अर्णव- मानव द्वन्द
था बैठा तट पर,
तकता,
मैं लहरों को,
औ ,
पारावार ,
झांक रहा था
मुझमें
अपनी लहरों से ၊
वह व्यग्र , अनन्त,
उदधि, ज्यों
अपनी अनन्त बाहों को,
विस्तारित कर ,
आलंगित करने को ,
मुझको , मुझ से
मांग रहा था ၊
मैं विह्वल था,
उसके अशौच ,
फेड़ित अश्रु नीर से,
वह उद्वेलित
पीड़ित मेरे
हिय पथ को लख ၊
अनन्त क्षितिज तक
विस्तारित
अर्णव वक्ष,
चंचल , निश्च्छल
अनगिनत प्राण का
आश्रय स्थल ,
स्वयं आशुतोष भी
पा जाता शीतलता
जिस पर उतर बिखर
आभा दे जाता स्वर्णिम
नीलाम्बरी नदीश को ,
प्रतिफल में ၊
वाह, रे मनु वंशज !
कृतघ्न तू ,
जो तेरा पालक,
रहा आदि से,
वह पूजनीय ,
जो करता आया ,
पोषण,
तेरा हर क्षण ,
मैला करता फिरता
तू उसका
ना , केवल बाह्य आवरण
वरन, ह्रदय प्रदेश भी
अपनी कलुषित
सोच प्रदर्शित कर ,
अपने हर त्याज्य
तत्व से
आपूरित कर निरन्तर ၊
हा !
धिक्कार तुझे ,
ऐ मानव ,
पुरखों की थाती,
अनगिनत रूढ़ियां
और प्रथाएं,
कर
पददलित ,
भोगने को
बस वैभव,
भोग्या सा करता
व्यवहार ,
प्रकृति से ,
फिरता फुला तू छाती ၊
रे,अधम ၊
प्रकृति का रक्षक
है निःस्पृही ,ये अर्णव ၊
अनगिनत बार
प्राच्छालित किए है
इस वसुधा को ,
मिटा कर अस्तित्व तेरा ၊
ना भूल ,
रक्षक के बल को ,
अपने अहं को पोषित कर ၊
है धर्मनिष्ठ , अनुशासित भी,
पयोनिधि , पर,
धरा से धर्म
नष्ट न होने देगा,
पद बढ़े अगर
इस दिशा तुम्हारे ,
यह उदधि
तुम्हे
फिर यहां ,
बसने ना देगा ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव (यह कविता आरम्भ हुई दिनांक ०८.१०.१९ को चन्द्रभागा समुद्र तट पुरी में व पूर्णता को प्राप्त की आज दिनांक ०२.११.१९ को इन्दौर से भोपाल के ट्रेन यात्रा में)