प्रेम गर्भांण्ड (बीज)
नेह गुहा में प्रीत पले
अंकुर बन फिर, प्रेम जगे
करबद्ध बीज शीश झुका
अपने सारे अभिमान तजे ।
नव पल्लव अपने कर में
सारे जग का अनुराग भरे
अभिसिंचित पूरित प्रेमसुधा
जड़ को प्रेषित कर, चैतन्य करे ।
हो शुष्क मृदा या आद्र मृदा
पथरीली हो या चट्टान मृदा
बस अवशोषित कर प्रेमसुधा
वह सुरभित करता है वसुधा ।
गर्भांण्ड प्रेम,अति सूक्ष्म रहा
इन्द्रिय जगत के, परे बढ़ा
जब तक आच्छादित रही धरा
तब ही तक प्राणी चहुंओर बढ़ा ၊
जब जब रीती, स्नेह सुधा
पाषाण हुई, हर प्राणप्रभा
रणभूमि बनी फिर फिर वसुधा
विचलित,जीवन की सारी विधा ၊
हर मे पोषित बस प्रेम करो
हर पग पर वृन्दा धाम करो
रसखान बनो रणवीर तजो
हर जीवन राधे-श्याम करो ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक : १५.०९.२०
इन्दौर
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