मैं और तू
हूं निरखता, मैं,निरन्तर
अन्तस की गलियों में उतर ।
खोजता रहता हूं नित
हर गली हर राह पर ।
इक झलक की चाह ने
बावरा सा कर दिया
रश्मि आंखो से गई
रजनी से दामन भर दिया ।
तप ये नही ! तो और क्या ?
तू ही बता कितना तपूं
तपन की इस अगन ने
क्या क्या न मेरा रज हुआ।
मैं हूं अलग या तो मुझे
यह झलक आ कर दिखा,
या मेरे विश्वास को
"परमात्म हूं" सच कर दिखा ၊
नित निरन्तर जूझता
जिन्दा हूं, या हूं, जी रहा
तू ही बता , तू ईश है
पाने की तेरी राह क्या ?
जड़ नही, हूं पशु नही ,
औरस मनु सन्तान हूं
इस धरा पर आज भी
मैं ही, तेरी पहचान हूं ၊
फिर भटकता क्यूं फिर रहा
स्वयं की ही खोज में
ये भरम क्यूं भर रहा
फिर मेरी इस मौज में ၊
आ तनिक मुझको बता
मैं पृथक क्यूं कर हुआ
आत्म मैं परमात्म तू ,फिर
योग क्यूं क्षितिकर हुआ ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक 25.04.2020
इंदौर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें