ग़ज़ल
खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो
दिल है बच्चा जो मेरा, तो क्या ग़लत हुजूर
मेरे दिल पर उम्र का, स्याह साया न करो
काश तुम भी भूल कर, आ जाते इस गली
फिर ये कहते. यूँ उम्र को, तुम जाया न करो !
हम तो चलते उस राह पर, जो नेमत मे है मिली
तन्हाइयों की राह हमें, तुम बतलाया न करो
अलमस्त हूँ अल्हड़ हूँ मैं, परवाह नहीं इसकी मुझे
तुम सबक संजीदगी का, यूँ सिखाया न करो
मैं निरा बच्चा रहूं बच्चा जियूं बच्चा मरूं
तुम मेरे मिज़ाज को औरों से मिलाया न करो
खुली किताबे हर्फ हूँ जो चाहे पढ़ ले जब कभी
इंसानी फितरत से मेरा ताल्लुक कराया न करो
खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो
उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, "मेरी ग़ज़लें" से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें