गज़ल
उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा
अपनो ने, ही दी , यूं हवा कि लौट फिर वहीं आया ।
काश ! हम भी जानते दुनियायी फलसफा
बस कह लीजिए यूं,न जज्बातों से खेलना आया ।
गैर तो गैर है , वो क्या समझेंगे दर्दे जिगर
अपनों की आश पे अक्सर हमें रोना आया ।
यूं तो कहते हैं सभी ,व्यापार रिस्तों का ज़हां
फिर मेरा मोल कोई क्यूं ,आज तक न देने आया ।
आज जो टूट विखरने को मचलती है जां
कफ़स मजबूत तू कर ,ये कौन यूं कहने आया ।
मैं गुल बनू या ख़ार, है किसे परवा इसकी
आज की रात का पैगाम ये क्या तूफां लाया ।
उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा
अपनो ने, ही दी , यूं हवा कि लौट फिर वहीं आया ।
उमेश श्रीवास्तव, जबलपुर, दि० ३०.०६.१७