आत्मचाह
यह इतने मधुर स्वरो में
है कौन दश्तकें देता ?
इस धूल धूसरित घर की
सुध कौन आज है लेता
सच! गर मुग्धा हो तो
तो लौट तदंतर जाओ
मेरी सिसकारी मे तुम
ना मौज मनाने आओ
गर वैभव की काया हो
फटकार लगाता हूँ मैं
जा भाग यहाँ से कुलटा
धिक्कार लगाता हूँ मैं
यदि हो आकांक्षा देवी
तो , साष्टांग तुम्हे है बाला
तुम बिन सुख से हूँ मैं
ना खुलेगा अब ये ताला
हो अहंकार दुहीता तो
ना कोई काम तुम्हारा
मेरा यह एकाकी जीवन
मुझको तुमसे है प्यारा
यदि काम वासना हो तो
हो ग़लत द्वार पर आई
इस ईश मगन कुटिया में
ना ठौर मिलेगा भाई
गर चंचलता की आशा हो
नैराश्या जाग जाएगा
चुपचाप लौट तुम जाओ
वैराग्य जाग जाएगा
गर पुरुषार्थ प्रेरणा हो
क्यू खड़ी द्वार पर हो तुम
तुमको ही लखता था मैं
क्यू छिपी खड़ी यूँ हो तुम
आओ आओ यह घर तो
तुम को ही ताक रहा था
तम से लड़ने का पौरुष
तुम से ही माँग रहा था
ले कर अपनें अंको में
पुरुषार्थ जगा दो फिर से
शव होता जाता हूँ मैं
शिव आज बना दो फिर से
...उमेश श्रीवास्तव...30.09.1994
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