अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई
प्रेम तुम अनुपमेय हो
था मिला
तुमसे प्रथम
जब गर्भ में था पल रहा
सींचती थी पोषती थी
स्वयं को गला गला
प्रेम का ही रूप
स्नेह
था नही तो और क्या ?
तू मिला मां बन मुझे ।
फिर मिला तू मुझे
स्पर्श के रूप में
जब जगत में
जग उठा था
किलकारियों का स्वर मेरा
और बढ़ कर
स्नेहिल करों ने
दुलार से छुआ मुझे
रोमांच की अनुभूति से
सिहरी थी लघु काया मेरी
जाना कि स्पर्श होता है क्या !
फिर पिता की गोद में
सकुचा सिमट आये थे तुम
प्यार के उस रूप से
इक दिलासा था मिला
मृदु नही कठोर जग है
पर हर जगह संग हूं खड़ा
प्यार का यह रूप मुझमें
पाषाण सा भर गया
जिस पर
था सुधा रस झर रहा ।
फिर अनेकों रिस्तों में
छिप छिप,
तू मुझे आ कर मिला
प्यार बन तकरार बन
और अनोखा लाड़ बन
बिन कहे बिन सुने
अहसासों मे घुलता हुआ
अस्तित्व को तू मेरे
हौले हौले गढ़ता हुआ ।
हूं देखता जो आज जग को
कण कण में पाता हूं तुझे
इस धरा के हर रूप में
मुझको दिखे बस प्रेम है
चाहता बस प्रेम पाना
और लुटाना बस प्रेम है
इसलिये कहता हूं मैं
प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई
प्रेम तुम अनुपमेय हो ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
१४ . १२ . २४
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