नज़र यूं ना हमसे चुराया करें ।
गुफ्तगूं- ए- ज़ुबा हो न हो ,
गुफ्तगू-ए-नज़र कर जाया करें ।
तब्बस्सुम लबों पर सजे ना सजे,
साज़-ए-जिगर बजे ना बजे
आ जुल्फे जरा लहराया करें,
चश्मों को बोसे कराया करें ।
आपकी मसरूफियत , हमें है पता
आप मगरूर हैं, है ये भी पता
ये जवानी के दिन बस गिने चार हैं
मुंतज़र हमें यूं न कराया करें ।
आपकी शोखियां कर रही जुल्म हैं
तड़पते जिगर को दे रही गुल्म हैं
सुकूं पा जाये दीदार कर ये
कुछ ऐसे जतन कर जाया करें ।
है कदर हुश्न की नजर-ए-इश्क में
फ़ना हो रहा इस जमाने जो
न परदों में खुद को छिपाया करें
पास आने की जहमत उठाया करें ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : २९ . १२ . २०२२
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