लो आज मैं निखर गया ।
लौह था ये पुर मेरा
स्वांस थी ज्वाल की,
प्रस्तरों के कोष थे
बिजुलियों की शिरायें,
मन चिन्तनों में खो गया
माखन बना, पिघल गया,
लो आज मैं निखर गया ।
निराली हर दिशा रही
अबूझ हर दशा रही
कलप रही थी जिन्दगी
वो बन्दिनी थी ,बन्दिनी
हर दिशा पर राज अब
हर दशा में साज अब
प्रमोद आज जिन्दगी
आमोद से हूं भर गया
लो आज मैं निखर गया ।
पाषाण से परमाणु हूं
विवेक संग स्वतन्त्र हूं
अनवरत भ्रमण में रह
तुझी में खो रहा हूं मैं
अनन्त नाद में रमा
अनन्त को कदम बढ़ा
यायावर सा हूं बह गया
लो आज मैं निखर गया ।
अनन्त हूं ,है चाह भी
मंजिल मेरी, यह राह ही,
इस पर बढूँ ,फिर न जुड़ूं
इस धरा का हर कण हूं मैं
हर प्राणियों का प्राण सा
आह्लाद कर, हूं बन गया,
यूं टूट कर बिखर गया
यूं आज मैं निखर गया ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , 20.07.20
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