मेरे ना - समझ
उस ना - समझ ने
फिर,
आवाज दी है
सोचा था जिसने
भुला ही दिया है ।
कोमल सी नाजुक सी
वो भावना थी
जिसे
मन वाटिका में
था भटकने को छोडा ।
फिर आवाज दे कर
दी संजीवनी पर
देखना यही कि
कितनी मौसमी है ।
खुद को कहें वो
हूं, ना समझ, पर
बन्द लिफाफों के मजमूं
हैं जान लेते ।
हैं मुंतज़र में ,
मेरे हर्फ जाओ ,
नही बेरुखी से
ठुकराये न जाओ ।
तुम्हे पढ के शायद
कुछ रश्क जागे
चेहरे की रंगत
मुस्कान मांगे ।
चेहरे की रंगत
देख सकता नही पर
लबों पे तब्बस्सुम
खिली जरूर होगी ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
. शिवपुरी
१२ . ०७ .२०२२