शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

बयारी ये बरखा

वो छू गई जो
मदमस्त कर गई वो
सिहरन जगी जो
गई रूह तक वो
बजी रागनी जो
गुंजित अभी वो
खो सा गया हूं
इस रागनी में
घुल सा गया हूं
बन गंध हवा में
अभी भी है सिहलन
तन में व मन में
जगी जो है थिरकन
जीवन की उमंग में
हैं बदरा कि ये
छटते नहीं हैं
पवन वेग से भी
हटते नहीं है
आषाढ़ी ये बून्दे
तपता बदन है
बयारी ये बरखा
झुलसा ये तन है
न छुई ये तन को
गई सीधे मन को
मैं भीगा नहीं हूं
मचल सा गया हूं
लगा अंग इसको
पिघल सा गया हूं

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर, दिनांक ०५.०७.१७

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

माया का खेल

अब तक गूंज रहें हैं
वे शब्द
आंखो ने जिनको सुन
किया था
कर्ण पटल पर अंकित मेरे
" कुछ नही है मेरे दिल में
आपकी खातिर "
प्रेम, घृणा, तिरस्कार के
भावों के मध्य
अनेको अन्य भाव हैं जाग्रत
परा जगत के
मैं भी जान रहा , तुम सा ही
जिन्हे छिपा सकेगा कोई
क्यूं कर ।

हूं जान रहा
बहता हूं अब भी
उसी तरह 
तेरे हिय के, लहू कणों में
सांसों में भी तेरी
वैसे ही भरा हुआ हूं
जैसा खुद 
अनुभव करता हूं तुमको
अपने रक्त कणों में
और
अपान , उदान, व्यान, समान
के संग प्राण वायु के
हर आरोह अवरोह में ।

कितना निष्ठुर किया होगा तुमने
अपने हिय को
तरल सरल अविरल
बहती सरिता को
शुष्क रेत में परिवर्तित
बस,  तुम कर सकती हो

बस मेरे खातिर
हर झंझावात से दूर
मुझे करने को
तुमने बड़वानल को
खुद के खातिर 
आज चुना है
मुस्कान लिये अधरों पर
श्रृंगारिक
अग्निपथ पर
अपना जीवन होम दिया है ।

ना तुम भूल सकोगे
मुझको
ना मैं तुमको
पर 
आभासित इस जीवन में
तेरे कथनों का
मान रखूंगा
कि तेरे हिय में 
कुछ नही है
मेरे खातिर,
ना प्रेम ना घृणा
पर इससे इतर
जानना है बहुत
समाया जो इन सब से परे
है परा जगत की माया ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 2 जुलाई 2025

अषाण घन

अषाण घन 

छाये अषाण घन चहुंदिश नभ में
शुष्क धरा पर अंधियारी छाई
अधिवासी वन, पुर, पुरवा के
झूम उठे बरखा ऋतु आई ।

चहक रहें सब थलचर नभचर
जलचर ने भी तरुणाई पाई
सरसर सरसर बहे पवन है
बूंदो ने अगुवाई पाई ।

रिमझिम रिमझिम गाती बूंदें
पड़ धरती पर ताल बजाई
सोंधी सोंधी महक बिखरती
चपला चमक नृत्य दिखाई ।

मार्तण्ड छिपे वारिद में जा कर
उद्विग्न प्राण ने शीतलता पाई
जग आनन प्रमुदित फुहार तक
घन दुदुंभि दे बजे बधाई

बाजत ढोल दुदुंभि तुल्य घन
आतप दबा पावस ऋतु आई
इकसार बना रहा कब कोई
काल चक्र बस ले अंगड़ाई ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ०२.०७.२०२५











शुक्रवार, 27 जून 2025

क्यूं रोता है

क्यूं रोता है

गीता कहती क्यूं रोता है
कौन था वो ! जिस पर रोता है
जन्म पूर्व अज्ञात रहा जो
स्वयं था आया स्वयं गया जो
उस हेतु ये क्रन्दन क्यूं करता है
गीता कहती क्यूं रोता है

वह एकाकी यायावर था 
आदि काल से अनन्त काल तक
कर्म जनित प्रारब्ध साथ ले
ध्येय धरा का, पथिक निरन्तर
उसका पथ कंटक क्यूं होता है
गीता कहती क्यूं रोता है

जितने क्षण का कर्म भोग था
भोग, धरा से गया पथिक वो
शेष कर्म का ऋण भरने को
या मुक्त किसी को कर जाने को
प्रारब्ध मर्म कब सोता है
गीता कहती क्यूं रोता है

तू भी तो बस भोग रहा है 
प्रारब्ध बने हुए कर्मों को
तू भी इक दिन जायेगा ही
संचित कर के अपने कर्मों को
उऋण कहां कोई होता है
गीता कहती क्यूं रोता है

मोक्ष यहां बस उसने पाया
साक्षी बन जो कर्म निभाया
निर्लिप्त जगत में रह सकते हो ?
सबमें स्व को लख सकते हो ?
नहीं ! तब धैर्य यूं क्यूं खोता है
गीता कहती क्यूं रोता है

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक :  ३०.०६.२५





अबूझ अनन्त 

गुरुवार, 26 जून 2025

प्रेम

यदि किसी हृदय में 
स्पन्दित होता है, प्रेम ,
ना जाने क्यूं ,
हृदय मेरा
अनायास ही , 
गीत प्रेम का गा उठता है ၊
और बनाने पुष्प ,
हर मुकुल ह्रदय को,
एकाकी ही,भ्रमर सदृष्य
गुंजित हो उठता है

घृणा ,क्रोध की
छल , कपट की
लोभ , मोह की
जो अनगिनत तरंगे
चहुदिश छाई
उन घोर तमस की 
बदली से,
तड़ित सदृष्य
प्रेम रश्मि मोहित कर देती
और ह्रदय मेरा
दीपस्तम्भ सा
उसे भेजता सन्देश 
समधरा पर
आने को
प्रमुदित हो,
"जीवन मधुमय प्रेम पुष्प"
यह बतला 
तम के कंटक दलदल से
ना घबराने को ၊

संघर्ष सदा है जीवन
पर आनन्द वहीं है
संघर्षहीन पथ 
रस स्वाद औ गंधहीन
बस भोग देह ,वह 
जीवन आनन्द नही है ၊

प्रेम सुधा से सान 
ईश ने यह गेह रची है
जगा उसे 
खुद जाग ,प्रेममय कर,
हर क्रिया ,कर्म को
अमर नही तू , तू भी जायेगा ही
पर,संघर्षों से जीवन के,
यूं हार मान कर,
अपने ही हाथों ,
अपने,अद्‌भुत जीवन को
ना मिटा इसे ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक 27.06.2020

मंगलवार, 6 मई 2025

महामहिम

मैने देखा है 
राज पुरुष इक ऐसा भी
जिसमें जीती संवेदनाएं
धर रूप अनेकों
अपने अपने स्तर पर
मानव तन धर ।

राजपुरूष
वह , गणमान्य प्रथम
जिसके चहुंदिश 
गुंजित,अजश्र शक्ति की
छंद ऋचाएं
पर निर्लिप्त सा वह
सौम्य, अथक, करुणाकर
है अन्तस पाये ।

वय जर्जर
मन काया सुघड़
पुरुषार्थ चतुर से 
गढ़ा हुआ तन,
मन - करुणा 
करुणाकर सी
दयानिधी की छाया है

मानस - वाणी - कर्म त्रयी
ऋजु रेखा से गमन करें
मनु वंशज की प्रथम पंक्ति सा
हर में स्व का मनन करे

राज नही, सेवक सा स्वामी
चिन्तन मात्र,अकिंचन सेवा 
मानव तन पा, उद्धार कर सकूं
तपी व्रती साधक की रेवा 

चाह नही वैभव की कोई 
राह कंटकी अवरोध नही हैं
अथक निरन्तर ध्येय ध्यान धर 
चरेवेति का गान करे है ।

चिन्तन, अनुकरणीय है, जीवन में
मानव तन जो पाये हैं;
दलित पतित को, पावन करने
जो वानप्रस्थ खपाये हैं

निरोगी काया संग आयु दीर्घ हो
सभी कामना करते हैं
वरदहस्त यूं रहे राजभवन पर
सब किलकारी भरते हैं ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ११.०६. २०२५










बुधवार, 30 अप्रैल 2025

जीवन की राह

जीवन की राह

मैं जीता हूँ टुकड़ो में, हर पल को इक जीवन मान
जीवन है इक अबूझ पहेली,क्यूँ, कैसी,हो झूठी शान

अगले पल की खबर नहीं जब, क्यूँ न जीऊं हर पल को
रेवा तट बालू पर बैठूं या तका करूँ मैं मलमल को

तेरे सुख से ना खुश होंगे सब, ना दुःख तेरा तडपाएगा
ना जी जीवन किसी और का, अपना भी खोता जाएगा

सब के अपने दुःख सुख हैं काल चक्र का खेल है ये
पल पल जी ले अपना जीवन आदि शक्ति का मेल है ये

पर जान ले जीवन क्या है, जिसे मैं जीना कहता हूँ
जो मैं जीता हूँ हर पल,परे मौत जो कहता हूँ

आन रखो पर शान नहीं, मान रहे अभिमान नहीं
प्रज्ञा संग ज्ञान रहे पर,अहंकार कृति गान नही

धन दौलत ,पद, बल से, क्या आनंद खरीदा जा है सका
मृगमारीचिका ने अब तक क्या प्यास किसी की बुझा है सका

अंतस शुद्ध रखो जो सदा, सब में प्रतिबिंबित होगे तुम
दे न सकोगे दुःख उन्हे बस सुख उन्हे बाँटोगे तुम

कर्म राह को सीधी रखना सुख श्रोत यही है जीवन का
दुःख मिले राह में तो जानो कर्म फलों का ये है लेखा

सुख कपोत को खुला गगन दो लौट लौट वो आएगा
दुःख बस है इक आगंतुक कहाँ ठहर वो पाएगा

सानिध्य मिले जिसे तुम्हारा चाहे वह हो क्षण भर का
दुःख का कण हर, हर लो उसका दे दो सुख घट भर का

हर क्षण जी लो ऐसा जीवन भूल रहो कल क्या होगा
सुख शान्ति नहीं जब जीवन में, तो जीवन का ही क्या होगा

मौत आ रही हो अगले पल, भय, चिंतन क्या करना
जब जीवन ही है इक क्षण का युगों युगों का क्या करना

उमेश कुमार श्रीवास्तव (२९.०४.२०१६)