शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

बयारी ये बरखा

वो छू गई जो
मदमस्त कर गई वो
सिहरन जगी जो
गई रूह तक वो
बजी रागनी जो
गुंजित अभी वो
खो सा गया हूं
इस रागनी में
घुल सा गया हूं
बन गंध हवा में
अभी भी है सिहलन
तन में व मन में
जगी जो है थिरकन
जीवन की उमंग में
हैं बदरा कि ये
छटते नहीं हैं
पवन वेग से भी
हटते नहीं है
आषाढ़ी ये बून्दे
तपता बदन है
बयारी ये बरखा
झुलसा ये तन है
न छुई ये तन को
गई सीधे मन को
मैं भीगा नहीं हूं
मचल सा गया हूं
लगा अंग इसको
पिघल सा गया हूं

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर, दिनांक ०५.०७.१७

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