बिन पुरुषार्थ
अंजुलियो में धूप भर
वैठा रहा
साथ देगी ज्यूं जिन्दगी भर
पर फिसलती ही गई
वो सांझ तक
आ गई चुपके से घनेरी रात अब
रिक्त देखूं अजुलियों को
मैं अचंभित
शुष्क मरू मृदा सी
कब तक ठहरती वो
गदेलियों पर
मैं रहा ठहरा
तलैया जल बना
ओस की बून्दो से आपूर्त होता
और सरिता राशि पर विहंसता
दूर होती जाती जो
उद्गम छोड़ कर
डूब कर आकण्ठ तम में
छटपटाहट ये कैसी
धूप की ?
क्या काम इसका ?
रवि दे रहा था प्रचूर
तब ले सका ना
अनन्त झोली लिये तू
फिर घनेरी रात में
करना विलाप
रश्मिरथी को
यूं कोसना
शोभा न अब
दे रहा
बहते समय के नद
में खड़े
गुजरे समय की बाट में
जड़ बने
मुझको जड़ की ही उपमा
दे रहा है
उमेश श्रीवास्तव
२६.०२.१८
जबलपुर
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