चन्द मुक्तक
पलकें उठी उठ कर गिरीं
ओंठो की पंखुड़ीयाँ कपकपा उठी
ऐसा लगा जैसे साकी
वो कुछ कहना चाहतीं हों......उमेश
बसते हैं दोजख की नादिया के किनारे
ख्वाबों में बसाए हुए जन्नत के नज़ारे
ख्वाबों को रूबरू करने का है हौसला
बदलेंगे हम तस्वीर को अपने कर्मों के सहारे........उमेश
ये दुनिया हुस्न व सोहरत की , कब किसका साथ निभाई है
कभी जिंदा रखा मुर्दा कर , तो कभी जिंदा ही जला डाला.........उमेश
हर समय याद तेरी आती रही
जिंदगी पास ही गुनगुनाती रही
जिसे खोजा फिरे हर घड़ी हर दिशा
दिल में बैठी वो मूरत मुस्कुराती रही .........उमेश
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