विकार
नही दिखता अब
वह नीला आकाश
और नही बहती अब
शीतल मंद सुगन्ध लिये हुए
वह बयार
जो कुछ वर्षों पूर्व
मेरे बचपन से युवा होने की
गतिमान अवधि में
मेरी इन्द्रियों नें अनुभव की थी ।
वह निर्झर कल कल कर बहता
सरिता जल भी
मलिन सा हो चला है
अविरल निर्झरणी का
अपना पद, खो चला है
वो पहाड़ी सोते
पोखर, तालाब, ताल, गढ़इयां
जहां हम गोते लगाते
जिनके तट खाना बनाते
खाते और उसी का जल
गटागट पी जाते
आज मलिन हो सो चुके हैं
या गंदगी के ढेर में
खो चुके हैं ।
वे रंग बिरंगी तितलियां
टिड्डे मेढक व केचुए
जिनके पीछे भागते फिरते थे
झुण्ड के झुण्ड बच्चे
कहां दुबक गये है
दिखते ही नही ढूढ़ने पर भी
इन्हे धरती ने लीला
या आसमान में खो गये हैं ?
गौरय्या , गिद्ध, कौए, चील
ना जाने कितने नभचर
जो धरा की शान थे
अद्भुत कलाकार के
कला की जान थे
जो धरती के कैनवास पर
बिखरे प्राण थे
ढूढने पर ही कदाचित
मिल जायें
जैसे वे भी अलविदा कद रहे हों
मानवीय सभ्यता को ।
ऋतुएं भी अब सुहानी कहां हैं
कब आयें कब जायें
कहां अब इनकी पहचान हैं
अब स्वागत में नही रहता कोई
इनकी आहट घबड़ाहट
लाती है
जबकि ये ही धरा की थाती है
धरा ही अब इनसे परेशान है ।
धुंध और कुहासों के बादलों ने
डेरा सा डाल रखा है
प्राणवायु की खोज में
हर प्राणी इनमें जा धंसा है
हर तन व मन विह्वल हो चला है
प्राण घट रहे हैं पवन बट रहा है
महानगर, नगर, गांव व वनों की
बंटी वायु है अब
प्रतिगमन कर रही
धनकुबेरों की बस्ती
आ रहे सांसत में
वनचर सारे
हे प्रकृति रच दे पुनः
ऐसा कोई आख्यान
स्वच्छ हो धरा
निर्द्वन्द हो हर प्राण ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
लोक भवन , भोपाल
दिनांक : १२.१२.२५