ढूंढ़ रहा पपिहा बन
स्वाती जल कण
मरू-रज जीवन
चूसे रस ,
कण कण,
विह्वल हिय
विह्वल मन तन,
शुष्क दृग द्वय
ढूढ़े उसको,
करे जो पूरित ,
तरल नीर सम,
प्रेम-विरह जल ।
हुलसित हिय
चित्कार करे ,
प्रतिध्वनित नाद
आमुख पर आ
झंकारित ।
व्याकुल अधर द्वय
कम्पित
विस्तारित नयनों से
प्रतीक्षित
चुम्बन को
प्रेयसी अधर को ।
रास-प्यास,आभास !
हुई संकुचित
स्व गुहा मध्य, पर
हार न माने
होगा संगम
भले लगे कल्प
यह रार है ठाने ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राज भवन , भोपाल
दिनांक : २३.११. २०२२
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