आह्ववाहन
कब तक बैठोगे तम में तुम
बाट जोहते दिनकर की
तुम दीप जलाओ तो पहले
सूरज तो निकलेगा ही
आत्मदीप की आभा में
राकेश तिमिर से लगने लगें
प्रज्जवलित करो तुम आत्म अनल
हिम-तम फिर तो पिघलेगा ही
मन के चंचल इन अश्वों को
इक डोरी में तो बांधो
अधीर हुए क्यूँ बैठे यूँ
मंज़िल पथ तो निकलेगा ही
हैं पथरीली राहें तो क्या
क्या कर लेंगे उतन्ग शिखर
पग अवधारो पहले तो तुम
सुमन राह में बिखरेगा ही
कभी नहीं विचलित होना
कर्म राह से तुम सीखो
इस पार भले मरूभूमि मिले
उस पर सुमन बिखरेगा ही
......उमेश श्रीवास्तव
कब तक बैठोगे तम में तुम
बाट जोहते दिनकर की
तुम दीप जलाओ तो पहले
सूरज तो निकलेगा ही
आत्मदीप की आभा में
राकेश तिमिर से लगने लगें
प्रज्जवलित करो तुम आत्म अनल
हिम-तम फिर तो पिघलेगा ही
मन के चंचल इन अश्वों को
इक डोरी में तो बांधो
अधीर हुए क्यूँ बैठे यूँ
मंज़िल पथ तो निकलेगा ही
हैं पथरीली राहें तो क्या
क्या कर लेंगे उतन्ग शिखर
पग अवधारो पहले तो तुम
सुमन राह में बिखरेगा ही
कभी नहीं विचलित होना
कर्म राह से तुम सीखो
इस पार भले मरूभूमि मिले
उस पर सुमन बिखरेगा ही
......उमेश श्रीवास्तव
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें