आनन्दमयी सरि ,
इन द्धय तीरों पर
रहता है ၊

आश जगे
या , प्यास जगे ,
श्वांसे बेतरतीब
बहकती हैं,
जिसके आने या जाने से
ये मंद, तीव्र हो
चलती हैं ၊

वाचाल रहे
या, मितभाषी,
आन्दोलित जो कर जाता है ၊
मौन सन्देश से
उर प्रदेश को,
जो,मादक राग सुनाता है ၊

मैं सोचूं या ना सोचूं
पर सोच जहां से चलती है ၊
उस सुरभित
शीतल गलियारें में ,
है प्यास ये जिसकी
पलती है ?

ये पंच भूत की
देह है मेरी ,
औ पंचेन्द्री का ज्ञान कोष्ट ,
पर ,प्रीति,अप्रीति,विषाद त्रयी, सम .
जो घनीभूत  हो बैठा है ၊

हूं वाचाल
पर, मौन धरे हूं
आहट उसकी लेता हूं ,
बाह्य जगत से तोड़ के नाता ,
अन्तस को अब सेता हूं ၊

आश यही ले
निरख रहा हूं
शायद उससे मिल जाऊं
वह ही मुझको ढूढ़ ले शायद
जिसे खोज, न, शायद पाऊं ၊

उमेश श्रीवास्तव दि० ०३.१०.१९  : १०.४५ रात्रि


बुधवार, 22 जुलाई 2020

तीन शेर

देख तस्वीर तेरी  हूक उठे कुछ कहने को
सहम जाता हूं कहीं , ठेस न लग जाये तुझे
.....उमेश

कहां से लाती हो तुम , ये बला सी अदायें
फुहारों सी भिगोती है वो,हम दिवाने हुए जाते हैं।.... उमेश

करीब से दिल के गुजर , मिलेंगे ही,चाहने वाले ।
दिल में उतर देख,क्या हैं वो फिक्र करने वाले ।
               ........उमेश

गज़ल : खुद समझ पाया नहीं अपने मिज़ाज को

ग़ज़ल

खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो

दिल है बच्चा जो मेरा, तो क्या ग़लत हुजूर
मेरे दिल पर उम्र का, स्याह साया न करो

काश तुम भी भूल कर, आ जाते इस गली
फिर ये कहते. यूँ उम्र को, तुम जाया न करो !

हम तो चलते उस राह पर, जो नेमत मे है मिली
तन्हाइयों की राह हमें, तुम बतलाया न करो

अलमस्त हूँ अल्हड़ हूँ मैं, परवाह नहीं इसकी मुझे
तुम सबक संजीदगी का, यूँ सिखाया न करो

मैं निरा बच्चा रहूं बच्चा जियूं बच्चा मरूं
तुम मेरे मिज़ाज को औरों से मिलाया न करो

खुली किताबे हर्फ हूँ जो चाहे पढ़ ले जब कभी
इंसानी फितरत से मेरा ताल्लुक कराया न करो

खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर,  "मेरी ग़ज़लें" से
मैने देखा है ह्रदय का स्पन्दित होना
हौले हौले उसका आन्दोलित होना ।
उसका स्मित होना महसूस किया है 
अपने अधर द्वय पर,अनायास ही ।
 उसकाआना ,इसका असहज होना

सोमवार, 20 जुलाई 2020

अबूझ चिन्तन *अज्ञात

अबूझ चिन्तन *अज्ञात*


तुझे पहचानने का
प्रयत्न,
कितनी बार किया
मैने,
हर प्रयत्न
विफलता देता रहा
क्यूं ?

अवरुद्ध , चिन्तन ၊
करता रहा
मनन,
निरन्तर, कालातीत ၊
पर,
ना जान सका ,
इस भूत बनते क्षण तक
मैं ၊

हर प्रयास मेरा,
सामिप्य का ,
दूर क्षितिज का
अहसास भर जाता,
जहां एकाकी मैं,
आभासित होता
तुमसे ၊

निःशब्द
प्रेषण,
संवादों का, ह्रदय के,
अथक प्रयत्न ၊
विफल ၊
क्या अब,
प्रयत्न, चीखने का
करूं ၊

टीश,मीठी ?
नहीं !
निरर्थक, व्यर्थ ၊
विरलता ,
सघन बनेगी ,
विश्वास ,
है जो ये ,
प्यार ၊

अनवरत
निमग्न चिन्तन ,
रहा ;
अविच्छेद्य,
उहा के
काल से,
मेरे ,मायावी !
जगत

मैं हूं
उपनिषद
उसके ,
जो ,निमित्त कारण
है जगत का
जब

स्वर्ण आच्छादित
सत्य जो,
आत्माओं का
मूल है ,
है ब्रम्हाण्ड का
जो नियन्ता
ब्रम्ह ,
जब
मैं अंश उसका

उमेश ,दिनांक  १४.०९.१९ इन्दौर-भोपाल यात्रा मध्य


हूं आज मैं निखर गया

टूट कर बिखर गया , 
लो आज मैं निखर गया ।

लौह था ये पुर मेरा
स्वांस थी ज्वाल की,
प्रस्तरों के कोष थे
बिजुलियों की शिरायें,
मन चिन्तनों में खो गया
माखन बना, पिघल गया,
लो आज मैं निखर गया ।

निराली हर दिशा रही
अबूझ हर दशा रही
कलप रही थी जिन्दगी
वो बन्दिनी थी ,बन्दिनी
हर दिशा पर राज अब
हर दशा में साज अब
प्रमोद आज जिन्दगी
आमोद से हूं भर गया
लो आज मैं निखर गया ।

पाषाण से परमाणु हूं
विवेक संग स्वतन्त्र हूं
अनवरत भ्रमण में रह
तुझी में खो रहा हूं मैं
अनन्त नाद में रमा
अनन्त को कदम बढ़ा
यायावर सा हूं बह गया
लो आज मैं निखर गया ।

अनन्त हूं ,है चाह भी
मंजिल मेरी, यह राह ही,
इस पर बढूँ ,फिर न जुड़ूं
इस धरा का हर कण हूं मैं
हर प्राणियों का प्राण सा
आह्लाद कर, हूं बन गया,
यूं टूट कर बिखर गया
यूं आज मैं निखर गया ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
इन्दौर , 20.07.20






बुधवार, 15 जुलाई 2020

चन्द बन्दिसे

दर्द जब सांसों में समा जाता है,
न जाने क्यू ,ये समां ही बदल जाता है ।

.......उमेश

भटकता रहता है खोज़ में , दर-ब-दर
देख दिल में ही छिपा बैठा न हो कहीं ..

...उमेश

कान्हा कान्हा चीख रहे क्यूं ,गली गली चौबारे में,
कान्हा रास रचा रखे जब
दिल के हर गलियारे में ।.....उमेश

बेचैन कर न इस कदर रुह को ऐ जहनशीं,
जो है तेरा ,भीतर तेरे,
वो साथ होगा ,उम्र भर ।
....उमेश

चंद फांसलों पर फ़कत
दरयाफ्त हो जायेगा वो,
तू करीने से जऱा
चश्मों को अपने बन्द कर । ......उमेश


चश्मे हाला में ,ये  तूने
क्या मिलाया साकिया,
जन्मों से जिसको ढूंढता
था ,इक घड़ी में पा गया।.....उमेश


रूह में तेरी बसा है, रुह से मिल ले ज़रा ।
क्यूं भटकता दूर तक तू,
अपना नशेमन छोड़ 
कर । .....उमेश


जान पाया है नहीं, ये जमाना आज तक,
अनसुलझी हूं ,वो पहेली,
अबूझ मैं वो राज़ हूं ।
....उमेश


बाहें पसारे बैठा कोई,नज़रे गड़ाये राह पर । 
गर मुसाफ़िर जान ले,
क्यूं तबाही में फसे ।
... उमेश







मंगलवार, 14 जुलाई 2020

ललकार

आ रहा हूं, 
ऐ समन्दर, 
रोकना है तो रोक ले
कल न कहना
भय-सूचना बिन
तुझको पराजित है किया ।

वो और होंगे जो तेरी
लहरों से भय खा गये
हम तेरी लहरों पे अपने
गीत लिख के जायेंगे ।

है गुमां तुझको तेरी
अथाह गहराईयो का गर
हम तेरी अतलों में भी
महफ़िल सजा दिखाएंगे ।

हमने सीखा ये ही सदा
झंझावतों को झेलना
तू मचल ले  आज जी भर
कल से मुझे तू झेलना ।

हूं जानता, कुछ भी नहीं
सहज मिलता है यहां
पुरुषार्थ पर कर भरोसा
तब ही तो आया हूं यहां ।

ना चाहता सहज में ही
झोली में मोती आ गिरे
कर्म से ,तल से तेरे
ले जाऊंगा तुझसे परे ।

झंझावतो के साथ तू
रोर कर ले ,नाद कर
फेणित तरंगों संग चाहे
रौद्र श्यामल जलधि कर ।

जो कदम मेरे उठे है
ना रोक तू अब पायेगा
राह दे स्वागत कर तू
या पराभव पायेगा। ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दिनांक १५.०७.२०१७

बिरहन

बिरहन

घटा घनघोर घिरी चहु दिश
लरजत नार सलोनी
पनघट पर पिय बाट तकत गोरी
नयनन कै डार बिछौनी

चंचल चित लै ,मेघ मीत से
करत रार बरजौनी
पी की पाती लाए काहे नही
रहि बाट जोहति चौमहनी

पथराय गई नयनो की पुतरी
अधरादल पड़े सुखौनी
हिय मध्य दहत अगन जो
उरोज बने धौकोनी

तुम बरसो ना बरसो बदरा
मधुमास गयो तरसौनी
हर्षित फसल दूर की कौड़ी
ये खेत पड़े परतौनी

भीग गई चुनरी चोली
अंसुअन कै चुऐ ओरौनी
हुलसित हिय पेंग लगे तन पे
सब राग चले उतरौनी 

मुझ बिरहन कै राग जरे सब
आग लागि बिछौनी
अखियन में नीद समाय सकी न
उत, पी छवि लाय बसौनी

ना रोर करो मत शोर करो 
मीत बनाय पछतौनी
अंधियारी घनेरि का तुम करो
पिउ की उजियारि बचौनी

हे मेघ मेरे साजन के सखा
इत आय मोहे लिपटा लो
सोख घनेरी व्यथा सब मोरी
उत लिपट तुम्ही समझा दो

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,१५.०७.२०१६

रविवार, 12 जुलाई 2020

विचार

रात घनेरी आये बिन,
क्या सुबह कभी भी आई है ?
उनकी सुबह नही आती,
जिनने , बस सपनों में नींद गवाई है ၊
उमेश १२.०७.१७

बुधवार, 1 जुलाई 2020

रे अम्बुद सुन..

रे अम्बुद सुन...

उठती माटी से सुरभित बास
 बून्दे सस्मित, ताल दे रही
तरु पल्लव कर उज्जवल आभास
मगन नाचते,बौराये से
धरा गगन मध्य झूम झूम
आभासी उद्गार जताते
रे जलद धरा है प्यासी प्यासी
जा ठहर तनिक,
तन भीगा मन भी कर तर तू
आभासी बरखा ना बन
ये तड़ाग लख सूखा रीता
ये प्रवाहिनी तकती तुझको
जलधारा की आश जगा
तू कर निरझर्णी फिर आपगा
न निष्ठुर बन
किसलय मेरे कर रहे प्रतीक्षा
मेरे नाभिक में
उनका तू उद्वारक बन
तेरा मंजुल श्याम वर्ण
मनमोहन की प्रतिछाया
जाये निर्थक नाम तेरा
क्या पायेगा
दे सकल जल निधि
थल जल कर
बे नीर पड़ा जग
जग  मग कर जल
हे वारिधर,
सुरभि सुवासित वसुधा
मांग रही अपने अंशो हेतु  
तुझी से , सौंप दिया था 
अम्बु तुझे जो ,
हे अम्बुद 
उमेश कुमार श्रीवास्तव
 दिनांक ०१.०७.१७ ,जबलपुर

सोमवार, 29 जून 2020

गज़ल၊ उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा

गज़ल

उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा
अपनो ने, ही दी , यूं हवा कि लौट फिर वहीं आया ।

काश ! हम भी जानते दुनियायी फलसफा
बस कह लीजिए यूं,न जज्बातों से खेलना आया ।

गैर तो गैर है , वो क्या समझेंगे दर्दे जिगर
अपनों की आश पे अक्सर हमें रोना आया ।

यूं तो कहते हैं सभी ,व्यापार रिस्तों का ज़हां
फिर मेरा मोल कोई क्यूं ,आज तक न देने आया ।

आज जो टूट विखरने को मचलती है जां
कफ़स मजबूत तू कर ,ये कौन यूं कहने आया ।

मैं गुल बनू या ख़ार, है किसे परवा इसकी
आज की रात का पैगाम ये  क्या तूफां लाया ।

उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा
अपनो ने, ही दी , यूं हवा कि लौट फिर वहीं आया ।

उमेश श्रीवास्तव, जबलपुर, दि० ३०.०६.१७

रविवार, 28 जून 2020

गज़ल

जुल्फों की तिरी सबा से , मेरा प्यार झिलमिलाये
तेरी चश्मों की झील में , मेरी किस्ती मौज लाये ၊

रुख की मयकदा तो काफ़िर बना रही है
प्याले लब तेरे ये , मेरे होश हैं उड़ाये

शनिवार, 27 जून 2020

"प्रेम" स्पन्द ही जीवन

यदि किसी हृदय में 
स्पन्दित होता है, प्रेम ,
ना जाने क्यूं ,
हृदय मेरा
अनायास ही , 
गीत प्रेम का गा उठता है ၊
और बनाने पुष्प ,
हर मुकुल ह्रदय को,
एकाकी ही,भ्रमर सदृष्य
गुंजित हो उठता है

घृणा ,क्रोध की
छल , कपट की
लोभ , मोह की
जो अनगिनत तरंगे
चहुदिश छाई
उन घोर तमस की 
बदली से,
तड़ित सदृष्य
प्रेम रश्मि मोहित कर देती
और ह्रदय मेरा
दीपस्तम्भ सा
उसे भेजता सन्देश 
समधरा पर
आने को
प्रमुदित हो,
"जीवन मधुमय प्रेम पुष्प"
यह बतला 
तम के कंटक दलदल से
ना घबराने को ၊

संघर्ष सदा है जीवन
पर आनन्द वहीं है
संघर्षहीन पथ 
रस स्वाद औ गंधहीन
बस भोग देह ,
वह ,
जीवन आनन्द नही है ၊

प्रेम सुधा से सान 
ईश ने यह गेह रची है,
जगा उसे ,
खुद जाग ,प्रेममय कर,
हर क्रिया ,कर्म को,
अमर नही तू , तू भी जायेगा ही,
पर,संघर्षों से जीवन के,
यूं हार मान कर,
अपने ही हाथों ,
अपने,अद्‌भुत जीवन को
ना मिटा इसे ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक 27.06.2020



बुधवार, 24 जून 2020

मेघ फुहार

मेघ फुहार

सरसराती पवन
गड़गड़ाता गगन
चहुदिश चमकती तड़ित
अठखेलियाँ की उमंग में
बूदों का अल्हड़पन

बूढ़ेपेड़ों का मन
शाखाओं पर लदी
पत्रवल्ली के संग
अह्लाद का अतिरेक कर
झूमता सा

नव पौध देखो वनों की
भय मिश्रित कौतूहल लिए
झुक रहे सर्वांग से
माँ प्रकृति की गोद में
भीगे बदन

परिहास करती
माँ भी कभी,दिखता यही
पर सीख देती ज्यूँ कह रही
तनना ही नही 
झुकना भी 
जीवन की कला है,
 सीख ले
सुख में ही नही 
कठिनाइयों में भी 
मुस्कुरा जीना पड़ेगा

आँचल में लिपटी दूब
गिरती बूँद से
पवन के वेग से
कर रही अठखेलियाँ
बिन डरे
जिंदगी है धरा से
उड़ ना अधिक
उड़ जाएगा
लोट जा मृदा में
जीवन संजोने के लिए
तृप्ति व आनंद
इसमे ही तू
पा जाएगा
प्राणियों में प्राण 
जग से हैं गये 
भावना से भय
भग से हैं गये
खग बृंद पुलकित
झूमते
यद्यपि , भीगे पखों से
डालियों पर, बस घूमते
उड़ान की चाहत नही,
बस भीगने की
रूखी में ज्यूँ स्वाद
छप्पन भोग की

जल ही जीवन 
जानता चर चराचर
बादलो से नेह का कारक यही
देख इन नीर दूतों को तभी
झूम जाते इस धरा के 
प्राण सारे

प्रेमियों के प्रिय जैसे
जीवन के आधार
मेघ धरा पर पाते 
तुम भी
यूँ ही 
प्राण जगत से 
अगिनित प्यार

       उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २५.०६.२०१६

गुरुवार, 14 मई 2020

प्रतिध्वनि

हे वसुन्धरे ना अकुला ,
देख मनुज की पीड़ा ,
दुह-दुह तेरी काया को,
ना आई  जिनको व्रीड़ा ၊
मातु ह्रदय है तेरा,
कारण, लखती ना स्व को,
हैं, कृतघ्न मनु के वंशज,
जो भक्ष रहे स्व-जन को ၊
लख , ह्रदयागार के आंसू,   
व , तेरी पीड़ित काया,
दुहिता की दुविधा लख ,
जनक तेरा अकुलाया ၊
बन अहंकार का पुतला,
पंकमयी मानव ये,
स्वच्छन्द विचर रहे जो,
जननी को जर्जर कर के ၊
रक्ष और असुर भी ,
लज्जा से गड़-गड़ जाएं,
ऐसी करनी का, ये मानव,
ना करूणा का पात्र कहाए ၊
तू आंख मूंद ले माते
प्रतिकार यहां जागा है,
मानव कर्मों की प्रतिध्वनि,
दुर्भाग्य आज जागा है ၊
विस्मृत कर बैठा मानव,
एकल संतति नही वो,
है, हर प्राणी की वसुधा,
हर से विलग नहीं वो ၊
जब जब धर्म डिगा है,
व , पीड़ा तुझ पर आई,
पालक की पीर जगी फिर,
तनुजा की पीर मिटाई ၊
वह स्वयं नही आया पर,
इक कण चैतन्य किये है,
दंभ ,दर्प , मद नाशक ,
जड़ अवतीर्ण किये है ၊
प्राण जगत अवशोषक,
निर्माण निरन्तर जारी,
हैं भोग जगत के पोषक,
बनते जग हितकारी ၊
वसुन्धरा का कण-कण,
त्राहि-त्राहि करता है ,
ब्रम्ह बना हर मानव ,
बस निज चिन्तन करता है ၊
ब्रम्ह ज्ञान का ज्ञाता ,स्वांग,
मूक बधिर का करता है ,
रक्ष संस्कृति के पोषक का,
वह पानी भरता है ၊
इक निर्जिव जड़ज ने
किंकर्तव्यविमूढ़ किया है
समझ नही वो पाते
यह आई कौन बला है ၊
वे ताक रहें है बाहर ,
विस्मृत किये,सब,अन्तस,
कर्म ,करण व कारण,
उनके आगे सब बेवश ၊
बस मानव ठहर गया है
धृ कण-कण है हर्षया
तब भी धृष्ठ ये मानव
ना कारण समझ है पाया ၊
अब भी अगर न चेते
तो काल प्रलय आयेगा
बस ,मातृ धरा का पोषक
जीवन जी पायेगा ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक १३.०५.२०

मंगलवार, 12 मई 2020

मातृ दिवस पर इस वसुधा पर की सभी माताओं को मेरी ओर से आदरान्जली

मातृ दिवस पर इस वसुधा पर की सभी माताओं को मेरी ओर से आदरान्जली :-

अनन्त मंगल घोषकारी    
*माँ* ध्वनि अपरमपार है ,
'ब्रम्ह' भौतिक लोक की ,
हर प्राण की आधार है  ၊

गढ़ती अनेको रूप जिससे
ये चराचर चल रहा
रहते अगढ़ पशु ,माँ पाठ बिन
मानव प्रगति जो कर रहा ၊

माँ आप में हैं देव तीनों
तृदेवियां भी आप में
ब्रम्हाण्ड की हर शक्तियां
माँ शब्द में ही व्याप्त हैं ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 11 मई 2020

रसराज "रति"(श्रृंगार )

 रसराज "रति"(श्रृंगार )

हम हास करें या क्रोध करें,
भयभीत रहें या उत्साह भरें,
विस्मित हो  कर बस शोक करें,
जुगुप्सीत हों, या निवेद करें ,
पर, भूल सके क्या रति रस को,
रसराज यही, आनन्द भरे ၊

जग कारक रसराज रति
मोहक,उर्जित,उन्माद जनक
पालक , मारक ,उद्धारक , रति
है ,अजर अमर अविनाशक ၊

आगार नहीं, जग कण कण को
श्रृंगार बिना इस वसुधा  पर
रसराज बिना रस हीन धरा
हर प्राण लगे मरु रज कण से ।

मन्मथ मथे मथनी सम
निर्जीव,सजीव सभी कण को
मकरंद बने, सुरभित चहुंदिश
अजर रहे रस भीगत जो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक १८. ०५ . २०






रविवार, 10 मई 2020

घन - रश्मि

घन - रश्मि

गहन गगन से
उतरे घन
श्वेत श्याम कुछ,
कुछ रक्तिम रक्तिम
कुछ कपास की
ओढ़े सदरी
कुछ ओढ़े हैं पीतवसन

अरूण संग बाल रवि
रश्मि प्रभा
बिखरी अनुपम 
मृदु मेघ घनेरे
घेरे  घेरे
बहते चलते
रवि संग संग

रश्मि प्रभा 
छिटकी बिखरी सी
इधर उधर 
अटकी भटकी सी
जूझ रही स्व रुप बचाने
रूप निरख
कर अवशोषित 
प्रमुदित कितना
ये घन मन

रक्तिम , श्यामल
पीत, धवल
नीलकमल सा
मोहनि सुन्दर
हर रूप सलोना
धर फिरता चंचल

रश्मि संगनी
संग मचल मचल
दृग चंचल वय चंचल
काया में रख सुन्दर
हिय चंचल
कुछ इठलाता बलखाता
जता रहा
यह बादल दल

विहसित रूप जलज
सघन
घटा टोप घन
घन घन घन घन
छिपी किरण 
रवि रश्मि सुनहरी
बेकल विकट
रुष्ठ पवन
सन सनन सनन
अब्द नीर बन 
पड़े भूमि
हुए विकल अकुलाये
नीर बिन
नीर बिना बे चीर हुए
घन

मुक्त चपलिका 
कुंदन कुंदन
विकल विकल
क्रन्दन क्रन्दन
नीर बहाते
बेनीर हुए घन

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर, दिनांक १०.०५.२०१७