यथार्थ की धरा पर अहसास को
भावना से दूर कर यूं ना उतारो
मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो ।
रूपकों से रिस रही रस धार तुम
गूंजती जो छन्द मे अनुस्वार तुम
हूं तृषा, बदरी मेरी बरखा की तुम
मुझको भी कोई नाम दे अब तो पुकारो।
मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो ।
दिख रही हो सामने पर दूर हो
कुछ तो कहो क्यूं आज यूं मजबूर हो
थे चले हम साथ, तुम सब जानती
संग चलने, सहचर मेरे, फिर से पुकारो
मैं बनाता हूं तुम्हे तुम ना बिगाड़ो ।
टूटा नही, बिखरा नही,दरका नही
बात इतनी कि अभी हरखा नही
हरितमा की चाह में पीत होता जा रहा
आतप मेरी रश्मि अपनी मुझपे भी डालो
मैं बनाता हूं तुम्हे, तुम ना बिगाड़ो ।
शव रहा हूं, शक्ति मेरी हर युग रही तुम
आश में विश्वास भर, जगती रही तुम
बन युगल,उल्लास भर,अवनि जो सजाई
रसमई, अब इस धरा को, यूं ना उजाड़ो
मैं बनाता हूं तुम्हे, तुम ना बिगाड़ो ।
प्रेम का तन्तु, विशुद्ध अध्यात्म जग में
तुमने दिया था मुझे, यह ब्रम्ह चिन्तन
चिन्तन यही जब बन गया सार जीवन
मरुभूमि सा अस्तित्व मेरा ना बिगाड़ो
मैं बनाता हूं तुम्हे, तुम ना बिगाड़ो ।
उमेश कुमार श्रीवास्त
भोपाल से निजामुद्दीन यात्रा
भोपाल एक्सप्रेस
दिनांक : १९.१२.२५
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