निद्रा-देवी
वह आई चुपके-चुपके
औ आँखो में उतर गई
मैं सुधबुध खो
रहा देखता उसे
जो किसी महक की तरह
ह्रदय में विचर गई
मैं खोया था यादो में
और किसी की
विरह व्यथा थी मेरे दिल में
और किसी की
पर वह थी दूर बहोत ही
मुझसे साकी
इसने आ आलिंगन में, भरा मुझे
मस्ती में थी झुलसी
मदमस्त करा मुझे
मैं खोया खोया रहा देखता उसे
जो , धीरे धीरे ले आगोश में
वहीं की वहीं पसर गई
वह आई चुपके-चुपके
औ आँखो में उतर गई
मैं सुधबुध खो
रहा देखता उसे
जो किसी महक की तरह
ह्रदय में विचर गई
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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