राज पुरुष इक ऐसा भी
जिसमें जीती संवेदनाएं
धर रूप अनेकों
अपने अपने स्तर पर
मानव तन धर ।
राजपुरूष
वह , गणमान्य प्रथम
जिसके चहुंदिश
गुंजित,अजश्र शक्ति की
छंद ऋचाएं
पर निर्लिप्त सा वह
सौम्य, अथक, करुणाकर
है अन्तस पाये ।
वय जर्जर
मन काया सुघड़
पुरुषार्थ चतुर से
गढ़ा हुआ तन,
मन - करुणा
करुणाकर सी
दयानिधी की छाया है
मानस - वाणी - कर्म त्रयी
ऋजु रेखा से गमन करें
मनु वंशज की प्रथम पंक्ति सा
हर में स्व का मनन करे
राज नही, सेवक सा स्वामी
चिन्तन मात्र,अकिंचन सेवा
मानव तन पा, उद्धार कर सकूं
तपी व्रती साधक की रेवा
चाह नही वैभव की कोई
राह कंटकी अवरोध नही हैं
अथक निरन्तर ध्येय ध्यान धर
चरेवेति का गान करे है ।
चिन्तन, अनुकरणीय है, जीवन में
मानव तन जो पाये हैं;
दलित पतित को, पावन करने
जो वानप्रस्थ खपाये हैं
निरोगी काया संग आयु दीर्घ हो
सभी कामना करते हैं
वरदहस्त यूं रहे राजभवन पर
सब किलकारी भरते हैं ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ११.०६. २०२५
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