बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

चाह

चाह

चाहता हूं
शून्यता, नही निर्जीवता ।
सजीवता, बस स्पन्दन ही नही ।
ढूढता हूं एकान्तता 
निर्जनता नहीं
सरसता बस तरलता नही

मैं चाहता हूं
वाटिका
पुष्प गुच्छो से आपूर्ण ही नहीं
कलरवों से गुंजित
भंवरों, तितलियों के संग

हूं चाहता मानव समूह
उत्साह उमंगों से परिपूर्ण
नकारात्मकता से दूर
सकारात्मक बन्धुत्व की
भावनाओं के सागर में
तिरती

पर यह व्योम
अन्ध कृष्ण विवर सा 
दॄष्टि किरणे जिसमें
विलुप्त
भटकती आत्मा जिसमें
देती दिशा निर्देश
अनदेखा कर जिसे मन
स्वार्थ चिन्तन में 
मग्न

लगता नहीं कि,
ढूढ पाऊंगा कभी उस व्योम को
जो चिन्ताओं को भी 
समाहित कर शान्त कर दे
नयनों के परे के उझास में

उमेश कुमार श्रीवास्तव
२६ फरवरी २०१७

पात्रता

पात्रता

अंजुलियो में धूप भर 
बैठा रहा
साथ देगी ज्यूं जिन्दगी भर
पर फिसलती ही गई
वो सांझ तक
आ गई चुपके से घनेरी रात अब

रिक्त देखूं अजुलियों को
मैं अचंभित
शुष्क मरू मृदा सी
कब तक ठहरती वो
गदेलियों पर

मैं रहा ठहरा 
तलैया जल बना
ओस की बून्दो से आपूर्त होता
और सरिता राशि पर विहंसता
दूर होती जाती जो 
उद्गम छोड़ कर

डूब कर आकण्ठ तम में
छटपटाहट ये कैसी
धूप की ? 
क्या काम इसका ? 
रवि दे रहा था प्रचूर 
तब ले सका ना
अनन्त झोली लिये तू

फिर घनेरी रात में 
करना विलाप 
रश्मिरथी को
यूं कोसना 
शोभा न अब 
दे रहा
बहते समय के नद
में खड़े
गुजरे समय की बाट में
जड़ बने
मुझको जड़ की ही उपमा
दे रहा है

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक : २६ फरवरी २०१७

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

खुद को ढूढ़ा बहोत, फिजाओं में
मिली न कोई खबर , हवाओं में
सर्द रातों में , जल उठी रूह मेरी
ताब इतनी थी , मेरे नालों  में

खड़कते पत्ते कहीं जो राहों पर
लगता जैसे अब मेरा दीदार हुआ
खौफजदा ताकूं सूनी राहों को
इल्म हो क्यूंकर जो दीदार हुआ

उम्र गुजरी बेज़ार रहते
वक्त फ़ना होने का, अब तलबगार हुआ
ऐ ख़ुदा ! मेरा नाखुदा बन
कस्ती डूबती जब मझधार हुआ


पीत पात रुखे हैं गात

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

शिव स्तुति

हे शिव हे शंकर हे त्रिपुरारी
कोटिशः अभिनन्दन, हूं आभारी
वरदहस्त तेरा यूं शीश मेरे
कर कल्याण हर, हर पातक भारी ।

उमेश
१७ फरवरी २०१७

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

अहसास

उसकी आखों में मैने देखा है
प्यार , बेसुमार
जब वह देखती है मुझे ,
उसके भाव समर्पित से लगते है
मुझे ।
आंखों से वह,
तौलती सी लगती है मुझे ;
महसूसता हूं मैं
उसका छूना ,
अपने माथे पर, आखों पर,
ओठों पर,
नजरों के सहारे ;
और बिछ जाना
अपने वक्ष स्थल पर,
उसके सूक्ष्म बदन का ।

बहुत कुछ कह देती हैं
उसकी आंखे 
व चेहरे के भाव
जो वाणी की अवरुद्ध गति
कह न पाती है उसकी ।

मर्यादाओं की सीमा
कितनी कठोर होती है
वह कहां जानती 
मृदु हृदय की विवसता
उस निस्पृह को कहां ज्ञात
पीड़ा की गति व
संवेदनाओं का मोल



उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक ०५ . ०२ . २०२५