प्रेम तृषा
प्रेम तृषा क्यूं व्याकुल करती,
इस पड़ाव पर आ कर भी ၊
जीवन रीता क्यूं लगता है ,
सुख सागर को पा कर भी ၊
जीवन सरिता का पावन जल,
सदा पोषता रहा मुझे ၊
रिक्त व्योम सा अन्तस मेरा,
रहा वही सब पा कर भी ၊
रति प्रतीक्षा रही सदा ,
मलंग,मदन से जीवन को ၊
पर,हर काया में, प्रेम, रिक्त पा,
खोया सब कुछ पा कर भी ၊
चाह रही, निर्झरणी काया,
अन्तस तक भीग रहूं ၊
प्रेम सुधा में डुबो दे मुझको,
खो दूं खुद को पा कर भी ၊
अब तक सोच यही थी मेरी
खुद मुझको वह ढूढ ही लेगी,
शीतशुष्क स्वांसो को अब भ्रम
पहचान सकूं ना ! पा कर भी ၊
उमेश: ०७.११.२०
शिवपुरी
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