एक मुद्दत हुई , साथ देखे उन्हे
अब तो यादों से भी कतरा, निकल जाते हैं
जिस दर पे थी खिलती तब्बस्सुम सदा
अब सरे शाम परदा गिरा जाते हैं
हम समझते इसे भी इश्क की ही अदा
पर , लोग हमे ही बेहया बना जाते हैं
इस कदर इश्क का जुनू है हम पर चढ़ा
कि , कूचें में फिर भी अश्क बहा आते हैं
उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन
जो हाथ गैरों का थामे चले जाते हैं
हो मिलता शुकून उनको जलन से हमारी
सोच कूंचे में उनकी हॅम चले आते हैं
उमेश कुमार श्रीवास्तव
काश तुम्हारे पहलू में मेरा ही दिल होता
समझ तो सकते तन्हाई में जीना कितना मुश्किल होता
तुमने तो अंगड़ाई ले कर खुले छोड़ दिए गेसू
इन घनी सावनी रातों से बचना कितना मुश्किल होता
तुम इतने बेफ़िक्र हुए बाँध के पग में ये घुंघरू
दिल की अब धड़कन को समझाना कितना मुश्किल होता
अदा भरी इन आहों को अब रोक भी लो ऐ 'साकी'
पहले जीना ही मुश्किल था अब मारना भी मुश्किल होता
उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक:२३.०७.१९८९
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