अब आकर्षक नही लगती
जानवरों, तितलियाँ, चिड़ियाँ की कहानियों में
और हां, पर्वतों , नदियों , नदियों के जलचरों
वनों, पेड़ - पौधों , बगीचो की कहानियों में
जीवित है अब भी आकर्षण ।
लोभ, मोह, द्वेष, क्रोध, स्वार्थ
के अपने मूल चेहरे पर
कितने करीने से मोहकता
ओढ़ रखी है मनुवंशजों नें ।
लिजलिजी से पीड़ा
कुलबुला जाती है अन्तस में कहीं
जब कभी साक्षात्कार हो जाता है
इस धरा के सबसे निकृष्ठ बन चुके प्राणी से
चाहे यथार्थ प्रत्यक्ष
या कहानियो में ।
पहले कभी उसकी चाह में
राष्ट्र प्रथम था
फिर देश , प्रदेश , ग्राम का श्रेष्ठ
उसका कर्म था
फिर आता था समाज ,कुटुम्ब
परिवार व पत्नी बच्चों का सुख
तब कहीं वह स्वयं था ।
अब किसी भी , किसी की भी
किस्से कहानियों में
बस वह स्वयं तना खड़ा है
सपाट भावनाहीन चेहरा लिये
क्रूर दिल लिये
समसीरी ज़बान लिये ।
स्वयं के लिये जीना
उसकी
बस वह स्वयं है