रात भर
हो सजाती तृण पात
कुसुम पाषाण भी
ऐ चांदनी तुम अथक !
क्या चाह ले ?
रजनी संग मेल तेरा
तारों ने लिखा है
आकाश सारा मुग्ध
लख नक्षत्र सारे
जो खड़ा अगवानी को
स्वागत में तेरे
क्यूं बिखरी सी लगती हो
तुम पर
कुछ तो कहो
न निः शब्द बैठो
यूं आह भर ।
बात क्या है ?
हो मौन क्यूं ?
विरहाग्नि को शीतल
कर रही हो
किस अग्नि में
फिर , तुम यहां ,
यूं जल रही हो
रजनी गई
छोड़ झीना
आवरण
भोर में अरुण ने
रच दी रंगोली
शरमा गई बन तूहिन
चाहतकों की चहेती
चांदनी मेरी ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ०५ ०५ २०२५
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें