मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)

वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)

धूप जेठ की चुभे 
जल रहा तन बदन
सूखते तड़ाग भी
सूखता है ये चमन

नीम के पुष्प भी 
ले रही निम्बोली है
भौरों की गुंज से
अब कर रही ठिठोली है

बेल के वृक्ष पर
सज गये विल्व है
पत्र से निःपत्र हो
लग रहे शिल्प हैं

आम्र की टिकोर तो
कर रहे किलोल हैं
बालकों के झुण्ड से
अब हो रही तोल है

शुष्क शुष्क सी धरा
शुष्क मृदा के प्राण हैं
शुष्क से खड़े दरख्त
वन प्रान्त के जो प्राण हैं

पलास रंग यहां अलग 
हरितिमा की शान है
कहीं कहीं ताम्रता ले
हैं ताने वो वितान हैं

कृष्ण कायता लिये
पाषाण खण्ड विशाल हैं
तृणों की शुष्क चादरें
चढी जिन पे जाल हैं

बांस की ये श्रृंखला
सुदूर तक जो दीखती
कैनियों के मध्य फंसे
उनके भी आज प्राण है

धूप से टपक रहे
पीत से, रस भरे
गमक रहे महक रहे
महुपुष्प प्रान्तरो की आन हैं

मृगों के झुण्ड छांव में
'सिमट गये रार कर
वानरों की टोलियां 
खड़ी यहीं इधर उधर

सिहं नाद कर रहे 
जल श्रेणियों की खोह में
पक्षियों के झुण्ड भी
उड़ चले हैं रोर में

दिग दिगंत जल रहा
पर चल रहे हर प्राण हैं
प्रचण्ड ,प्रचण्ड हो गया
यूं  दे रहा जो त्राण है ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव,जबलपुर,दिनांक १६.०४.२०१७

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

चाह

चाह

गंगा सी निर्मल धार बनूं
इक सोच सरल सी रहती है
मन मस्तिष्क हृदय से हो
इक निर्झरणी सी बहती है ।

कोयल सी कोमल कूक बनू
हिरणी सी चपल समअक्षि लिये
निडर रहूं तनिक न डिगूं
शार्दूल बनूं सत लक्ष्य लिये ।

दधीचि सदा आदर्श रहें ।
जन तारण की यदि मांग उठे
प्रमाद तनिक उर ना मैं धरूं
भगीरथ सा संकल्प रहे ।

व्यान अपान उदान समान
साध्य बने प्रण प्राण लिये
यमुना सी शीतल काया बनूं
तिस्ता सी चंचल स्वांग रचूं

हर हिय, हर हरि द्वार लगे
हर द्वार मुझे हरिद्वार लगे
हर हिय मे बसूंआदर बन के
हर हिय में बसें तापस बन के

जीवन की बस चाह यही
जी मैं सकूं सबका बन के
दे मैं सकूं हर की चाहत
साध सकूं अपना आगत ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
जबलपुर १२.०४.१७ ,(१२.३३)

पराभव

पराभव

सूखते तड़ाग, ताल ,कुओं की क्या बिसात
जब सूख रहे चारों तरफ,सागर के ही काफिले

पानी पानी हो गई पानी की हर बूँद
सूखे अधर कंठ जर्जर औ बंद बोतल देखकर

हमने सुना था कभी, पानी जो उतरा सब गया
अब तो चाँदी है उन्ही की जिनमे पानी  ना रहा

अब कलरव है कहाँ,कहाँ,गोधूली की रम्भान अब
छोड़ जाते जो धरा को उन प्राणियों का बस शोर है

जागने को कह रहे सोते रहे जो उम्र भर
है कयामत की रात जागो कह रहे वो चीख कर

पतन का भी कोई तल अब तो तू मान ले
हर अस्थि मज्जा रक्त में, खुद को ही पहचान ले

इस धरा पर कोई ,ना जिया, अनन्त काल तक
नीर बन, फिर जी जगत में, सब प्राणियों का उद्धार कर

उमेश कुमार श्रीवास्तव (१२.०४.२०१६)

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

चरेवेति चरेवेति

चरेवेति चरेवेति

यात्राओं का अन्त कहां !
निरन्तर 
आदि ही है इसकी
अन्त कहां
चरेवेति चरेवेति
अनन्त से 
अनन्त की ओर गमन
वह भी निरन्तर
हर पल बढ़ते पग
गंतव्य जो उसकी
है किसे खबर
यह क्षणिक यात्रा  
व्यथित न हो
जाना दूर
इस गंगे से उस गंगे
परिभ्रमण निरन्तर
ऐ पथिक 
हो भ्रमित न ठहर
बस चल निरन्तर
यात्रा सार्थक
ठहराव निरर्थक

इक पथिक " उमेश '
दिनांक ६ अप्रेल २०२५
राजभवन , भोपाल