प्रथम पग का उल्लास
उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय
उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को
उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन
हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,
आज होल़े प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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