शनिवार, 16 नवंबर 2024

धुंध

धुंध सी छाई हुई थी
चारो दिशा में 
डूबे हुये, नग शिखर
वन प्रान्तर 
तड़ाग, खेत - खलिहान भी
भवनों, घरों पर भी 
सफेदी फैली हुई
छटपटाते लगते 
निकलने को सभी
पर बेबसी, झलकती
चेहरे पर सभी के
प्रयास में
ज्यूं उलझ जाते 
और भी ।

घुंध सी छाई 
मन मस्तिष्क पर 
उन कणों से
जो धरा से उठ
ना हो सके स्थिर
भटकते घूमते व्योम में
विषाणु सम हो,
अवरोधित कर रहे
चिन्तन
विषाक्त करते
मन ।

कर्म जो कर रहे
मनु पुत्र 
चिन्तन उसमे है कहां
जो है, है क्षणिक
मातृ ऋण जो भर रहे
वो है कलुषित
जब कालिमा
हर चिन्तन कर्म में
फिर क्यूं ना धुंध हो
कर्म का प्रतिकर्म 
सम्मुख है खड़ा
प्रगति पथ पर
फिर क्यूं ना धुंध हो ।

कर्म मानव
भोगते धरा के हर प्राण
श्रेष्ठ कहता स्वयं को
श्रेष्ठता क्या 
रहा क्या भान
अहंकारी तन - मन,जीवन लिये
धरा को मेटने को
तुल रहा 
धुंधकारी बन
आज मनु सन्तान ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
भोपाल एक्सप्रेस
दिल्ली - भोपाल
दिनांक १९ . ११ . २४










रविवार, 10 नवंबर 2024

मैं और तू

मैं और तू

हूं निरखता, मैं,निरन्तर
अन्तस की गलियों में उतर ।
खोजता रहता हूं नित
हर गली हर राह पर ।

इक झलक की चाह ने
बावरा सा कर दिया
रश्मि आंखो से गई
रजनी से दामन भर दिया ।

तप ये नही ! तो और क्या ?
तू ही बता कितना तपूं
तपन की इस अगन ने 
क्या क्या न मेरा रज हुआ।

मैं हूं अलग या तो मुझे
यह झलक आ कर दिखा,
या मेरे विश्वास को
"परमात्म हूं" सच कर दिखा ၊

नित निरन्तर जूझता 
जिन्दा हूं, या हूं, जी रहा
तू ही बता , तू ईश है
पाने की तेरी राह क्या ?

जड़ नही, हूं पशु नही , 
औरस मनु सन्तान हूं
इस धरा पर आज भी 
मैं ही, तेरी पहचान हूं ၊

फिर भटकता क्यूं फिर रहा
स्वयं की ही खोज में
ये भरम क्यूं भर रहा
फिर मेरी इस मौज में ၊

आ तनिक मुझको बता
मैं पृथक क्यूं कर हुआ
आत्म मैं परमात्म तू ,फिर
योग क्यूं क्षितिकर हुआ ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक 25.04.2020
इंदौर

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

अर्णव- मानव द्वन्द

अर्णव- मानव द्वन्द

था बैठा तट पर,
तकता, 
मैं लहरों को,
औ , 
पारावार ,
झांक रहा था
मुझमें
अपनी लहरों से ၊

वह व्यग्र , अनन्त,
उदधि, ज्यों
अपनी अनन्त बाहों को, 
विस्तारित कर ,
आलंगित करने को ,
मुझको , मुझ से
मांग रहा था ၊

मैं विह्वल था,
उसके अशौच ,
फेड़ित अश्रु नीर से,
वह उद्‌वेलित 
पीड़ित मेरे 
हिय पथ को लख ၊

अनन्त क्षितिज तक 
विस्तारित
अर्णव वक्ष,
चंचल , निश्च्छल 
अनगिनत प्राण का
आश्रय स्थल ,
स्वयं आशुतोष भी
पा जाता शीतलता
जिस पर उतर बिखर
आभा दे जाता स्वर्णिम 
नीलाम्बरी नदीश को ,
प्रतिफल में ၊

वाह, रे मनु वंशज !
कृतघ्न तू ,
जो तेरा पालक, 
रहा आदि से,
वह पूजनीय , 
जो करता आया ,
पोषण,
तेरा हर क्षण ,
मैला करता फिरता
तू उसका
ना , केवल बाह्य आवरण
वरन, ह्रदय प्रदेश भी
अपनी कलुषित 
सोच प्रदर्शित कर ,
अपने हर त्याज्य
तत्व से
आपूरित कर निरन्तर ၊

हा !
धिक्कार तुझे ,
ऐ मानव ,
पुरखों की थाती,
अनगिनत रूढ़ियां
और प्रथाएं,
कर
पददलित ,
भोगने को
बस वैभव,
भोग्या सा करता
व्यवहार ,
प्रकृति से ,
फिरता फुला तू छाती ၊

रे,अधम ၊
प्रकृति का रक्षक
है निःस्पृही ,ये अर्णव ၊
अनगिनत बार
प्राच्छालित किए है
इस वसुधा को ,
मिटा कर अस्तित्व तेरा ၊
ना भूल ,
रक्षक के बल को ,
अपने अहं को पोषित कर ၊

है धर्मनिष्ठ , अनुशासित भी,
पयोनिधि , पर,
धरा से धर्म 
नष्ट न होने देगा,
पद बढ़े अगर
इस दिशा तुम्हारे ,
यह उदधि 
तुम्हे
फिर यहां ,
बसने ना देगा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव (यह कविता आरम्भ हुई दिनांक ०८.१०.१९ को चन्द्रभागा समुद्र तट पुरी में व पूर्णता को प्राप्त की आज दिनांक ०२.११.१९ को इन्दौर से भोपाल के ट्रेन यात्रा में)

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

गज़ल खामोश नज़र का ये असर

ग़ज़ल

खामोश नज़र का ये असर , कुछ धीमा धीमा है
विंदास अदा का ये कहर ,  कुछ धीमा धीमा है

देखो ठहर सी जाती अब , जीवन की तड़पती चपला ये
पायल की रुनझुन का ये असर, कुछ धीमा धीमा है

प्यासी तड़पती बुलबुल ये , मर जाये ना इक आश लिए
मद से भरे अधरों का असर , कुछ धीमा धीमा है

बिखरी सबा में खुशबूए , गश खाने लगा दिल ठहर ठहर
ज़ुल्फो का तेरी , खुशबू का असर, कुछ धीमा धीमा है

ये शोख अदा ये बांकापन , उस पे ये जवां अंगड़ाई
यौवन की तेरे, इस मय का असर , कुछ धीमा धीमा है

खामोश नज़र का ये असर , कुछ धीमा धीमा है
विंदास अदा का ये कहर ,  कुछ धीमा धीमा है

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

छा रहा कुहासा आज फिर
सभ्यताएं सिहर फिर रही हैं
नव कोपलें पीत हो रही हैं
दरख्त असहाय से खड़े हैं

कराहती दिख रही हर दिशाएं
हवाएँ बिषैली बह रही हैं 
फूलों में बारूद की गंध



हम अपनी सुविधाओं का 
कितना ध्यान रखते हैं
दूसरों की असुविधाओं से
हो बेपरवाह
पीड़ा क्या होती है
तभी पता चलता है
जब होती स्वयं को वह
दूसरों की पीड़ा बेमतलब की
हमें उससे लेना व देना क्या

बना लेते हैं अनेको बहाने
जब जरा अड़चन आती है 
अपनी सुविधाओं में
दूसरों से छिनने को सुविधाएं
भले  ही जी रहा हो वह पीड़ाओं में


बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

"बहल जाता हूं " गज़ल

बहल जाता हूं अब तो
खुमार - ए - गम से 
खुशियों की तमन्ना
अब किया नही करता ।

टीश , दिल में , दिमाग में
या  हो बदन में 
अश्क का इंतजार 
अब किया नही करता ।

ख्वाब दिल में रहे
जितनी भी हसरतें ले कर
ख्वाबों पर एतबार
अब किया नही करता ।

टूटना बिखरना 
कहा करते किसको
इनका दर्द सुमार
अब किया नही करता ।

पास आ कर तुम
क्या पाओगे मुझमें
दुनिया में  खुद को सुमार 
अब किया नही करता ।

महफिल से जा 
ख्वाबों में  न आओ यूं 
ख्वाबों पर  मैं एतबार 
अब किया नही करता ।

दिनांक २३ . १० . २४