ऐ, "छोटी तुम"
क्यूं, कैसे आजाद करूं
तू ही कह दे, अय छोटी मेरी
तुझे न कैसे याद करूं ၊
जब भी उठता आंखे मलते
सुबह सबेरे रात बिता
बिखरे बालों में हाथ फिरा तू
देती अपना प्यार जता ၊
चेहरा धोऊं केश भिगो जब
टकटकी लगाये तकती तू
अपने गालों को सटा के उनसे
खड़ी वहां हो जाती तू ၊
जैसे जैसे तैयार मैं होता
सुबह सैर को जाने को
तुम भी संग संग साथ ही होती
तैयार , साथ निभाने को ၊
पग बाहर ज्यूं रखता हूं मैं
इक स्वर स्वागत करता है
"गुड मार्निंग जान" उद्घोष
मधु सम कानों में भरता है ၊
अब एकाकी चांद गगन में
तीनों तारों से बिछड़ गया
सब रीते हैं, चुके खड़े हैं
अर्थ ही उनका बिगड़ गया ၊
सुबह की ठंडक कानो में भरती
हाथों के पंजे सुन्न पड़े
कौन कहे अब बांधो मफलर
नहीं तो कैप उतार रहे ၊
सूनी राहें , एकाकी डग हैं
खो गया मनोरम सैर सबेरा
तुम रूठे, जग कण रूठा है
खुशियों ने त्यागा अब ये डेरा ၊
सुबह भी होती साम भी होती
रातें भी हैं आती जाती
पर सांसों में महक तुम्हारी
तन्हा मुझको हैं तड़पाती ၊
नहीं मै कहता, तुम खुश होगी
दर्द तुम्हे भी बेहद होगा
प्रेम व्यथा का, जख्म ही ऐसा
हर अंग तेरा भी घायल होगा ၊
मेरे हित चिन्तन में तुमने
अवरोध स्वयं ही वरण किया
खुद की , मेरी प्रेम डोर को।
लक्ष्मण रेखा बना दिया ၊
तुम खुश रहना, मुझे जान खुश
बस यही मेरी अभिलाषा है
तुम सांसे हो, मेरे तन की
नित, बनी रहोगी , ये आशा है ၊
उमेश ,दि० ०५.०१.२०२०, जबलपुर से इन्दौर यात्रा ओव्हर नाइट एक्स. मक्सी जंक्सन
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