जड़ से जो उखड़े
जड़ से जो उखड़े,तो जाओगे कहां
पत्तों के सहारे, ना बसेगाआसियां ၊
जड़ से जो उखड़े
जड़ से जो उखड़े,तो जाओगे कहां
पत्तों के सहारे, ना बसेगाआसियां ၊
अबूझ आकांक्षा
उत्कंठा
मुक्ति के ,
अनुभूति की
भटकाती सदा ၊
यह प्रकृति है,
मायावी ၊
रची ब्रम्ह की ၊
आलिप्त करती सदा,
हर कण के
कणों को भी ၊
निर्लिप्त केवल
ब्रम्ह ၊
मुक्ति
स्वातन्त्र है ,
गेह से ၊
इन्द्रियों से ,
पंचवायु से ,
मन ,बुद्धि, दंभ से
आधीन जिनके
उत्कंठा पालता ,
प्राणी ၊
अनुभूति
अन्तस का
नाद है ,
निःस्वर
भेदता है
हर क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ को
कर सके प्रवेश
विरला इस
गुह्य क्षेत्र में
जो रचता ब्रम्ह है ၊
मुक्ति स्वरूप ,
ब्रम्ह बनने की चाह,
युगों से,
देती रही धरा पर,
अबूझ प्राणियों के,
झुण्ड के झुण्ड ၊
कुछ देवत्व पा
इठलाने लगे
कुछ विदेह बन
इतराने लगे
कुछ दानवों के रूप में
निर्मोहिता का
नग्न नृत्य
धृ पर चतुर्दिक
दिखाने लगे ၊
पर हो सके ना
निर्लिप्त ,
मुक्ति का प्रथम पग ၊
डूबे आकण्ठ,
मायावी सरोवर
नीर में ၊
निर्लिप्तता
यूं कि ज्यूं
पुण्डरीक ၊
कीचक और
जीवन सार जल से भी ,
मुक्तता का
कराता आभास
उसमें ही आकंठ डूब ၊
रहा सदा
अति दुरूह
पग उठाना
प्रथम ၊
आकांक्षाएं, अभिलाषाएं
चाहे जितनी पाल लो
दहलीज से
बाहर निकलने को ,
यदि कोई उद्धत न हो,
क्या करेंगी
उत्कट ईप्सा
यदि पगों को
मंजिलों की
चाह न हो ၊
मायावी ऐश्वर्य
जाल ,
फंसा रखता सदा
गेह, मन ,बुद्धि को ၊
आत्म तत्व से विलग
सुख सागरी जल में
तिरते हम,
बस सोच कर मुक्ति के
आनन्द को,
पालते, लालसा का
भ्रूण हैं ၊
और भौतिक सुखों की चाह में
करते निरन्तर,
भ्रूण वध ၊
मुक्त कर स्वयं को
स्वच्छन्द बन ၊
उमेश , इन्दौर, दिनांक ४ - ५ . ०९. १९
सद्पथ
अज्ञात , ज्ञात हो
ग़ज़ल
कहाँ से चला था कहाँ आ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ
इधर भी उधर भी नज़ारे नहीं अब
नीचे ज़मीं ऊपर सितारे नही अब
दिल तो है बच्चा, मगर खो गया मैं
कशिश में किसी की हूँ सो गया मैं
ना भूला हूँ बचपन के खेलों की दुनिया
ना भुला हूँ अरमां तमन्ना की दुनिया
वो गलियाँ अभी भी रूहों में रची हैं
लटटू की डोरी उंगलियों में फसी है
बिखरी है अब तक वो पिट्टूल की चीपे
डरी थी जो गुड़िया उसकी वो चीखें
वो बारिस की, कागज की किश्ती हमारी
चल रही बोझ ले अब भी जीवन की सारी
वो अमवा की बगिया वो पीपल की छइयां
नदिया किनारों की वो छुप्पम छुपैया
सभी खो गये हैं उजालों में आ के
तमस की नदी के किनारों पे आ के
वो माँ की ममता भरी डाट खाना
आँखों से पिता की वो तरेरा जाना
कमी आज सब की खलती हमे अब
गुम हो गये इस भीड़ में हम जब
ये तरक्की ये सोहरत ये बंगला ये गाड़ी
वो माटी के घरोदे वो पहिए की गाड़ी
बदल लो इनसे सभी मेरे अपने
नही चाहिए छल भरे, छलियों के सपने
न लौटेगा अल्हड़ वो बचपन हमारा
सफ़र है सहरा, है सीढ़ियों का सहारा
आँखो ने सहरा के टीले दिखाए
जहाँ है दफ़न मेरे बचपन के साए
चलता रहा छोड़ बचपन की गलियाँ
सकरी हो चली हर ख्वाहिशों की गलियाँ
अब तो यहाँ दम घुटने लगा है
नई ताज़गी से साथ छूटने लगा है
भटकते भटकते कहाँ फँस गया हूँ
कफस में जाँ सा धँस मैं गया हूँ
कहाँ से चला था कहाँ आ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर दिनांक २८.०६.२०१६