मेरे विचार
दृढ़ हो चुके अनुशासन ही रुढ़िया परम्पराएं हैं ।
इस धरा के एक पशु को मानव बनाने के लिये ,
जो गढ़ी गई ,
युगों के हर काल खण्ड में
समग्र सोच वाले बुद्धिजीवी
विशुद्ध आत्माओं द्वारा ,
जो शरीर को ही स्व नही मानते थे
और धरा के अन्य पशुओं से अलग करने हेतु
मानवों को सरलता से ,
इक सुगम सुरम्य पथ देना चाहते थे ,
सुसंस्कृत सुसभ्य समाज गढ़ने के लिये । जिससे हम दिख सकें अन्य वन्य प्राणियों से पृथक ।
पर आज वही प्राणी ( मानव ) अनुशासन को जंजीर बता
स्वतन्त्र होना चाहता है
पुनः जंगली जन्तु बन स्वच्छन्द होने के लिये ।
ब्रम्हाण्ड का हर कण,
कणों से ही गठित
विशालतम ग्रह नक्षत्र आदि पिण्ड का
अस्तित्व भी
अनुशासन से ही चल रहा
उनमें रेसे के शिरे के करोड़वें हिस्से का भी विचलन
ब्रम्हाण्ड के अस्तित्व को मेटने का सामर्थ रखता है .
हे मानव अनुशासन की शक्ति को पहचान
उसे दकियानूसी कह
जंगली स्वच्छन्दता के आवरण के आकर्षण से बच ।
प्रथाओं , रुढ़ियों व परम्पराओं में
समय , काल , परिस्थितियोँ के अनुरूप
मानव हित में
परिवर्तन परिवर्धन संशोधन करना उचित है
पर किनके द्वारा
यह विचारणीय है
भीड़ तन्त्र के नायक अनुपयुक्त हैं
समाजिक मानवीय चिन्तन के पुरोधाओं को चुनना होगा
जो अनन्त तक
सन्ततियों के प्रवाह को दृष्टिगत कर
संस्कारों को गढ़ने में हों समर्थ
न कि खाओ पियो मौज कर जीओ के अनुगामी नेतृत्व
जो स्व तक सीमित है
जिनके भान में
उनका जीवन ही इस धरा का अन्तिम
शोषक प्राण है ।
रे मानव
अनुशासन में जीने की उन्मुक्तता
स्वतन्त्रता है
अनुशासनहीन जीवन स्वच्छन्दता,
इसे जान
कर निर्धारित कि तुझे बनना क्या है
स्वच्छन्द जानवर या स्वतन्त्र इन्सान ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
भोपाल