मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

नव वर्ष अभिनन्दन

वसुंधरा की हम संतान
करें नित मंगल गान
नये वर्ष की हर किरण नई
 दे उर्जा नई व उमंगित  प्राण.........उमेश

सोमवार, 9 दिसंबर 2024

प्रेम तुमअनुपमेय हो

प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई 
प्रेम तुम अनुपमेय हो

था मिला 
तुमसे प्रथम
जब गर्भ में था पल रहा
सींचती थी पोषती थी
स्वयं को गला गला
प्रेम का ही रूप
स्नेह 
था नही तो और क्या ?
तू मिला मां बन मुझे ।

फिर मिला तू मुझे
स्पर्श के रूप में
जब जगत में
जग उठा था
किलकारियों का स्वर मेरा
और बढ़ कर
स्नेहिल करों ने
दुलार से छुआ मुझे
रोमांच की अनुभूति से
सिहरी थी लघु काया मेरी
जाना कि स्पर्श होता है क्या !

फिर पिता की गोद में
सकुचा सिमट आये थे तुम
प्यार के उस रूप से
इक दिलासा था मिला
मृदु नही कठोर जग है
पर हर जगह संग हूं खड़ा
प्यार का यह रूप मुझमें
पाषाण सा भर गया
जिस पर 
था सुधा रस झर रहा ।

फिर अनेकों रिस्तों में 
छिप छिप, 
तू मुझे आ कर मिला
प्यार बन तकरार बन
और अनोखा लाड़ बन
बिन कहे बिन सुने
अहसासों मे घुलता हुआ
अस्तित्व को तू मेरे
हौले हौले गढ़ता हुआ ।

हूं देखता जो आज जग को
कण कण में पाता हूं तुझे
इस धरा के हर रूप में
मुझको दिखे बस प्रेम है
चाहता बस प्रेम पाना
और लुटाना बस प्रेम है
इसलिये कहता हूं मैं
प्रेम तुम
अनुपमेय हो
कैसे गढूं उपमा कोई 
प्रेम तुम अनुपमेय हो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
१४ . १२ . २४




शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

मोती छिटकती हो धरा पर 
रात भर
हो सजाती तृण पात 
कुसुम पाषाण भी
ऐ चांदनी तुम अथक !
क्या चाह ले ?

रजनी संग मेल तेरा
तारों ने लिखा है
आकाश सारा मुग्ध 
लख नक्षत्र सारे 
जो खड़ा अगवानी को
स्वागत में तेरे

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

चाहत क्या है, आओ कह दूं
मन के परदे को थोड़ा सरका
अन्तस की बगिया में ले जा
अभिलाषाओं के दर्शन दे दूं
चाहत क्या है , आओ कह दूं ।

सुन्दर हो निर्झरणी जैसी
हो कपास की डलियों जैसी
कचनार पुष्प भी सकुचा जायें
हो रंगत यूं परियाँ जैसी

हिम आलय की झील सी आंखे
केश राशि ज्यूं छाये घन

गुरुवार, 28 नवंबर 2024

               मेरे विचार

प्रथाएं  अनुशासन हैं ।
दृढ़ हो चुके अनुशासन ही रुढ़िया परम्पराएं हैं ।
इस धरा के एक पशु को मानव बनाने के लिये ,
जो गढ़ी गई ,
युगों के हर काल खण्ड में
 समग्र सोच वाले बुद्धिजीवी 
विशुद्ध आत्माओं द्वारा ,
जो शरीर को ही स्व नही मानते थे 
और धरा के अन्य पशुओं से अलग करने हेतु 
मानवों को सरलता से ,
इक सुगम सुरम्य पथ देना चाहते थे ,
सुसंस्कृत सुसभ्य समाज गढ़ने के लिये । जिससे हम दिख सकें अन्य वन्य प्राणियों से पृथक ।
पर आज वही प्राणी ( मानव ) अनुशासन को जंजीर बता
स्वतन्त्र होना चाहता है
पुनः जंगली जन्तु बन स्वच्छन्द होने के लिये ।
ब्रम्हाण्ड का हर कण, 
कणों से ही गठित 
विशालतम ग्रह नक्षत्र आदि पिण्ड का
अस्तित्व भी 
अनुशासन से ही चल रहा
उनमें रेसे  के शिरे के करोड़वें हिस्से का भी विचलन
ब्रम्हाण्ड के अस्तित्व को मेटने का सामर्थ रखता है .
हे मानव अनुशासन की शक्ति को पहचान
उसे दकियानूसी कह 
जंगली स्वच्छन्दता के आवरण के आकर्षण से  बच ।
प्रथाओं , रुढ़ियों व परम्पराओं में
समय , काल , परिस्थितियोँ के अनुरूप
मानव हित में
परिवर्तन परिवर्धन संशोधन करना उचित है
पर किनके  द्वारा 
यह विचारणीय है
भीड़ तन्त्र के नायक अनुपयुक्त हैं
समाजिक मानवीय चिन्तन के पुरोधाओं को चुनना होगा
जो अनन्त तक 
सन्ततियों के प्रवाह को दृष्टिगत कर
संस्कारों को गढ़ने में हों समर्थ
न कि खाओ पियो मौज कर जीओ के अनुगामी नेतृत्व
जो स्व तक सीमित है
जिनके भान में
उनका जीवन ही इस धरा का अन्तिम 
शोषक प्राण है ।
रे मानव 
अनुशासन में जीने की उन्मुक्तता 
स्वतन्त्रता है
अनुशासनहीन जीवन स्वच्छन्दता,
इसे जान
कर निर्धारित कि तुझे बनना क्या है
स्वच्छन्द जानवर या स्वतन्त्र इन्सान ।


          उमेश कुमार श्रीवास्तव
                    भोपाल



गुरुवार, 21 नवंबर 2024

बैठा यूं हूं

कहने को तो कह सकता हूं
चुपचाप नही बैठा यूं हूं
जान रहा सब की सब कुछ
बस बेज़ार हुआ बैठा यूं हूं ।

राह बनी चलने को तो
कहीं न कहीं जाती होगी
कहां है जाना पूछ रही वो
असमंजस में बैठा यूं हूं ।

कहोगे पागल कह लो हक है
दीवाने की राह चुनी जो
हस लूं रो लूं या गा लूं
ले सोच यही बैठा यूं हूं ।

जन्नत दोज़ख नही जानता
जिसमें भेजो जा रह लूंगा
कह दो मुझको बस जाने को
सुनने भर को बैठा यूं हूं ।

गढ़ने को तो मैं भी गढ़ सकता
जीने के सोपान बहुत
पर, नीरवता मुझको प्यारी
रिक्त चित्त ले  बैठा यूं हूं ।

उमेश श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : २१ . ११ . २४


शनिवार, 16 नवंबर 2024

धुंध

धुंध

धुंध सी छाई हुई थी
चारो दिशा में 
डूबे हुये, नग शिखर
वन प्रान्तर 
तड़ाग, खेत - खलिहान भी
भवनों, घरों पर भी 
सफेदी फैली हुई
छटपटाते लगते 
निकलने को सभी
पर बेबसी, झलकती
चेहरे पर सभी के
प्रयास में
ज्यूं उलझ जाते 
और भी ।

घुंध सी छाई 
मन मस्तिष्क पर 
उन कणों से
जो धरा से उठ
ना हो सके स्थिर
भटकते घूमते व्योम में
विषाणु सम हो,
अवरोधित कर रहे
चिन्तन
विषाक्त करते
मन ।

कर्म जो कर रहे
मनु पुत्र 
चिन्तन उसमे है कहां
जो है, है क्षणिक
मातृ ऋण जो भर रहे
वो है कलुषित
जब कालिमा
हर चिन्तन कर्म में
फिर क्यूं ना धुंध हो
कर्म का प्रतिकर्म 
सम्मुख है खड़ा
प्रगति पथ पर
फिर क्यूं ना धुंध हो ।

कर्म मानव
भोगते धरा के हर प्राण
श्रेष्ठ कहता स्वयं को
श्रेष्ठता क्या 
रहा क्या भान
अहंकारी तन - मन,जीवन लिये
धरा को मेटने को
तुल रहा 
धुंधकारी बन
आज मनु सन्तान ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
भोपाल एक्सप्रेस
दिल्ली - भोपाल
दिनांक १९ . ११ . २४










रविवार, 10 नवंबर 2024

मैं और तू

मैं और तू

हूं निरखता, मैं,निरन्तर
अन्तस की गलियों में उतर ।
खोजता रहता हूं नित
हर गली हर राह पर ।

इक झलक की चाह ने
बावरा सा कर दिया
रश्मि आंखो से गई
रजनी से दामन भर दिया ।

तप ये नही ! तो और क्या ?
तू ही बता कितना तपूं
तपन की इस अगन ने 
क्या क्या न मेरा रज हुआ।

मैं हूं अलग या तो मुझे
यह झलक आ कर दिखा,
या मेरे विश्वास को
"परमात्म हूं" सच कर दिखा ၊

नित निरन्तर जूझता 
जिन्दा हूं, या हूं, जी रहा
तू ही बता , तू ईश है
पाने की तेरी राह क्या ?

जड़ नही, हूं पशु नही , 
औरस मनु सन्तान हूं
इस धरा पर आज भी 
मैं ही, तेरी पहचान हूं ၊

फिर भटकता क्यूं फिर रहा
स्वयं की ही खोज में
ये भरम क्यूं भर रहा
फिर मेरी इस मौज में ၊

आ तनिक मुझको बता
मैं पृथक क्यूं कर हुआ
आत्म मैं परमात्म तू ,फिर
योग क्यूं क्षितिकर हुआ ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक 25.04.2020
इंदौर

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

अर्णव- मानव द्वन्द

अर्णव- मानव द्वन्द

था बैठा तट पर,
तकता, 
मैं लहरों को,
औ , 
पारावार ,
झांक रहा था
मुझमें
अपनी लहरों से ၊

वह व्यग्र , अनन्त,
उदधि, ज्यों
अपनी अनन्त बाहों को, 
विस्तारित कर ,
आलंगित करने को ,
मुझको , मुझ से
मांग रहा था ၊

मैं विह्वल था,
उसके अशौच ,
फेड़ित अश्रु नीर से,
वह उद्‌वेलित 
पीड़ित मेरे 
हिय पथ को लख ၊

अनन्त क्षितिज तक 
विस्तारित
अर्णव वक्ष,
चंचल , निश्च्छल 
अनगिनत प्राण का
आश्रय स्थल ,
स्वयं आशुतोष भी
पा जाता शीतलता
जिस पर उतर बिखर
आभा दे जाता स्वर्णिम 
नीलाम्बरी नदीश को ,
प्रतिफल में ၊

वाह, रे मनु वंशज !
कृतघ्न तू ,
जो तेरा पालक, 
रहा आदि से,
वह पूजनीय , 
जो करता आया ,
पोषण,
तेरा हर क्षण ,
मैला करता फिरता
तू उसका
ना , केवल बाह्य आवरण
वरन, ह्रदय प्रदेश भी
अपनी कलुषित 
सोच प्रदर्शित कर ,
अपने हर त्याज्य
तत्व से
आपूरित कर निरन्तर ၊

हा !
धिक्कार तुझे ,
ऐ मानव ,
पुरखों की थाती,
अनगिनत रूढ़ियां
और प्रथाएं,
कर
पददलित ,
भोगने को
बस वैभव,
भोग्या सा करता
व्यवहार ,
प्रकृति से ,
फिरता फुला तू छाती ၊

रे,अधम ၊
प्रकृति का रक्षक
है निःस्पृही ,ये अर्णव ၊
अनगिनत बार
प्राच्छालित किए है
इस वसुधा को ,
मिटा कर अस्तित्व तेरा ၊
ना भूल ,
रक्षक के बल को ,
अपने अहं को पोषित कर ၊

है धर्मनिष्ठ , अनुशासित भी,
पयोनिधि , पर,
धरा से धर्म 
नष्ट न होने देगा,
पद बढ़े अगर
इस दिशा तुम्हारे ,
यह उदधि 
तुम्हे
फिर यहां ,
बसने ना देगा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव (यह कविता आरम्भ हुई दिनांक ०८.१०.१९ को चन्द्रभागा समुद्र तट पुरी में व पूर्णता को प्राप्त की आज दिनांक ०२.११.१९ को इन्दौर से भोपाल के ट्रेन यात्रा में)

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

गज़ल खामोश नज़र का ये असर

ग़ज़ल

खामोश नज़र का ये असर , कुछ धीमा धीमा है
विंदास अदा का ये कहर ,  कुछ धीमा धीमा है

देखो ठहर सी जाती अब , जीवन की तड़पती चपला ये
पायल की रुनझुन का ये असर, कुछ धीमा धीमा है

प्यासी तड़पती बुलबुल ये , मर जाये ना इक आश लिए
मद से भरे अधरों का असर , कुछ धीमा धीमा है

बिखरी सबा में खुशबूए , गश खाने लगा दिल ठहर ठहर
ज़ुल्फो का तेरी , खुशबू का असर, कुछ धीमा धीमा है

ये शोख अदा ये बांकापन , उस पे ये जवां अंगड़ाई
यौवन की तेरे, इस मय का असर , कुछ धीमा धीमा है

खामोश नज़र का ये असर , कुछ धीमा धीमा है
विंदास अदा का ये कहर ,  कुछ धीमा धीमा है

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

कल,आज और कल

छा रहा कुहासा फिर
सभ्यताएं सिहर रही 
नव कोपलें पीत हो रही 
दरख्त खड़े असहाय हैं

कराहती हर दिशाएं
हवाएँ बिषैली बह रही 
फूलों की बारूदी गंध ले
मधु मक्खियां रो रही

नदियां गरल ले बह रही
मृदा विषाक्त हो चली
विकार वाहक शस्य बने
लख मनु रक्त वमन करें

मानसिक विकार ने
चिन्तन प्रभावित कर दिया
भोग ने योग को
आज पराजित कर दिया

विकास ने विनाश को
लक्ष्य दे बुला लिया
सर्वस्व की क्षुधा ने आज
है मनुज को बदल दिया

बदल रही प्रकृति या
बदल प्रकृति को हम रहे
सोच लो तनिक ठहर
जा किधर हम रहे ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ०५ / १२ / २०२४







हम अपनी सुविधाओं का 
कितना ध्यान रखते हैं
दूसरों की असुविधाओं से
हो बेपरवाह
पीड़ा क्या होती है
तभी पता चलता है
जब होती स्वयं को वह
दूसरों की पीड़ा बेमतलब की
हमें उससे लेना व देना क्या

बना लेते हैं अनेको बहाने
जब जरा अड़चन आती है 
अपनी सुविधाओं में
दूसरों से छिनने को सुविधाएं
भले  ही जी रहा हो वह पीड़ाओं में


बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

"बहल जाता हूं " गज़ल

बहल जाता हूं अब तो
खुमार - ए - गम से 
खुशियों की तमन्ना
अब किया नही करता ।

टीश , दिल में , दिमाग में
या  हो बदन में 
अश्क का इंतजार 
अब किया नही करता ।

ख्वाब दिल में रहे
जितनी भी हसरतें ले कर
ख्वाबों पर एतबार
अब किया नही करता ।

टूटना बिखरना 
कहा करते किसको
इनका दर्द सुमार
अब किया नही करता ।

पास आ कर तुम
क्या पाओगे मुझमें
दुनिया में  खुद को सुमार 
अब किया नही करता ।

महफिल से जा 
ख्वाबों में  न आओ यूं 
ख्वाबों पर  मैं एतबार 
अब किया नही करता ।

दिनांक २३ . १० . २४


सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

मीत सदा तुम गुंजन करना
भ्रमर बने बगिया में रहना
मीत सदा तुम गुंजन करना ।
भांति भांति की पुष्प लताएँ
भांति भांति के पुष्प कुंज हैं
 कलियां ना कुम्हलाने पायें
पुष्प बने सब वह गीत सुनाना

सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

शेर

आंसू तो है वो कतरा जो सब कुछ चीर देता है
चाहे वो अन्दर हो या बाहर घाव गम्भीर देता है ।....उमेश

मित्र क्या है ?

मित्र क्या है !

रूप है ,
कृष्ण सा
सखाओं का सखा
दर्द का अवलेह है
कष्ट का निवारक
मुस्कान जिसकी
मोह लेती पाषाण को भी ।

मित्र क्या है ?
श्रेष्ठ रस ,
श्रृंगार सा
सुख मधुरिमा लुटाता
आनन्द के अतिरेक तक
मेट देता दुःखों की
हर रेख को
मित्र आमुख पर
प्रसन्नता ला टिकाता ।

मित्र क्या है ?
इक गंध है , 
अत्यन्त मीठी
मोहक , चंचलता लिये
बरसात की बून्दों से उपजी
धरा धूल सी सोंधी
अस्तित्व हर
प्राणों में रमती है जो ।

मित्र क्या है ?
स्पर्श है ?
संवेदनाओं की 
मां के करों की
पिता के हृदय की
भगनियों के नयन की
जो उतरती धमनियों से
गेह के हर पोर से
स्निग्ध स्नेह बिखेरने
करों पर ।

मित्र क्या है ?
नाद है , 
अह्लाद का 
प्रमोद का प्रह्लाद का
कर्ण पटल पर 
अनुगूंज जिसकी
वेणु धुन सी
मोहित करती प्राण को
आत्मतत्व में
अनाहत नाद सी । 

मित्र क्या है ?
वास्तव में धरा है
जिसमें समाहित
शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध
सर्वगुण
जो पोषती , स्निग्ध हृदय से
सब रूप में
सुहृदय सहचर बन कर ।


 उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : १० . १० . २०२४

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

व्यथा

व्यथा

मनु वशंजों की कहानियां
अब आकर्षक नही लगती
जानवरों, तितलियाँ, 
चिड़ियाँ की कहानियों में 
और हां, पर्वतों , नदियों , जलचरों
वनों, पेड़ - पौधों , 
बगीचो की कहानियों में
जीवित है अब भी आकर्षण । 

लोभ, मोह,  द्वेष, क्रोध, स्वार्थ
के अपने मूल चेहरे पर 
कितने करीने से मोहकता 
ओढ़ रखी है मनुवंशजों नें ।

लिजलिजी से पीड़ा
कुलबुला जाती है अन्तस में कहीं
जब कभी साक्षात्कार हो जाता है
इस धरा के 
सबसे निकृष्ठ बन चुके प्राणी से 
चाहे यथार्थ प्रत्यक्ष
या कहानियो  में ।

पहले कभी उसकी चाह में
राष्ट्र प्रथम था 
फिर देश , प्रदेश , ग्राम का श्रेष्ठ 
उसका कर्म था
फिर आता था  समाज ,कुटुम्ब
परिवार व पत्नी बच्चों का सुख
तब कहीं वह स्वयं था ।

अब किसी भी , किसी की भी 
 किस्से कहानियों में
बस वह स्वयं तना खड़ा है 
सपाट भावनाहीन चेहरा लिये
क्रूर दिल लिये
समसीरी ज़बान लिये ।

स्वयं के लिये ही जीना 
उसकी प्रकृति बन चुका है
सम्बन्ध हों कोई
मूल्य यदि अनुरूप हो
है सदा बेचने को तत्पर
निकृष्ठ हो चुका रीढ़ हीन
केचुये से भी
ऐसे अस्तित्व की कहानियां 
लिजलिजी हो चली
बे स्वाद गंधहीन हो चली
घिन सी आने लगी है इनसे
इसलिये
मनु वशंजों की कहानियां
अब आकर्षक नही लगती ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजमवन , भोपाल
दिनांक ०२ . ११ . २४






शुक्रवार, 21 जून 2024

नही चाहती अभी मैं शादी


नही चाहती अभी मैं शादी
यौवन जब तक मिले अजादी
नहीं चाहती अभी मैं शादी

अभी मैं चाहूं खुल कर जीना
चाह मेरी जो वो सब करना
क्यूं अनुशासन में जकड़ूं मैं
क्यूं एक की बाहों में तड़पूं मै 
कितनी बाहें फड़क रही हैं 
कितनी आहें भड़क रहीं हैं
क्यूं न सबको दूं आजादी
नही चाहती अभी मैं शादी

हर सासों की खुशबू ले लूं
बदन की उनकी गरमी ले लूं
तन से लिपट आह तो भर लूं
एक की हो क्यूं जन्नत खो दूं
ये तो बस है बनना बांदी
नही चाहती अभी मैं शादी ' ।

अभी तो सपने देख रही हूँ
अभी तो जीना सीख रही हूं
पड़ा हुआ है जीवन सारा
नही चाहिए मुझे सहारा
मै अपने को कुछ तो गढ़ लूं
यौवन के कुछ मजे तो ले लूं
कुछ आगे कुछ पीछे घेरे
दाये बायें कुछ को कर लूं
तभी तो मैं सुर्खाब बनूंगी
मस्ती का शैलाब तो बन लूं
क्यूं कर लूं अपनी बर्बादी
नही चाहती अभी मैं शादी ।

नहीं चाहिए अच्छे बच्चे 
लगते होंगे सबको अच्छे
मुझे अभी भविष्य है गढ़ना
धन दौलत के अम्बार पे चढ़ना
क्यूं बच्चे  का बन्धत ले लूं 
घर गृहस्थी के पचड़े झेलूं
चूल्हा चौका ना मैं जानू
क्यूं उसके पचड़ों को मानू
देखो कितनी बढ़ी अबादी
नही चाहती अभी मैं शादी

मां आंसू के सैलाब से तोले
बापू हर क्षण रोष से बोलें
गलत राह है सब ये कहते 
सही समय यह ही है कहते
समय गये पछताओगे
कोस कोस के आहें भरते
कैसे कहूं कि क्या तुम पाये
मुझ जैसे को जग में लाये
लाये हो तो जीने भी दो
मुझे तो दे दो  बस आजादी
नही चाहती अभी मैं शादी ।

जब चाहूंगी मै कर लूंगी 
नही किया तो संग रह लूंगी
वहां न कोई बन्धन होगा
मैं भी खुश वह भी होगा
ना चूल्हा ना चौका होगा
ना बच्चों का चेंचें होगा
उसका जीवन मेरा जीवन
दोनों का अपना जीवन
वहां न कोई मेल रहेगा
अपना अपना खेल रहेगा
मन ऊबा तो कहां है बन्धन
क्यूं आघात क्यूं हो  क्रन्दन
कौन सा दिल से जुड़े हुए हैं
हर कपाट जो खुले हुए है
भाव जगत छीने आजादी
हां, हूं निष्ठुर, चाहूं आजादी
नहीं चाहती अभी मैं शादी

मुझको मेरी राह पसन्द है
छाव नही  धूप पसन्द है
मुझको मेरा आकाश सौंप दो
कूंची दे दी कैनवास सौंप दो
जो चाहूं मुझको करने दो
अपना अनुभव ज्ञान रखो तुम
मुझको अपना ले लेने दो
क्यूं मानू जो कहो तुम अच्छा
ज्ञान तुम्हारा क्यूं मानू सच्चा ।
मेरी शिक्षा मेरा ज्ञान
मुझको इन पर है अभिमान
संस्कार की बात करो ना
उनसे मेरा गठजोड़ करो ना
नहीं है बनना उनकी बांदी
नही चाहती अभी मैं शादी ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल म० प्र०
दिनांक २१ . ०६ . २०२४💐💐









मंगलवार, 4 जून 2024

अन्तर जीवन का

श्रमिक अधर मुस्कान
बेधती है हिय मेरा
मैं  अभिजात छली
अधर पर,असित का डेरा

तप्त स्वर्ण मरू रवि की
छिटकी चंहु दिश
पर अधरों पर उसके
स्मित अहरनिश

ताप कहाँ राकेश तेरा
श्वेद की बून्दे पूछे
उनकी स्मित लख
कंठ भानु के सूखे

वसन चीथड़े फटे
यूं खुल मुस्काएं
सभ्य जगत के गंड पर
ज्यूं चपत लगायें

नयनों में आह्लाद भरे
वह तकती शिशु यूं
ईश तके नित
अपने भक्तों को ज्यूं

सुख-दुःख दो पाट
बहे मध्य जीवन धारा
सच्चा तू ही साधक
कर मलंग जीवन सारा

रिक्त रिक्त सा
अभिजात्य यह जीवन
सराबोर हर रस से
श्रमिक तेरा यह जीवन


उमेश कुमार श्रीवस्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : ०४ . ०६ . २४


शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

वह कौन है जो पास भी और दूर भी 
श्रृष्टि जिससे है घटित पर सृष्टि से जो दूर भी

जड़, गतिशील, तरल से है जगत
तत्व सारे है ये किससे
है किसने इन सब को घेरा

वह कौन है वह कौन है
है खोजता आदि से ही 
हर प्रज्ञावान अब तक , 
पर प्रज्ञा दी है जिसने
ना उसे वह पा सका

शुक्रवार, 8 मार्च 2024

हे आदि देव हे महादेव
हर- हर, हर -हर, हे शिव शम्भो
हे काल चाल, हे चन्द्र भाल
हर ताप हरो हे शिव शम्भो

है नीलकंठ में मुंड माल
है जटाजूट में गंग जाल
दिगम्बरी गेह पर भस्म

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

तू उदास क्यूं है कचनार
खड़ा अकेला रीता - रीता
अधर हैं प्यासे प्यासी आंखे
हिय व्याकुलता का ज्यूं आगार
तू उदास क्यूं है कचनार । .

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

कर्तव्य बोध हो प्रथम चरण 
अधिकार बोध अगले पग पर
राष्ट्र समर्पित जब हर गण हो
गणतन्त्र तभी प्रगति पथ पर ।

उल्लास उमंग क्षणिक जब हो
उत्प्रेरक जीवन कर न सके
नाभि जगे स्वस्फूर्ति मथे


सोमवार, 1 जनवरी 2024

आ रहे राम

आ रहे
हैं राम
संवर जा रे मानव
हुआ नया भिंसार
सम्हल जा हे मानव । 

रामराज्य को ना देखा पर
रामराज्य पर आस टिकी
ठुमक ठुमक कर आते राम
अधरों पर मुस्कान टिकी ।

आओ सब मिल स्वागत कर लें
नव प्रभात की बेला में
रामराज्य है मधुरिम आभा
हर सपनों के रेला मे ।

मांज मांज कर हर मन तन को
पशु से मानव कर ले तू
नव युग के इस सन्धिकाल में
संग राम के हो ले तू ।

नव वर्ष नहि नव विहान है
चेतनता का आलिंगन कर
अगवानी कर रामराज्य की
मुस्कानों से जीवन भर ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन भोपाल
दिनांक ०१ . ०१ . २०२४