खुशी की तलाश
खोजता मैं रहा
आदि से ही तुझे,
तू बता ऐ खुशी
है छिपी तू कहां ?
धर्मों में देखा
अधर्मों में देखा,
कर्मों में देखा
अकर्मों में देखा,
दिखी तू नहीं
हर मर्मों में देखा,
खोजता मैं रहा
तू छिपी है कहां ?
रिस्तों में चाहा
वैर कर के भी ढूढ़ा,
तू छिपी ही रही
मुस्कुराती कहीं,
नीरवता में गहन
उतर कर भी देखा,
कलरव के सागर में
उतरा कर भी देखा,
दिखी तू नहीं
ऐ ,चिरन्तर माधवी ၊
मुद्रा में देखा
द्रव्यों में देखा,
धरा के कण में
प्रासादों के शहर में,
मुकुट में , पदों में
किस जगह न देखा,
पर मिली तू नहीं
तू छिपी है कहां ?
वनों मे भी देखा
उपवनों में भी देखा,
पर्वतों में , सगर मे
सरि के लहर में,
हर नगर में , डगर में
भटकता फिर रहा
तू छिपी है कहां ,
तू छिपी है कहां ?
तन में भी ढूढ़ा
रूप- लावण्य में भी ढूढां,
मुकुन्दों,कलियों,
फूलों में ढूढ़ा,
अनल व अनिल
क्या छूटे कहीं,
माया के रचे
हर कण कण में ढूढ़ा,
पर कहां तू मिली
तू छिपी है कहां ?
भोगो में देखा
त्यागों में देखा,
कमनीय कली के
रागों में ढूढ़ा,
चिन्तन की धारा व
चिताओं को देखा
पर दिखी तू नहीं
तू छिपी है कहां ?
सत में भी देखा
असत में भी ढूढ़ा,
पीड़क भी बना
पीड़ित में भी देखा,
शासक व शासित
सभी बन के ढूढ़ा,
मिली तू नहीं
तू छिपी है कहां ?
मै रटता रहा
पोथियाँ भी अनेको,
औ भटकता रहा
पंथ के पंथ भी,
पर झलक ही मिली
तू मिली ही नही,
तितलियों की तरह
तू उड़ती रही,
व्याध सा मैं पीछे
भटकता ही रहा
हाथ आई न तू
जान पाया ना तुझे ၊
भटकता हुआ आज
थक ठहरा जिस जगह,
देख कर ये लगा
ये तो जानी जगह है ,
संग ये ही तो मेरे
प्रवासों में थी
तुझे दूढ़ने के
हर प्रयासों में थी ၊
मैं उतरा नही इस
गुहा खोह में,
यह बुलाने को निरन्तर
प्रयासों में थी,
आज देखा उतर
तो देखा तुझे,
तू तो मुझ में ही बैठी
कयासों में थी,
माया में लिपटा
मैं भटकता रहा,
तू जगाने के मेरे
प्रयासों मे थी ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव , इन्दौर
दिनांक २९.४.२० की रात २ ३० बजे
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