चाह
गंगा सी निर्मल धार बनूं
इक सोच सरल सी रहती है
मन मस्तिष्क हृदय से हो
इक निर्झरणी सी बहती है ।
कोयल सी कोमल कूक बनू
हिरणी सी चपल समअक्षि लिये
निडर रहूं तनिक न डिगूं
शार्दूल बनूं सत लक्ष्य लिये ।
दधीचि सदा आदर्श रहें
जन तारण की यदि मांग उठे
प्रमाद तनिक उर न धरूं
भगीरथ सा संकल्प रहे ।
व्यान अपान उदान समान
साध्य बने प्रण प्राण लिये
यमुना सी शीतल काया बनूं
तिस्ता सी चंचल स्वांग रचूं
हर हिय, हर हरि द्वार लगे
हर द्वार मुझे हरिद्वार लगे
हर हिय मे बसूं आदर बन के
हर हिय में बसें तापस बन के
जीवन की बस चाह यही
जी मैं सकूं सबका बन के
दे मैं सकूं हर की चाहत
साध सकूं अपना आगत ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
जबलपुर १२.०४.१७ ,(१२.३३)
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