सरसराती पवन
गड़गड़ाता गगन
चहुदिश चमकती तड़ित
अठखेलियाँ की उमंग में
बूदों का अल्हड़पन
बूढ़ेपेड़ों का मन
शाखाओं पर लदी
पत्रवल्ली के संग
अह्लाद का अतिरेक कर
झूमता सा
नव पौध देखो वनों की
भय मिश्रित कौतूहल लिए
झुक रहे सर्वांग से
माँ प्रकृति की गोद में
भीगे बदन
परिहास करती
माँ भी कभी,दिखता यही
पर सीख देती ज्यूँ कह रही
तनना ही नही
झुकना भी
जीवन की कला है,
सीख ले
सुख में ही नही
कठिनाइयों में भी
मुस्कुरा जीना पड़ेगा
आँचल में लिपटी दूब
गिरती बूँद से
पवन के वेग से
कर रही अठखेलियाँ
बिन डरे
जिंदगी है धरा से
उड़ ना अधिक
उड़ जाएगा
लोट जा मृदा में
जीवन संजोने के लिए
तृप्ति व आनंद
इसमे ही तू
पा जाएगा
प्राणियों में प्राण
जग से हैं गये
भावना से भय
भग से हैं गये
खग बृंद पुलकित
झूमते
यद्यपि , भीगे पखों से
डालियों पर, बस घूमते
उड़ान की चाहत नही,
बस भीगने की
रूखी में ज्यूँ स्वाद
छप्पन भोग की
जल ही जीवन
जानता चर चराचर
बादलो से नेह का कारक यही
देख इन नीर दूतों को तभी
झूम जाते इस धरा के
प्राण सारे
प्रेमियों के प्रिय जैसे
जीवन के आधार
मेघ धरा पर पाते
तुम भी
यूँ ही
प्राण जगत से
अगिनित प्यार
उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २५.०६.२०१६
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