यादें , छुटपन की
घूम रहा था जाने कब से, बचपन की उन गलियों में
जिन्हे छोड़ आया था कब का जीवन की रंगरलियों में
दीख रही थी वो पगडंडी जिस पर दौड़ा करते थे
वह अमराई की बगिया भी जिसमें खेला करते थे
चना मटर सरसो की कलियाँ, फूली मन की बगिया में
बेचैन हुए सब साथी को, यूँ , जैसे आग लगी हो खटिया में
नहर की पुलिया , घाट सई का, हाट गाँव का आया याद
जहाँ जहाँ उत्पात किए थे,इक इक कर सब आए साथ
नहर की पटिया, मेड़ खेत का, हो खेलों के चाहे मैदान
टोली जिधर भी बैठे जानो, समय हुआ उनसे अंजान
जेठ की गर्मी माघ का कुहरा भादो की उद्धत बरसात
संग नहीं छूटा यारों का, देते घूमे मौसम को मात
पुकार रही थी खेत की माटी ,मैं कंकरीट के जंगल में
मकड़जाल सा यह जीवन , माना जिसको मंगल मैं
यादों ने कतारबद्ध कर सब, इक झोके से ला यूँ है पटका
सम्हल सका हूँ अब तक ना मैं, खड़ा हूँ अब तक हक्का बक्का
उमेश कुमार श्रीवास्तव 22.12.2015
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