अरुण की प्रथम आभा
प्रदीप्त सी करती मुझे
जग उठती हैं
सब की अपेक्षाएं
आकांक्षाएं
मुझमें
और मैं
हो उठता हूं चैतन्य,
आपूर्ति को
सभी की ईप्साएं
खपानें को
अपनी समस्त ऊर्जा
जिससे उस्मित कर सकूं
प्राण उनके
जिन्होंने अर्पित की हैं
अपनी ईप्सा
मुझे, इक आश संग ..
मैं सजग जी उठता हूं
उनका जीवन
अपने जीवन की तरह
कर प्रण
प्राण कर समर्पित ।
चाहते सब
हर संवेदना कर दूं समर्पित
भावनाओं का हर पोर
चिन्तन के हर तंतुओं को
जोड़ उनसे
उनके दुःखों को हरता रहूं
अपने सुखों से जब जोड़ना चाहें कभी
तब ही जुड़ूं
अन्यथा, ढूढ़ लूं
अपने सुखों के कणों को
मरुभूमि में ।
गो - धूली से सरोबर
खो तपन
लौटती गेह जब
सान्ध्य को,
चाहती
स्पर्श सलोना
संवेदनाओ से सरोबर
अवलेह बन
दुखते हुए हर पोर में
नव ऊर्जा संचार का
जो आधार हो ।
हा !
कहां ?
सुख !
खोजता क्या प्राण है !
दुःख जगत
वेदना में बसा हर प्राण है
अपेक्षा ही जोड़ती
इक दूसरे से
तू सुमेरु मनिका
बस आरम्भ को
ना अपेक्षित
बस
उपेक्षित प्राण है ।
दिनांक १६.०१.२३
भोपाल
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