एक मुद्दत हुई उनको साथ देखे
अब तो यादों से क़तरा , निकल जाते हैं
जिस दर पे थी खिलती हर साम तब्बस्सुम
अब सरे साम परदा गिरा जाते हैं
हम तो हैं समझते इसे, इश्क की ही अदा
लोग हम को बेहया , बना जाते हैं
इस कदर इश्क का जुनू है हम पर छाया
कि कूंचे में फिर भी अश्क बहा आते हैं
उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन
जो थामे हाथ गैरों का चले जाते हैं
हो मिलता सुकून उनको जलन से हमारी
सोच कर यही हम भी चले आते हैं
.......उमेश श्रीवास्तव....01.08.1990
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