गज़ल
ना जाने क्यूं जिन्दगी, बे-साज लग रही
कुछ तो कमी है जो, बे-आवाज लग रही ၊
हूं भीड़ में अकेला , है माज़रा ये क्या
सब की नज़र है मुझ पर, नज़र बेआवाज लग रही ၊
सबा-ए-मुंतजर से, घुलती ये जिन्दगी
है मुंतज़री ये किसकी ,अनजान लग रही ၊
रग रग में घुल गई है, अहसास है जगा
जान-ए-हया है कौन ? बे-पहचान लग रही ၊
कब तक घुटूं उसके मुंतज़र में मैं
जो प्यार की प्यारी सी परीजान लग रही ၊
उमेश , इन्दौर, २८.०९.२०