ग़ज़ल
कहाँ से लाए हो चुरा के इन नज़रो को
चुरा लेती हैं जो हर दिल करीने से
पलक के पर्दों को यूँ आहिस्ता उठाती क्यूँ हो
कहीं डर तो नही , कोई दिल फिसल न गिरे
तीखी नही जो सीधे बेध देती है
खंजर सी तिरछी नज़र से देखा न करो
कहने को लाख कहे झील या दरिया
हमे तो जाम-ए-हाला ही नज़र आती है
क्या कम तेरा हुस्न खाना खराब करने को
तीर-ए -नज़र के वार से हो क्यूँ विस्मिल हम
यदि चाहते हम भी हुस्न का दीदार करें
इश्क की चासनी भर इनको झुका लो ज़रा
उमेश कुमार श्रीवास्तव
कहाँ से लाए हो चुरा के इन नज़रो को
चुरा लेती हैं जो हर दिल करीने से
पलक के पर्दों को यूँ आहिस्ता उठाती क्यूँ हो
कहीं डर तो नही , कोई दिल फिसल न गिरे
तीखी नही जो सीधे बेध देती है
खंजर सी तिरछी नज़र से देखा न करो
कहने को लाख कहे झील या दरिया
हमे तो जाम-ए-हाला ही नज़र आती है
क्या कम तेरा हुस्न खाना खराब करने को
तीर-ए -नज़र के वार से हो क्यूँ विस्मिल हम
यदि चाहते हम भी हुस्न का दीदार करें
इश्क की चासनी भर इनको झुका लो ज़रा
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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