मुक्तक मुंतज़र ए दिल
दिल के दिए को जला के रखा था
चौखट पे दालान के सोचा था,
आएगा कोई अँधियारे मे मुस्कराने की वजह लेकर
क्या पता था मुंतज़र ए बयार बेकार है ,
सामने सहरा की एक लंबी दीवार है,
गुजर गई आई दीवाली मुस्कान बिखेर
, हम तो अब तक मुंतज़र मे ही बैठे है
दिल के दिए को जला सींचते लहू से बाती.....
....उमेश
मन मोह लिया तूने , अब तो दरस दिखा जा।
तन मन है तुझमें खोया, छू कर मुझे जगा जा ।
25.03.16
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