बेधती है हिय मेरा
मैं अभिजात छली
अधर पर,असित का डेरा
तप्त स्वर्ण मरू रवि की
छिटकी चंहु दिश
पर अधरों पर उसके
स्मित अहरनिश
ताप कहाँ राकेश तेरा
श्वेद की बून्दे पूछे
उनकी स्मित लख
कंठ भानु के सूखे
वसन चीथड़े फटे
यूं खुल मुस्काएं
सभ्य जगत के गंड पर
ज्यूं चपत लगायें
नयनों में आह्लाद भरे
वह तकती शिशु यूं
ईश तके नित
अपने भक्तों को ज्यूं
सुख-दुःख दो पाट
बहे मध्य जीवन धारा
सच्चा तू ही साधक
कर मलंग जीवन सारा
रिक्त रिक्त सा
अभिजात्य यह जीवन
सराबोर हर रस से
श्रमिक तेरा यह जीवन
उमेश कुमार श्रीवस्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : ०४ . ०६ . २४
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