व्यथा
अब आकर्षक नही लगती
जानवरों, तितलियाँ,
चिड़ियाँ की कहानियों में
और हां, पर्वतों , नदियों , जलचरों
वनों, पेड़ - पौधों ,
बगीचो की कहानियों में
जीवित है अब भी आकर्षण ।
लोभ, मोह, द्वेष, क्रोध, स्वार्थ
के अपने मूल चेहरे पर
कितने करीने से मोहकता
ओढ़ रखी है मनुवंशजों नें ।
लिजलिजी से पीड़ा
कुलबुला जाती है अन्तस में कहीं
जब कभी साक्षात्कार हो जाता है
इस धरा के
सबसे निकृष्ठ बन चुके प्राणी से
चाहे यथार्थ प्रत्यक्ष
या कहानियो में ।
पहले कभी उसकी चाह में
राष्ट्र प्रथम था
फिर देश , प्रदेश , ग्राम का श्रेष्ठ
उसका कर्म था
फिर आता था समाज ,कुटुम्ब
परिवार व पत्नी बच्चों का सुख
तब कहीं वह स्वयं था ।
अब किसी भी , किसी की भी
किस्से कहानियों में
बस वह स्वयं तना खड़ा है
सपाट भावनाहीन चेहरा लिये
क्रूर दिल लिये
समसीरी ज़बान लिये ।
स्वयं के लिये ही जीना
उसकी प्रकृति बन चुका है
सम्बन्ध हों कोई
मूल्य यदि अनुरूप हो
है सदा बेचने को तत्पर
निकृष्ठ हो चुका रीढ़ हीन
केचुये से भी
ऐसे अस्तित्व की कहानियां
लिजलिजी हो चली
बे स्वाद गंधहीन हो चली
घिन सी आने लगी है इनसे
इसलिये
मनु वशंजों की कहानियां
अब आकर्षक नही लगती ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजमवन , भोपाल
दिनांक ०२ . ११ . २४