आत्म चिन्तन
अनन्त इच्छाओं का
अनन्त इच्छाओं का
घनघोर वन
भटकता मन
घसिटता तन
लुहलुहान जीवन ।
वर्षावन के
लम्बे तरू सी
गगन छूती इच्छाओं से
सतह पर फैली
अमर दूब सी
मकड़जाल जैसी
जड़े फैलाई इच्छाएं
कुछ कटीली
कुछ मखमली
कुछ हरितिमा भरी
कुछ सूखी तुड़ी मुडी
इच्छाएं
सब खड़ी
सुरसा सी मुख बाये ।
बेचारा मन
भ्रमित सा
हर दिशाओं के
आकर्षण से बिंधा
सब का
रसिक बनना चाहता ।
है चाहता
सबका हिय टटोल लूं
है चाहता
सबके हिय में मैं बसूं।
ना जानता
कामनाएं हैं,वे कामिनी
जो अरझाती ही रही हैं
जगत के हर प्राण को
अपने रुप लावण्य से
मृगमारीचिका सदृष्य ।
जीवन यही, हर प्राण का
है भटकता
मन के सहारे
बुद्धि भ्रमित
मोह में
मन - मदन के
रति बनी
अनुगामिनी बन
गमन करती बस उस दिशा
मन भागता जिस दिशा को ।
तटस्थ सा
हूं देखता अब
भोक्ता व भोग्य को
दिग्भ्रमित
मनु वंशजो के तेज को
ज्ञान के अतिरेक में
प्रज्ञा खो गई
वाचाल मन के सामने
सारी ऋचाएं
सो गई ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव ,
दिनांक 28.02.2020 ,07.56 अपरान्ह
ओव्हर नाईट ट्रेन , इन्दौर से जबलपुर यात्रा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें