कड़वा सत्य
गिरी पाती एक
पतझड़ में टूट कर
ना आह ही निकली
ना रोया ही फूट कर
कश्मकश तो थी दिल में
पर वो भी क्या करे
प्रकृति के नियम से
वो क्यूँ मुह मोड़ ले
वर्षा में भीगा कोमल तन
शरद में था अकड़ा
हेमंत में ठिठुर ठिठुर कर
था साख में ही जकड़ा
शिशिर में सिसक रहा पड़ा
पैरों के तले
प्रकृति के नियम से वो क्यूँ कर लड़े
आया है जो जग में
है नश्वर बन के आया
जाएगा सांझ बन कर
सुबह के तले
जाएगा सांझ बन कर
सुबह के तले
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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