वैवाहिक जीवन के तृतीय बासंती सुरभित पथ पर अपनी वामा को अर्पित की गई चंद पंक्तियाँ ( ०४ फ़रवरी १९९७ )
कल की घड़ियों में सज्जित हो कर
गुजर चले दो मधुर वर्ष
प्रवेश नवीन वर्ष में, परिणय के
देते कितने प्रमुदित हर्ष
कितने चुपके चुपके गुज़रे
खो से गये थे जिनमें हम
पता लगा न उनके जाने का
ऐसे इकसार हुए थे हम
कितनी मधुर घड़ी थी वह
कितने सुरभित वे पल छिन
बासंती फूलों से सुरभित
तुमको वरण किया जिस दिन
वामा बन कर तुमने मेरी
उत्साह नया संचार किया
जीवन को नई उमंगे दी
इस जीवन को श्रृंगार दिया
उमस घुटन से भरा नीड़ था
जिसमें तुमको मैं लाया था
तेरे आने से ही मैंनें
उसको उपवन सा पाया था
हर पल तेरी सुरभित सांसो नें
जीवन मेरा चैतन्य किया
उर्वी तेरे आगम नें
जीवन मुझको उपहार दिया
प्रेम वाटिका की आश मेरी
तुमने आ कर साकार किया
तेज खो रहे अंशू को
नव जीवन उपहार दिया
मेरी बगिया , मरूभूमि मध्य थी
स्नेह सलिला सा प्यार किया
जीवन की इस सूखी बगिया को
इक मधुर पुष्प उपहार दिया
हर पल हर क्षण तुमसे मैनें
जीवन रस को है पाया
स्नेह प्यार की क्षुधा लिए
अक्षय प्यार तुमसे पाया
प्यारी प्यारी खट्टी मीठी
कितनी ही घड़ियों में सिमटे हम
इक साँस बने इक जान बने
जिन घड़ियों से गुज़रे हम
हर साँस मेरी हर आश मेरी
अब बाट जोहाती रहती है
इक पल को भी ओझल जब तू
मेरे नयनों से होती है
बस यूँ ही इक रस हो कर
अपना प्यार निभाएँगे
ऋतुराज मध्य जब प्रणय हुआ
बन सुरभि प्यार लुटाएँगे
अनन्त बासंती फूलों से
हम परिणय वर्ष सजाएँगे
जीवन भर प्रेम सुधा पी कर
हम अमर युगल कहलाएँगे
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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