सोमवार, 9 दिसंबर 2024

प्रेम तुमअनुपमेय हो

प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई 
प्रेम तुम अनुपमेय हो

था मिला 
तुमसे प्रथम
जब गर्भ में था पल रहा
सींचती थी पोषती थी
स्वयं को गला गला
प्रेम का ही रूप
स्नेह 
था नही तो और क्या ?
तू मिला मां बन मुझे ।

फिर मिला तू मुझे
स्पर्श के रूप में
जब जगत में
जग उठा था
किलकारियों का स्वर मेरा
और बढ़ कर
स्नेहिल करों ने
दुलार से छुआ मुझे
रोमांच की अनुभूति से
सिहरी थी लघु काया मेरी
जाना कि स्पर्श होता है क्या !

फिर पिता की गोद में
सकुचा सिमट आये थे तुम
प्यार के उस रूप से
इक दिलासा था मिला
मृदु नही कठोर जग है
पर हर जगह संग हूं खड़ा
प्यार का यह रूप मुझमें
पाषाण सा भर गया
जिस पर 
था सुधा रस झर रहा ।

फिर अनेकों रिस्तों में 
छिप छिप, 
तू मुझे आ कर मिला
प्यार बन तकरार बन
और अनोखा लाड़ बन
बिन कहे बिन सुने
अहसासों मे घुलता हुआ
अस्तित्व को तू मेरे
हौले हौले गढ़ता हुआ ।

हूं देखता जो आज जग को
कण कण में पाता हूं तुझे
इस धरा के हर रूप में
मुझको दिखे बस प्रेम है
चाहता बस प्रेम पाना
और लुटाना बस प्रेम है
इसलिये कहता हूं मैं
प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई 
प्रेम तुम अनुपमेय हो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
१४ . १२ . २४




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें