शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

प्रेरणा

मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो
यथार्थ की धरा पर अहसास को
भावना से दूर कर यूं ना उतारो
मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो ।

रूपकों से रिस रही रस धार तुम 
गूंजती जो छन्द मे अनुस्वार तुम
हूं तृषा, बदरी मेरी बरखा की तुम
मुझको भी कोई नाम दे अब तो पुकारो।
मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो ।

दिख रही हो सामने पर दूर हो
कुछ तो कहो क्यूं आज यूं मजबूर हो
थे चले हम साथ, तुम सब जानती
संग चलने, सहचर मेरे, फिर से पुकारो
मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो ।

टूटा नही, बिखरा नही,दरका नही
बात इतनी  कि अभी हरखा नही
हरितमा की चाह में पीत होता जा रहा
आतप मेरी रश्मि अपनी मुझपे भी डालो
मैं बनाता हूं तुम्हे, तुम ना बिगाड़ो ।

शव रहा हूं, शक्ति मेरी हर युग रही तुम
आश में विश्वास भर, जगती रही तुम
बन युगल,उल्लास भर,अवनि जो सजाई
रसमई, अब इस धरा को, यूं ना उजाड़ो
मैं बनाता हूं तुम्हे, तुम ना बिगाड़ो ।

प्रेम का तन्तु, विशुद्ध अध्यात्म जग में
तुमने दिया था मुझे, यह ब्रम्ह चिन्तन
चिन्तन यही जब बन गया सार जीवन
मरुभूमि सा अस्तित्व मेरा ना बिगाड़ो
मैं बनाता हूं तुम्हे, तुम ना बिगाड़ो ।

उमेश कुमार श्रीवास्त
भोपाल से निजामुद्दीन यात्रा
भोपाल एक्सप्रेस
दिनांक : १९.१२.२५





धरा है जीवन, जल है जीवन
वन जीवन है , पवन है जीवन
प्राण जगत में श्रेष्ठ है मानव, पर,
श्रोत सभी का रवि है जीवन ।

बुधवार, 17 दिसंबर 2025

नाद

रश्मियों का नाद, मैने सुना है
सन्नाटे की आवाज, मैने सुना है
गुनगुनाती सुनी हैं दश दिशायें
ब्रम्ह स्वर विलक्षण, भी सुना है

पर्वतों, कंदराओं और घाटियो की
सरगमी ध्वनि साज जो गुन सको
तड़ित सा मुस्कुरा तुम कह सकोगे
मदन स्वर बांसुरी का मैने सुना है

झूमते तरु,शाख गाती मल्हार जब
पल्लवों से टपकती जब अल्हड़ बूंदें,
जो साध लो संगीत इनके, हृदय पट पर 
कह दो अलौकिक संगीत मैने सुना है

तितलियों से बात करते मृग स्वरों को
झूमते चिग्घाड़ते गज - नग स्वरों को
सरिता हृदय सहलाती, पवन जिस स्वर
पुष्प - भृंग संवाद सा उनको सुना है ।

हर नाद मेरी नाद में यूं घुल गई है
ॐकार की नाद सा अब हो चला हूं
अनहद तो नही ! उस सा बनने हूं लगा
आत्म ध्वनि,स्वर, नाद को जब से सुना है ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
लोक भवन , भोपाल
दिनांक : १८ .१२.२०२५

मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

मदान्ध

मदान्ध

मद बोझ
चाहे पद, बल, धन
या रूप यौवन का हो
सबसे काट देता है
जिस सिर चढ़ा
मद कनक बन
मानव की योनि से
उसे वह बांट देता है ।
जिन्दगी जीता नही वह
उसे जी लेती है जिन्दगी
इच्छाओं कीअसीमता
में चिंतित मदान्ध
क्षण प्रति क्षण
सुलगती चिता का
साथ देता है।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
लोक भवन , भोपाल
दिनांक : १७.१२.२०२५

रविवार, 14 दिसंबर 2025

आकर्षण

आकर्षण

आकर्षण
माया जाल का वह अदृष्य रेषा है
जो तंतु भी है 
हिनहिनाहट व दहाड़ भी
पर अनिश्चित
क्यों कि इसमें
विकर्षण का योग भी
छिपा रहता है यूं
जैसे जन्म में छिपी मृत्यु ।

अद्धैत का घोष
दृष्यमान अनेकता
भ्रम है दृष्टि का
तार्किक विचार शक्ति व अहंकार का
जो ऊर्जा ब्रम्हाण्ड में व्याप्त है
वह नित निरन्तर है
अखण्ड अविभाज्य
दो फलकों के साथ
दृष्य व अदृष्य
उसी ऊर्जा की प्रतिकृति हैं सभी
कोई धनी ऊर्जा 
कोई ऋणी ऊर्जा 
के संवाहक

आकर्षण  - विकर्षण 
कब कहां होगा 
उसके उद्भव क्षेत्र पर 
निर्भर करता है
अतः मेल, ऋजु होगा वक्री होगा
या मिलन में अश्व सा वेग होगा
या होगी शेर की दहाड़
सब अनिश्चित है
पर इस धरा पर 
आकर्षण सनातन
सुख आनंद का पुनः मिलन है
विकर्षण विपरीत इसका ।





'रेषा' (Resha) के कई अर्थ हैं, जिनमें मुख्य रूप से रेखा (Line), यानी एक लंबा निशान या सीमा, और रेशा (Fiber), यानी धागा या तंतु, शामिल हैं; इसके अलावा, यह संस्कृत में घोड़े की हिनहिनाहट या शेर की दहाड़ के लिए भी इस्तेमाल होता है, और कभी-कभी इसका अर्थ 'अनिश्चित' भी होता है, खासकर पुराने दस्तावेजों में. 

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

विकार

विकार


नही दिखता अब
वह नीला आकाश
और नही बहती अब
शीतल मंद सुगन्ध लिये हुए
वह बयार
जो कुछ वर्षों पूर्व
मेरे बचपन से युवा होने की 
गतिमान अवधि में 
मेरी इन्द्रियों नें अनुभव की थी ।

वह निर्झर कल कल कर बहता
सरिता जल भी 
मलिन सा हो चला है
अविरल निर्झरणी का 
अपना पद,  खो चला है
वो पहाड़ी सोते
पोखर, तालाब, ताल, गढ़इयां
जहां हम गोते लगाते
जिनके तट खाना बनाते
खाते और उसी का जल
गटागट पी जाते
आज मलिन हो सो चुके हैं
या गंदगी के ढेर में
खो चुके हैं ।

वे रंग बिरंगी तितलियां
टिड्डे  मेढक व केचुए
जिनके पीछे भागते फिरते थे 
झुण्ड के झुण्ड बच्चे
कहां दुबक गये है
दिखते ही नही ढूढ़ने पर भी
इन्हे धरती ने लीला
या आसमान में खो गये हैं ?

गौरय्या , गिद्ध, कौए, चील
ना जाने कितने नभचर
जो धरा की शान थे
अद्भुत कलाकार के 
कला की जान थे
जो धरती के कैनवास पर
बिखरे प्राण थे
ढूढने पर ही कदाचित
मिल जायें
जैसे वे भी अलविदा कद रहे हों
मानवीय सभ्यता को ।

ऋतुएं भी अब सुहानी कहां हैं
कब आयें कब जायें
कहां अब इनकी पहचान हैं
अब स्वागत में नही रहता कोई
इनकी आहट घबड़ाहट 
लाती है
जबकि ये ही धरा की थाती है
धरा ही अब इनसे परेशान है ।

धुंध और कुहासों के बादलों ने
डेरा सा डाल रखा है
प्राणवायु की खोज में 
हर प्राणी इनमें जा धंसा है
हर तन व मन विह्वल हो चला है
प्राण घट रहे हैं पवन बट रहा है
महानगर, नगर, गांव  व वनों की
बंटी वायु है अब
प्रतिगमन कर रही
धनकुबेरों की बस्ती
आ रहे सांसत में  
वनचर  सारे

हे प्रकृति रच दे पुनः
ऐसा कोई आख्यान
स्वच्छ हो धरा
निर्द्वन्द हो हर प्राण ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
लोक भवन , भोपाल
दिनांक : १२.१२.२५