उड़ते मन, चिन्तन
आत्मा का विलाप
अनहद विवर में
संताप ।
प्रकृति , पुरुष
कृष कुरूप
प्राणी,
कैसी सन्तति !
नही चिन्तन !
चिन्तित
धाता पुरुष ।
अतिरेक शोर
रोर नाद
अन्तस तक
देता झकझोर
अति घात
पिंजर के पोर पोर
हो जाते निस्पात ( विनाश )
रक्त - पानी
धमनियां शिराएं
शुष्क नालियों सम
पीड़ित घनघोर ।
किस दिशा जा रहे
प्राण
प्रण विकास का
या विनाश
प्राण का
प्राणीयों से
प्राण शक्ति
पतित पात
कीचक बने
हूहू कर झूमते
निष्प्राण तन
आत्महीन मन
अचिंतित चिन्तन
संकुचित चितवन
मोहित मंद
उलट दिशा में
गमन
धरा धर धैर्य
धीर से अधीर
फिर जग कण कण
विस्तृत से संकुचन
ब्रम्हाण्ड ब्रम्ह
पुन अण्ड ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
लखनऊ,
दिनांक : २५.११.२५
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