सोमवार, 20 जनवरी 2025

कब तलक चलेगी यारों,तेगे जुबां फिजूली
कुछ तो रहम बख्सो, वतन के नाम पर अब

.......उमेश

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

सलाम कर तुम भी कमाल करते हो
सलीके से रंजिश को तमाम करते हो ।
उमेश १०.०१.२४

मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

नव वर्ष अभिनन्दन

वसुंधरा की हम संतान
करें नित मंगल गान
नये वर्ष की हर किरण नई
 दे उर्जा नई व उमंगित  प्राण.........उमेश

सोमवार, 9 दिसंबर 2024

प्रेम तुमअनुपमेय हो

प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई 
प्रेम तुम अनुपमेय हो

था मिला 
तुमसे प्रथम
जब गर्भ में था पल रहा
सींचती थी पोषती थी
स्वयं को गला गला
प्रेम का ही रूप
स्नेह 
था नही तो और क्या ?
तू मिला मां बन मुझे ।

फिर मिला तू मुझे
स्पर्श के रूप में
जब जगत में
जग उठा था
किलकारियों का स्वर मेरा
और बढ़ कर
स्नेहिल करों ने
दुलार से छुआ मुझे
रोमांच की अनुभूति से
सिहरी थी लघु काया मेरी
जाना कि स्पर्श होता है क्या !

फिर पिता की गोद में
सकुचा सिमट आये थे तुम
प्यार के उस रूप से
इक दिलासा था मिला
मृदु नही कठोर जग है
पर हर जगह संग हूं खड़ा
प्यार का यह रूप मुझमें
पाषाण सा भर गया
जिस पर 
था सुधा रस झर रहा ।

फिर अनेकों रिस्तों में 
छिप छिप, 
तू मुझे आ कर मिला
प्यार बन तकरार बन
और अनोखा लाड़ बन
बिन कहे बिन सुने
अहसासों मे घुलता हुआ
अस्तित्व को तू मेरे
हौले हौले गढ़ता हुआ ।

हूं देखता जो आज जग को
कण कण में पाता हूं तुझे
इस धरा के हर रूप में
मुझको दिखे बस प्रेम है
चाहता बस प्रेम पाना
और लुटाना बस प्रेम है
इसलिये कहता हूं मैं
प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई 
प्रेम तुम अनुपमेय हो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
१४ . १२ . २४




शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

मोती छिटकती हो धरा पर 
रात भर
हो सजाती तृण पात 
कुसुम पाषाण भी
ऐ चांदनी तुम अथक !
क्या चाह ले ?

रजनी संग मेल तेरा
तारों ने लिखा है
आकाश सारा मुग्ध 
लख नक्षत्र सारे 
जो खड़ा अगवानी को
स्वागत में तेरे

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

चाहत क्या है, आओ कह दूं
मन के परदे को थोड़ा सरका
अन्तस की बगिया में ले जा
अभिलाषाओं के दर्शन दे दूं
चाहत क्या है , आओ कह दूं ।

सुन्दर हो निर्झरणी जैसी
हो कपास की डलियों जैसी
कचनार पुष्प भी सकुचा जायें
हो रंगत यूं परियाँ जैसी

हिम आलय की झील सी आंखे
केश राशि ज्यूं छाये घन

गुरुवार, 28 नवंबर 2024

               मेरे विचार

प्रथाएं  अनुशासन हैं ।
दृढ़ हो चुके अनुशासन ही रुढ़िया परम्पराएं हैं ।
इस धरा के एक पशु को मानव बनाने के लिये ,
जो गढ़ी गई ,
युगों के हर काल खण्ड में
 समग्र सोच वाले बुद्धिजीवी 
विशुद्ध आत्माओं द्वारा ,
जो शरीर को ही स्व नही मानते थे 
और धरा के अन्य पशुओं से अलग करने हेतु 
मानवों को सरलता से ,
इक सुगम सुरम्य पथ देना चाहते थे ,
सुसंस्कृत सुसभ्य समाज गढ़ने के लिये । जिससे हम दिख सकें अन्य वन्य प्राणियों से पृथक ।
पर आज वही प्राणी ( मानव ) अनुशासन को जंजीर बता
स्वतन्त्र होना चाहता है
पुनः जंगली जन्तु बन स्वच्छन्द होने के लिये ।
ब्रम्हाण्ड का हर कण, 
कणों से ही गठित 
विशालतम ग्रह नक्षत्र आदि पिण्ड का
अस्तित्व भी 
अनुशासन से ही चल रहा
उनमें रेसे  के शिरे के करोड़वें हिस्से का भी विचलन
ब्रम्हाण्ड के अस्तित्व को मेटने का सामर्थ रखता है .
हे मानव अनुशासन की शक्ति को पहचान
उसे दकियानूसी कह 
जंगली स्वच्छन्दता के आवरण के आकर्षण से  बच ।
प्रथाओं , रुढ़ियों व परम्पराओं में
समय , काल , परिस्थितियोँ के अनुरूप
मानव हित में
परिवर्तन परिवर्धन संशोधन करना उचित है
पर किनके  द्वारा 
यह विचारणीय है
भीड़ तन्त्र के नायक अनुपयुक्त हैं
समाजिक मानवीय चिन्तन के पुरोधाओं को चुनना होगा
जो अनन्त तक 
सन्ततियों के प्रवाह को दृष्टिगत कर
संस्कारों को गढ़ने में हों समर्थ
न कि खाओ पियो मौज कर जीओ के अनुगामी नेतृत्व
जो स्व तक सीमित है
जिनके भान में
उनका जीवन ही इस धरा का अन्तिम 
शोषक प्राण है ।
रे मानव 
अनुशासन में जीने की उन्मुक्तता 
स्वतन्त्रता है
अनुशासनहीन जीवन स्वच्छन्दता,
इसे जान
कर निर्धारित कि तुझे बनना क्या है
स्वच्छन्द जानवर या स्वतन्त्र इन्सान ।


          उमेश कुमार श्रीवास्तव
                    भोपाल