मद-नार
(कचनार)
ऐ
कचनार
बहुत
भाते
हो,
नयनो
के
सहारे
दिल
में
उतर
जाते
हो
कहाँ
से
लाते
हो
ऐसी
नक्कासी, नफ़ासत
दूध
मिली
केशर
की
रंगत
रिझाने
को
विश्वामित्र
का
भी
तप,
खंडित
कर
उसे,
मदन
बनाने
को
शाखाओं
पर
तेरा
इतराना
रति
का
अहसास
जगाता
है
मदमस्त
कर
तन
मन
दोनो
पूरी
काया
को ,
सम्मोहित
कर
जाता
है
तेरी
भीनी
सी, मीठी
सी
सुगन्ध
काया
ही
नही
अंतस
को
भेद
जाती
है
मेरे
अस्तित्व
का
हर
भेद
खोल
जाती
है
तेरा
आना, गदराना
तेरा
खिलना, मुरझाना
जज्बातों
को
बे- परवाह
बना
जाता
है
तंगदिल
मौसम
से
रही
शिकायत
ये
सदा
तुझसे
दिल
की
कभी
कहने
न दी
रूबरू
हो
जैसे
ही खोया तुझमे
ये
बेमुरौआत
बदल
जाता
है
उमेश
कुमार श्रीवास्तव (१२.०२.२०१६)
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