हमारा सुख उनका दुःख
कितना ध्यान रखते हैं
दूसरों की असुविधाओं से
हो बेपरवाह
पीड़ा क्या होती है
तभी पता चलता है
जब होती स्वयं को वह
दूसरों की पीड़ा बेमतलब की
हमें उससे लेना व देना क्या
बना लेते हैं अनेको बहाने
जब जरा अड़चन आती है
अपनी सुविधाओं में
और खोज लेते हैं राहें
उन अड़चनों को कैसे भगायें
दूसरों से छीनने को सुविधाएं
भले ही जी रहा हो वह पीड़ाओं में
हम तलासते हैं अनेको दिशाएं
अनेकों रोड़े डाल देते हैं राहों में
कहीं वो हमसे आगे निकल न जाए ।
दूसरों की पीड़ा से
कैसे आनन्दित होते हैं हम
अपनी पीड़ा में
क्यों अनुभूति नही होती आनन्द की
क्यों पीड़ा देता है यह प्रश्न
अनुतरित रह जाता है मन
तन थोड़ा तिर्यक हो
न जाने क्यों तन सा जाता है
चिन्तन शून्य में खो
जड़त्व में चला जाता है
चक्षुओं के सहारे
ज्यूं धारणा में उतर घ्यानस्थ हो
समाधि में चला गया हो। ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल :
दिनांक ०४ . ०२ . २०२५
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